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प्रतियोगी परीक्षाओं में जाति का दोहरा रोल, रिसर्च में पोल खोल

एक स्टडी बताती है कि किस तरह से सिर्फ उच्च जाति का नाम रहने से ही किसी को नौकरी मिलने की संभावना बढ़ जाती है.

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इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि जाति व्यवस्था (Caste System) भारतीय समाज में इतनी गहराई तक पैठ बना चुकी है कि यह लगभग पूरे समाज की नींव बन गई है. जाति की राजनीतिक भूमिका इतनी अधिक है, यह इस कदर भीतर तक घुसी हुई है कि अक्सर सामाजिक संरचनाओं को बनाए रखने वाले भी इसे ठीक से देख नहीं पाते हैं.

इस आर्टिकल का लक्ष्य प्रतियोगी यानी कंपीटिटिव परीक्षाओं के प्रति समाज के ऐसे ही जातिवादी नजरिए पर रोशनी डालना है. अभी जो UPSC सिविल सेवा परीक्षा के नतीजे आए हैं उसके संदर्भ में भी.

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हाल ही में आए UPSC के नतीजों को ध्यान में रखते हुए, यह आर्टिकल प्रतियोगी परीक्षाओं में जाति की भूमिका के दोहरेपन के बारे में प्रकाश डालता है. अनिवार्य रूप से ऐसी परीक्षाओं में जाति की दोहरी भूमिका है, जिसे दैनिक मीडिया बहुत अधिक अनदेखा करता है. यह एक सामान्य धारणा है कि प्रतियोगी परीक्षाओं में जाति की भूमिका केवल आरक्षण या परीक्षा पूरी करने की प्रक्रिया तक ही सीमित है.

हालांकि, यह वहां समाप्त नहीं होता है. कोई भी प्रतियोगी परीक्षा अपनी जाति की पहचान के आधार पर उपस्थित होने वाले उम्मीदवारों के लिए दूसरी पहचान बनाती है. हम इस आर्टिकल में जाति के इसी दोहरेपन पर प्रकाश डालने की कोशिश करेंगे.

कंपीटिटिव परीक्षाओं में उच्च जाति को अपर हैंड

ऐसा लगता है, भारत में सभी प्रतियोगी परीक्षाएं पूरी तरह से निष्पक्ष और वैल्यू न्यूट्रल हैं लेकिन यह पूरा सच नहीं है.

मैं सबसे पहले इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (EPW) पत्रिका के लिए एस.के.थोराट और पॉल एटवॉल की रिसर्च की मदद से इस प्वाइंट के बारे में बताना चाहूंगा. लेखकों ने भारत में अलग-अलग प्राइवेट सेक्टर एंटरप्राइजेज में नौकरी के लिए आवेदन और संभावनाओं की प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर जारी भेदभाव की तफ्तीश की है. इसमें थोराट और एटवेल ने एक प्रयोग किया जिसमें उन्होंने उच्च जाति के हिंदू, मुस्लिम और दलित आवेदकों के नाम के साथ अखबार में नौकरी के लिए आवेदन वाला विज्ञापन दिए.

लेखकों ने प्रयोग के लिए विभिन्न राष्ट्रीय और क्षेत्रीय अंग्रेजी भाषा के समाचार पत्रों से प्राइवेट सेक्टर में नौकरी के लिए आवेदन दिए. इसके बाद लेखकों ने नाम के अंतर के साथ मिलते-जुलते नौकरी के लिए आवेदन तैयार किए. एक आवेदन एक उच्च जाति के हिंदू परिवार के नाम का था, दूसरा एक मुस्लिम नाम का और तीसरा एक आम दलित सरनेम का था.

रिसर्च का नतीजा इसके लक्ष्य के मुताबिक ही रहा. यह पता चला कि जो आवेदन दलित और मुस्लिम नाम के साथ दिए गए उनको नौकरी मिलने की संभावना उच्च जाति के हिंदू नाम से दिए गए आवेदन की तुलना में काफी कम थी.

इतना ही नहीं यहां तक कि एक उच्च योग्यता वाले दलित आवेदक के पास हाईलेवल जॉब के लिए जरूरी योग्यता होने के बाद भी उच्च-जाति के हिंदू की तुलना में इंटरव्यू के लिए बुलाए जाने की संभावना काफी कम थी. मतलब यह हुआ कि एक योग्य दलित की तुलना में एक अयोग्य हिंदू उम्मीदवार को भी इंटरव्यू के लिए बुलाने का ज्यादा चांस होता है.

भर्ती करने वाले जातीय पूर्वाग्रह से ग्रसित

इस प्रयोग का उद्देश्य प्रतियोगी परीक्षाओं में जातिगत भेदभाव की बात को उजागर करना था. दरअसल जो लोग यह मानते हैं कि प्रतियोगी परीक्षाओं में कोई जातीय भेदभाव नहीं होता है, उस धारणा को यह प्रयोग तोड़ता है. यह प्रयोग लोगों की सामान्य धारणा पर प्रहार करता है कि नौकरी के लिए आवेदन वैल्यू-न्यूट्रल प्रक्रिया होने के कारण भर्ती करने वाले में जातीय पूर्वाग्रह नहीं हो सकता.

ये सब नतीजे साफ करते हैं कि सिर्फ उच्च जाति का नाम धारण करने से एक आवेदक के चयन की संभावना काफी बढ़ सकती है. रिसर्च यह दिखलाता है कि कुछ जातियां, जिन पर खास स्टिग्मा होती है, उनके लिए तो योग्यता का मानदंड और आवेदन के लिए क्वालिफाई करने की क्षमता भी खत्म हो जाती है.

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इसी तरह का एक और उदाहरण CSE 2020 के आंकड़ों से आता है. डेटा से पता चलता है कि टॉप 10 रैंकिंग में आरक्षित उम्मीदवारों में से किसी ने भी साक्षात्कार में 200 से अधिक अंक हासिल नहीं किए, जबकि उच्च जाति के उम्मीदवारों ने भी उसी साक्षात्कार में 210+ अंक प्राप्त किए. अब यदि पाठक इस आंकड़े को संयोग और योग्यता की धारणाओं के साथ टैग करते हैं, तो यहां एक और प्वाइंट है. आरक्षित और अनारक्षित उम्मीदवारों के औसत लिखित परीक्षा के अंक लगभग बराबर ही थे. सिर्फ साक्षात्कार में ही आरक्षित उम्मीदवारों के रैंक को पीछे धकेल दिया, जिसका डेटा आप यहां देख सकते हैं.

हम मैक्स वेबर के समाजशास्त्रीय लेखन में ऐसे पूर्वाग्रहों के कारणों का पता लगा सकते हैं जो इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे विभिन्न सामाजिक समूहों वाले समुदाय विशिष्ट सामाजिक सम्मान का फायदा उठाते हैं.

एक सामाजिक समूह किसी विशेष धर्म, जाति, वर्ग से बनता है. वो इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि एक विशेष सामाजिक समूह वाले समुदाय एक निश्चित जीवन शैली, एकजुटता, स्वाद और सामाजिक गतिविधियों का आनंद लेते हैं, और समाज तब समूह को उसके स्थापित मानदंडों के अनुसार मानता है.

रूढ़िवादी व्यवहार और जाति-स्थापित मानदंडों का पालन करने के ये सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण इस स्थिति में और योगदान करते हैं.

CSE का उदाहरण इस बात पर प्रकाश डालता है कि कैसे जातिवादी योग्यता (जाति-आधारित योग्यता) के विचार ने बहुप्रशंसित और निष्पक्ष परीक्षाओं को भी नहीं छोड़ा है. उपरोक्त सभी उदाहरण प्रतियोगी परीक्षाओं के एक महत्वपूर्ण लेकिन उपेक्षित पहलू, ‘जातीय लड़ाई’ को दर्शाता है. हालांकि, दुखद बात यह है कि कोई भी कड़ी मेहनत इस ‘उप-प्रतियोगिता’ में आवेदक की सफलता की गारंटी नहीं है.

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परीक्षा प्रक्रिया खत्म होते ही जाति की भूमिका खत्म?

विभिन्न पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों के लिए परीक्षाओं को पास करने के लिए कई बाधाएं पैदा करने में जाति की ‘अनदेखी भूमिका’ को बताने के बाद, अब मैं जाति की कभी न खत्म होने वाले रोल पर प्रकाश डालूंगा. ऊपर जो सवाल मैंने उठाए हैं कि क्या परीक्षा प्रक्रिया पूरा होते ही जाति की भूमिका खत्म हो जाती है? तो इसका जवाब है ‘बिग नो’. अब आर्टिकल के इस हिस्से में मैं यह विस्तार से बताऊंगा कि ऐसा जवाब देने के पीछे का कारण क्या है.

अपनी पुस्तक अमेरिकन डिलेमा में, गुन्नार मायर्डल ने "थ्योरी ऑफ कुमुलेटिव कॉजेशन" पर चर्चा की है. यह सिद्धांत आत्म-सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया पर केंद्रित है जिसमें एक विशेष दिशा में एक आवेग एक डायनेमो प्रभाव को ट्रिगर करता है और बार-बार एक ही दिशा में यह सब होता रहता है और इसका नतीजा ‘अंतहीन परिवर्तन’ के एक दुष्चक्र के तौर पर आता है.

यह सिद्धांत यहां जाति के कामकाज पर प्रकाश डालता है, जिसमें प्राथमिक शिक्षा के स्तर से भेदभाव किए गए व्यक्ति के साथ उच्च और माध्यमिक शिक्षा में और उससे भी आगे नौकरी की संभावनाएं तलाशने में उसी तरह का व्यवहार किया जाता है.

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यह चक्र निचली जाति के उम्मीदवारों के लिए अपनी पहचान की बाधाओं को पार करने के लिए चीजों को बदतर और अंतहीन बना देता है.

प्रतिष्ठित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IIT) के डेटा से पता चलता है कि 2011 तक IIT में लगभग 80% आत्महत्याएं दलित छात्रों ने संस्थानों में उनके साथ हुए भेदभाव की वजह से कर ली.

इसके अलावा, हार्वर्ड स्थित एंथ्रोपॉलिजिस्ट अजंता सुब्रमण्यन के साथ कुछ पूर्व IIT छात्रों ने इंटरव्यू में माना था कि पार्टी और मौजमस्ती करने वाले अनारक्षित छात्रों को अच्छे अंक मिलते हैं, इसके विपरीत, आरक्षित छात्र अनुत्तीर्ण हो गए क्योंकि ऐसा माना गया कि उनमें परीक्षा पास करने लिए बुद्धि की कमी थी.

यह पक्षपाती मानसिकता, जातिवादी योग्यता और जनता के पूर्वाग्रहों के खोखले विचार के साथ मिलकर, सफल उम्मीदवारों और परीक्षाओं को पास करने के उनके प्रयासों को हाशिए पर डालने जैसा है.

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संविधान और समानता का त्रिकोण

एक और हालिया उदाहरण इस बात को आगे बढ़ा सकता है. वो है अभी आए UPSC CSE के नतीजे. हालांकि इसमें शीर्ष चार रैंकों पर महिलाओं ने कब्जा किया और जो काबिलेतारीफ है. लेकिन समाज की जातिवादी धारणाएं सिक्के का दूसरा पहलू दिखाती हैं. CSE 2022 परीक्षा की टॉपर इशिता किशोर थीं, और अब उन्होंने शीर्ष रैंक अर्जित की है; लोगों के बीच उसकी जाति को लेकर बहस चल रही है.

विभिन्न जातियों के तथाकथित प्रतिनिधि अब अपनी जाति के साथ टॉपर की पहचान को जोड़ रहे हैं, दूसरों पर अपनी जाति का बौद्धिक वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं. इस बहस से पता चलता है कि कैसे भारतीय समाज अपनी पहचान का वर्चस्व दिखाने की कोशिश में कोई कसर नहीं छोड़ता.

जातीय चेन की इस अनवरत प्रकृति को तोड़ने में कानून बहुत कम मदद करता है. यद्यपि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, और 16 सभी को कानून के सामने बराबरी का हक देता है और किसी भी व्यक्ति के साथ पहचान के आधार पर भेदभाव पर प्रहार करता है, लेकिन यह केवल सतही तौर पर काम करता है.

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न्याय के तलवार से जाति की बहुत गहरी जड़ें जमा चुकी बुराइयों को पूरी तरह से ठीक नहीं किया जा सकता है. जातिवादी मानसिकता की बाधाओं को दूर करने के लिए समाज में सभी की ओर से निरंतर प्रयास करने की आवश्यकता है, और इस मोर्चे पर पहला प्रयास ऐसी बाधाओं की सीमा को पहचानना है.

यह लेख ऐसे ही एक महत्वपूर्ण बैरियर यानि रुकावट को उजागर करने का एक प्रयास था.

(शिखर चौहान नलसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ, हैदराबाद में द्वितीय वर्ष के छात्र हैं. ये एक ओपिनियन पीस है. ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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