मुंबई में 'इंडिया' गठबंधन की पिछली बैठक हुई, जिसके बाद खबरें आईं कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने विपक्षी दलों के देशभर में जाति जनगणना की मांग के संयुक्त प्रस्ताव को रोक दिया है. बिहार की दोनों सत्तारूढ़ पार्टियों, जेडीयू और आरजेडी ने गठबंधन से जाति जनगणना को लेकर एक मजबूत प्रस्ताव रखने की अपील की थी.
SP और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम यानी डीएमके, सीपीआई समेत कांग्रेस ने भी इसका समर्थन किया था लेकिन ममता बनर्जी ने कहा कि उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस (TMC) को इस मुद्दे पर विचार-विमर्श के लिए अधिक समय चाहिए. कांग्रेस नेता राहुल गांधी, जिन्होंने सार्वजनिक रूप से इसका समर्थन किया था, उन्होंने इस मामले में मध्यस्ता की और दूसरे दलों से TMC को इस मुद्दे पर समय देने को कहा.
द टेलीग्राफ के अनुसार, जाति जनगणना के खिलाफ ममता बनर्जी के कट्टरपंथी दृष्टिकोण को कई नेताओं ने अच्छा नहीं माना. उन्हें लगा कि ममता का ये स्टैंड 'इंडिया' की राजनीति के साथ मैच नहीं कर है. हालांकि, यहां एक विरोधाभास है.
पिछली कांग्रेस और वामपंथी सरकारों में जाति ने चुनाव में कभी निर्णायक भूमिका नहीं निभाई थी. लेकिन इसके विपरीत सीएम के रूप में ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में जाति की भूमिका को बढ़ाने में एक अहम भूमिका निभाई है.
ऐसे में सवाल है कि प्रस्तावित जाति जनगणना के प्रति उनके विरोध का क्या कारण है, जिससे राज्य को कल्याणकारी योजनाओं को बेहतर ढंग से चलाने और वास्तविक लाभार्थियों तक पहुंचने में मदद मिल सकता है? इसका जवाब ऐतिहासिक संदर्भ में छुपा है, जिससे राज्य में जाति को अप्रासंगिक बना दिया गया.
पश्चिम बंगाल में जातियां
भारत के पूर्व रजिस्ट्रार जनरल अशोक मित्रा ने आजादी के बाद कई महत्वपूर्ण जनगणना में अपनी भूमिका निभाई है. उन्होंने एक बार लिखा था...
"उस राज्य में कुछ असामान्य बात होगी, जिसने अभी तक एक भी जगजीवन राम, कामराज, बूटा सिंह और रफी अहमद किदवई जैसे नेता नहीं पैदा किए, जो महत्वपूर्ण पद संभाल सकें. जबकि वह राज्य कथित तौर पर इतना धर्मनिरपेक्ष और संप्रदाय-विरोधी है."
लेकिन ऐसा नहीं है कि पश्चिम बंगाल के राजनीतिक बैकग्राउंड में ऐसी शख्सियतें हमेशा से नदारद थीं. पूर्वी भारत में दलित आंदोलन के नेता जोगेंद्रनाथ मंडल उसी स्थान से उभरे और भारत और पाकिस्तान के इतिहास में एक महत्वपूर्ण नाम बन गए. हालांकि, विभाजन के तुरंत बाद, इस क्षेत्र में जाति की चेतना में गिरावट के पीछे कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों की अपनाई गई पॉलिसी है.
और यही एक कारण है कि उस समय दलित शरणार्थियों का कम्युनिस्ट पार्टियों की ओर से पेश की जाने वाली वर्ग-आधारित राजनीति की ओर तेजी से झुकाव हुआ.
इसलिए, भले ही जाति भेदभाव खत्म नहीं हुआ और उच्च जाति पश्चिम बंगाल के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य पर हावी रही, लेकिन इस वर्ग की राजनीति ने अन्य चिंताओं को अपने में समाहित कर लिया.
अकादमिक द्वैपायन सेन का तर्क है, "ये स्पष्ट है कि गणतंत्र के पहले दिनों से ही, पश्चिम बंगाल के जातिगत कुलीन (Elites) वर्ग ने किसी वर्ग के लिए खास प्रावधान को लेकर नाराजगी जाहिर की है.
उनकी बात में दम है क्योंकि पश्चिम बंगाल के इतिहास में अधिकांश मुख्यमंत्रियों ने अपने समय में जाति को लेकर प्रगतिशील नीतियों का विरोध किया था. इसलिए राज्य के पहले सीएम प्रफुल्ल चंद्र घोष ने 1948 में पश्चिम बंगाल विधानसभा के सदस्यों के बीच संविधान के मसौदे पर बहस करते हुए घोषणा की, "यह आरक्षण जितनी जल्दी हटे, उतना बेहतर होगा."
उन्होंने आगे कहा कि "अब हम सभी स्वतंत्र हैं और कोई आरक्षण नहीं होना चाहिए."
विधानसभा में सत्तारूढ़ कांग्रेस के कई अन्य लोगों ने भी उनके साथ सुर में सुर मिलाया और मांग की कि अनुसूचित जातियों को मिलने वाला आरक्षण खत्म किया जाना चाहिए. 1979 में, जब सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों का अध्ययन करने के लिए मंडल आयोग का गठन किया गया था, तो सीपीएम के ज्योति बसु के नेतृत्व वाली तत्कालीन पश्चिम बंगाल सरकार से इसे सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली. सरकार ने तब कहा था, वहां दो जातियां हैं और वे अमीर और गरीब हैं.
जाति जनगणना और ममता बनर्जी के लिए अवसर
हाल ही में मोदी सरकार और अन्य पार्टियों से पटना हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिलने के बावजूद बिहार सरकार ने जाति सर्वेक्षण कराने का फैसला लिया. इसने विपक्षी दलों को सामाजिक न्याय की राजनीति को लेकर एकजुट होने का एक अच्छा अवसर दिया है.
आखिरी बार अखिल भारतीय जाति जनगणना 1931 में की गई थी और कई बहुजन नेताओं और अदालत के फैसले के पक्ष में अपनी राय व्यक्त करने के बावजूद स्वतंत्र भारत में इसे रोक दिया गया था.
ठीक उसी तरह जैसे बिहार सरकार ने स्वीकारा कि उनके पास ओबीसी का सही डाटा नहीं है, पश्चिम बंगाल सरकार को भी राज्य में इसी तरह की कवायद का आदेश देना चाहिए क्योंकि बीजेपी लगातार ममता बनर्जी को उनकी ओबीसी राजनीति पर निशाना बना रही है.
हाल ही में, बीजेपी ने राज्य में मुसलमानों को ओबीसी आरक्षण देने के लिए डाटा में हेरफेर करने का आरोप ममता बनर्जी सरकार पर लगाकर एक बार फिर मुस्लिम तुष्टिकरण का मुद्दा उठाया है. बीजेपी के राज्य पार्टी अध्यक्ष सुकांत मजूमदार सहित कई बीजेपी नेताओं ने यह मुद्दा उठाया है कि बंगाल में 91.5 प्रतिशत मुसलमानों को आरक्षण दिया गया है और हिंदू ओबीसी समुदायों के साथ भेदभाव किया जा रहा है.
अगर हम पश्चिम बंगाल से आ रही रिपोर्टों पर नजर डालें तो पता चलता है कि कई यूनिवर्सिटी आज भी ओबीसी मुसलमानों के लिए बनी आरक्षण नीतियों को लागू करने में विफल रहे हैं.
ओबीसी कितने हैं, ये पश्चिम बंगाल सरकार को परेशान कर सकती है क्योंकि विभिन्न पिछड़े वर्ग का कोई वास्तविक डाटा नहीं है. सरकार ने 1993 तक ओबीसी की कोई लिस्ट तैयार नहीं की थी.
एक साल बाद, उन्होंने जल्दबाजी में एक ओबीसी सूची तैयार की, जिसमें 64 जाति समूह थे, जहां उन्होंने उनमें से आठ को मुस्लिम ओबीसी के रूप में वर्गीकृत किया. 1951 में जनगणना अधीक्षक अशोक मित्रा ने आखिरी बार बंगाल की जाति और जनजातियों पर डेटा एकत्र करने के लिए एक राज्यव्यापी जनगणना किया था.
इस डाटा को अपडेट किए बिना, पश्चिम बंगाल की सरकारों ने अक्सर ओबीसी की अपनी सूची तैयार करने के लिए इसे उपयोग में लिया. वर्तमान में, ममता सरकार के नेतृत्व में तैयार की गई ओबीसी सूची को बीजेपी और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) जैसी संवैधानिक संस्था ने चुनौती दी है, जिन्होंने आरोप लगाया है कि राज्य में कुल ओबीसी समुदायों के 179 में से 118 ग्रुप मुस्लिम हैं.
फिर, उन्होंने विशेष रूप से बंगाल सरकार द्वारा इन ओबीसी समुदायों की पहचान करने के प्रोसेस पर भी सवाल उठाए हैं. सरकार कोलकाता के सांस्कृतिक अनुसंधान संस्थान द्वारा तैयार की गई रिपोर्टों पर भरोसा करती है.
ममता बनर्जी को ऐतिहासिक अवसर मिला है कि बिहार के नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के दिखाए रास्ते पर चलकर वे राज्य में जाति जनगणना की मांग कर इन आलोचना का जवाब दे सकती हैं. हालांकि, अन्य राज्यों की तरह, ऐसा हो सकता है कि इस सर्वेक्षण से पता चलेगा कि पश्चिम बंगाल में भी छोटी संख्या में बड़ी जातियों का लाभ के बड़े हिस्से पर कब्जा है.
लेकिन सवाल यह है कि क्या वह पीसी घोष और ज्योति बसु की परंपरा को छोड़कर अपने समय की सामाजिक रूप से प्रगतिशील नीतियों के साथ जुड़ने जा रही हैं?
(आदिल हुसैन मर्टन कॉलेज, DPhil किया है, वे मेर्टन कॉलेज, ऑक्सफोर्ड में इंटरनेशनल डेवलपमेंट के छात्र हैं. उनका ट्विटर हैंडल @adilhossain है. यह एक ओपनियन पीस है और इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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