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CEC & ECs Bill: चुनाव आयोग की स्वतंत्रता कोई गणित का जोड़ घटाना नहीं है

सुप्रीम कोर्ट ने कभी भी यह साफ-साफ नहीं कहा कि वह क्यों मानता है कि CJI को चयन प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए.

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क्या भारत के चीफ जस्टिस (CJI) को मुख्य चुनाव आयुक्त (Chief Election Commissioner) और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में दखल देना चाहिए?

अनूप बर्नवाल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट का ऐसा ही मानना था. मगर ऐसा लगता है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और कार्यालय की अवधि) विधेयक, 2023 (EC Bill) में केंद्र सरकार कुछ और सोच रही है.

मुझे लगता है कि EC Bill में सही नजरिया अपनाया गया है.

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यह कानून क्या हासिल करना चाहता है?

EC Bill में CEC और EC की नियुक्ति की प्रक्रिया को व्यवस्थित और संहिताबद्ध करने की कोशिश की गई है. इसके तहत कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता वाली एक सर्च कमेटी चुनाव की व्यवस्था और संचालन में ईमानदारी, जानकारी और तजुर्बा रखने वाले पांच लोगों की लिस्ट तैयार करेगी.

हालांकि, इसके लिए योग्य लोगों को सिर्फ उन लोगों में से चुना जाना है, जो भारत सरकार में सचिव के पद के बराबर पद पर हैं. फिर यह नाम एक सलेक्शन कमेटी को भेजा जाएगा जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और प्रधानमंत्री द्वारा नामित एक कैबिनेट मंत्री शामिल होंगे. नियुक्ति का अंतिम फैसला सलेक्शन कमेटी के सुझाव पर राष्ट्रपति करेंगे.

फिलहाल अभी तक, ऐसा कोई कानून नहीं है जो CEC और EC की नियुक्ति की प्रक्रिया बताता हो. संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत, जब तक कोई कानून नहीं बन जाता, तब तक यह राष्ट्रपति का विशेषाधिकार है कि वह केंद्रीय मंत्रिमंडल, यानी कि केंद्र सरकार की सहायता और सलाह पर काम करते हुए नियुक्ति करेंगे.

हालांकि, संविधान CEC या EC की नियुक्ति के लिए कोई खास तरीका नहीं बताता है और कहता है कि इस मुद्दे पर आने वाले समय में एक कानून बनाया जाना है, लेकिन यह नहीं बताया गया है कि वह कानून कैसा होना चाहिए.

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ऐसे में EC बिल नियुक्ति की प्रक्रिया का कानून बनाने की कोशिश है. EC बिल के तहत चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की प्रक्रिया में, जो भी होता है या करने का प्रस्ताव है, सीधे-सीधे किसी भी तरह संविधान में लिखी बातों का उल्लंघन नहीं करता है.

EC बिल (जहां तक नियुक्ति प्रक्रिया का सवाल है) के खिलाफ जो एतराज किया जा रहा है, वह यह है कि चयन समिति में भारत के मुख्य न्यायाधीश को शामिल न करके यह बिल एक तरह से अनूप बर्नवाल और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन है और कहीं न कहीं स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के संचालन को नुकसान पहुंचाने वाला है.

अनूप बर्नवाल केस— एक विरोधाभासी और समझ में न आने वाला फैसला है

अनूप बर्नवाल केस के फैसले का समग्र निर्देश साफ है- जब तक कोई कानून नहीं बन जाता तब तक CEC और EC की नियुक्ति की सिफारिश प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा की जानी चाहिए- यह पूरी तरह से अस्पष्ट है कि ऐसा कहने का आधार क्या है.

अदालत किसी भी बिंदु पर ऐसा नहीं कहती है कि केंद्र सरकार द्वारा CEC और EC की नियुक्ति करना असंवैधानिक है (ऐसा इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि यह संविधान में लिखी बातों के खिलाफ होगा) और न ही यह खुलकर कहता है कि कुछ हालात बदल गए हैं, और मौजूदा प्रक्रिया असंवैधानिक होगी.

ज्यादा से ज्यादा कोई यह कह सकता है कि अदालत को लगता है कि प्रस्तावित प्रक्रिया मर्जी पर निर्भर है- लेकिन वह कभी भी पूरी तरह से साफ नहीं किया है कि वह क्यों मानती है कि CJI को प्रक्रिया का हिस्सा होना चाहिए.

अदालत पूर्व की कुछ रिपोर्टों का जिक्र करती है- जैसे कि 1990 की गोस्वामी रिपोर्ट और 2015 की विधि आयोग की रिपोर्ट, जिसमें नियुक्ति की प्रक्रिया में CJI को शामिल करने की सिफारिश की गई थी.

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मगर संविधान के प्रावधानों के लागू किए जाने की समीक्षा के लिए बनाए गए राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट में EC के लिए प्रस्तावित नियुक्ति समिति में CJI का कोई जिक्र नहीं है. लगभग सभी रिपोर्टें सुझाव देती हैं कि विपक्ष किसी न किसी तरह से इस प्रक्रिया में शामिल होना चाहिए.

यह भी साफ नहीं है कि CEC और EC को चुनने में CJI को क्यों शामिल किया जाना चाहिए. चुनाव आयोग का काम मुख्य रूप से संघ और राज्यों में होने वाले चुनावों का प्रबंधन और संचालन करना है जिसमें जरूरी नहीं कि उस तरह के कौशल की जरूरत पड़ती हो जो एक जज के ही पास हो सकता है.

CJI भले ही CBI जैसे कुछ संस्थानों के प्रमुखों की नियुक्ति में शामिल होते हैं, लेकिन केंद्रीय सतर्कता आयोग या सूचना का अधिकार आयोग जैसे इतने ही महत्वपूर्ण संस्थानों के प्रमुखों की नियुक्ति में CJI की कोई भूमिका नहीं है.

इसलिए CJI की भागीदारी को संवैधानिक मानदंडों, परंपराओं या वास्तविक चिंताओं पर भी सही नहीं ठहराया जा सकता है.

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किसी संस्थान की आजादी अंकों का जोड़-घटाना नहीं है

इस सोच ने कि नियुक्ति प्रक्रिया का संस्थान की आजादी पर बहुत ज्यादा असर पड़ता है, भारत में चर्चा को भटका दिया है. यह ख्याल हायर ज्यूडिशियरी में जजों की नियुक्ति की चर्चा पर हावी हो गया है, जहां हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में स्वतंत्र जजों की नियुक्ति सुनिश्चित करने की कॉलेजियम सिस्टम की कामयाबी गहराई से सवालों के घेरे में है.

आदर्श स्थिति तो यह है किसी संस्था की आजादी को संस्था के काम और असर से परखा जाना चाहिए- यह नियुक्ति प्रक्रिया से अपने आप मिल जाने वाला फल नहीं है.

हर चुनाव आयुक्त के व्यक्तिगत गुणों के बारे में कोई कुछ भी कहे, लेकिन निर्विवाद तथ्य यह है कि आजादी के बाद से भारत में चुनाव सिर्फ दक्षिण एशिया ही नहीं, बल्कि दुनिया के मानकों के हिसाब से स्वतंत्र और निष्पक्ष रहे हैं.

राज्य और संघ स्तर पर सत्तारूढ़ सरकारों को बार-बार हार का सामना करना पड़ा है और हालांकि सुधार के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है, लेकिन इस प्रक्रिया में आम नागरिक का भरोसा दशकों से बढ़ते मतदान और चुनावों की प्रतिस्पर्धी प्रकृति में देखा जा सकता है.

यह सब एक प्रेरणा के तौर पर काम करना चाहिए कि किसी संस्था की आजादी सिर्फ उसके प्रमुख की नियुक्ति में अपनाई प्रक्रिया का गणितीय नतीजा नहीं है. यह कई कारकों का एक बहुत जटिल समूह है, और नियुक्ति प्रक्रियाओं के मामले में सार्वजनिक जीवन में इस जुनून से छुटकारा पाना बुद्धिमानी होगी.

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(आलोक प्रसन्ना कुमार बेंगलुरु में विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में सीनियर रेजिडेंट फेलो हैं. वह कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म की कार्यकारी समिति के सदस्य भी हैं. यह लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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