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भारतीय टेस्ट टीम को एक अलग कोच, नई सोच और खिलाड़ियों की जरूरत है

भारतीय क्रिकेट हमेशा एक कदम आगे बढ़ता है और फिर कई कदम पीछे चला जाता है.

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ये वह साल था, जो विराट कोहली की कप्तानी और भारतीय क्रिकेट को एक परिभाषा देता था. एक मायने बयां करता था. लेकिन इंग्लैंड के साथ सीरीज में अब तक जो कुछ हुआ है वो इससे बहुत कुछ और लेकर आया है. भारतीय क्रिकेट हमेशा एक कदम आगे बढ़ता है और फिर कई कदम पीछे चला जाता है.

हम साउथ अफ्रीका और इंग्लैंड दोनों ही जगहों पर टेस्ट सीरीज खो चुके हैं. ये सब-कुछ खराब योजना, खामियों को लेकर गहराइयों में न जाने और थिंक टैंक की जिद्दी सोच की वजह से हुआ है.

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कई सारी परेशानियां

हमारी टीम का प्लेइंग इलेवन अक्सर कुछ खिलाड़ियों की निजी पसंद, नापसंद से तय हो रहा है. ऐसा तब हो रहा है, जबकि हम लगातार विफल रहे हैं. ऐसा लगता है कि एक जीत टीम और उसके थिंक टैंक को आत्मविश्वास की भावना से भर देती है. कई मायनों में हम 1990 की उस इंग्लिश टीम की तरह नजर आते हैं, जो घर से बाहर इक्का-दुक्का मैच तो जीत लेती थी, लेकिन लगातार सीरीज जीतने के लिए कभी भी नॉकआउट पंच नहीं लगाती थी.

ये लगातार तीसरी बार है, जब हमने इंग्लैंड में टेस्ट सीरीज गंवा दी है. 2011 में भयावह व्हाइटवॉश के बाद 2014 में हमने निराशाजनक तरीके से सरेंडर कर दिया और अब 2018 में भी हाल अलग नहीं है.

ये सबकुछ दिखाता है कि हमने पिछले दौरों से कोई सबक नहीं लिया. और ऐसा क्यों हुआ? जाहिर है योजनाओं की कमी है, हालात को समझने का माद्दा नहीं है और कुछ खिलाड़ियों में जरूरी विकास नहीं हुआ है.

चार साल पहले ये मोईन अली ही थे, जिन्होंने भारत के चारों तरफ जाल बुन दिया था. जबकि इसके पहले और बाद वही मोईन गेंद से ज्यादा कुछ नहीं कर सके थे. अब 2018 में उन्हें एक बार फिर खासतौर से उनकी बल्लेबाजी के लिए लाया गया और उन्होंने टीम इंडिया के बल्लेबाजों के खिलाफ वही जादू दिखला दिया. इससे जो एक बात पूरी तरह से साफ है वो ये कि मौजूदा पीढ़ी के जो बल्लेबाज पिछले दौरे में भी टीम के साथ थे, उन्होंने उस दौरे से कोई सबक नहीं सीखा.

धवन का खेल खत्म

ऐसे में ये जरूरी हो जाता है कि कुछ क्रिकेटरों को अलविदा कह दिया जाए. खासतौर से जब टेस्ट क्रिकेट में उनके करियर की बात हो.

और इस लिस्ट में सबसे ऊपर नाम आता है शिखर धवन का. धवन इस मायने में बड़े ही खुशकिस्मत हैं कि उन्हें दौरे के लिए बतौर ओपनर पहले नंबर पर चुना गया. घर से बाहर धवन के नाम कई विफलताएं हैं, लेकिन वो हर बार सफेद गेंद के खिलाफ अपने प्रदर्शन को कैश कर टेस्ट इलेवन में जगह बना जाते हैं.

2013 में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ डेब्यू करते हुए लगाए गए शतक के बाद धवन का टेस्ट करियर कभी भी ऊंचाइयों पर नहीं पहुंच सका. इंग्लैंड के इस दौरे पर भी धवन ने अपनी 6 पारियों में सिर्फ 158 रन ही बना सके. क्रिकेट के करियर में पांच साल का वक्त बहुत लंबा होता है. और अब हमें धवन से आगे बढ़कर किसी युवा खिलाड़ी की ओर देखना होगा. विकल्पों की बात करें, तो इसमें पृथ्वी शॉ का नाम भी आता है. मुरली विजय की तरह ही, जिन्हें टीम के भले के लिए बाहर बिठा दिया गया, अब वक्त आ गया है कि ऐसा ही धवन के साथ भी किया जाए और उन्हें लाल गेंद की क्रिकेट से दूर रखा जाए.

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ऑलराउंडर्स का सूखा

ठीक इसी तरह ये उचित नहीं है कि हम तेज गेंदबाजी करने वाले ऑलराउंडर के विकल्प को सिर्फ हार्दिक पांड्या तक सीमित रखें. पांड्या अभी भी टेस्ट मैचों के लिहाज से तैयार होने की प्रक्रिया में हैं और जरूरी है कि हम दूसरे विकल्पों को भी ढूंढें. पांड्या के सामने ये चुनौती होनी चाहिए कि उन्हें टीम में जगह बनाने के लिए किसी से मुकाबला करना है.

इस मायने में इंग्लैंड खुशकिस्मत है कि उनके पास जोस बटलर, बेन स्टोक्स, सैम कुरेन और क्रिस वोक्स की शक्ल में ऑलराउंडर्स की लंबी फेहरिस्त है. ये सभी ऐसे खिलाड़ी हैं जो मैदान में पूरी दक्षता के साथ एक से ज्यादा काम करने में सक्षम हैं. इस मामले में भारत दुर्भाग्यशाली है कि उसके पास सिर्फ एक विकल्प है, जबकि इंग्लैंड के पास लगभग चार. और यही दोनों टीमों के बीच बड़ा फर्क रहा है.

पांड्या और रविचंद्रन अश्विन दोनों ही गेंद और बल्ले किसी से भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं और हमने बड़ी आसानी से सीरीज गंवा दी है. खासतौर से एजबेस्टन का उदाहरण सामने है, जहां पंड्या के पास सुनहरा मौका था कि वो पुछल्ले बल्लेबाजों को साथ लेकर देश के लिए कुछ कर जाते. लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके.

लिहाजा वक्त आ चुका है कि हम दूसरे चेहरों की ओर देखें, पांड्या पर दबाव बनाएं. वैसे भी ऐसा कोई नियम नहीं है कि अंतिम एकादश में सिर्फ एक सीम ऑलराउंडर हो.

कुछ छूट रहा है

जो एक शख्स सीम ऑलराउंडर की भूमिका में विकल्प बन सकता है वो हैं भुवनेश्वर कुमार. सच तो ये है कि भुवनेश्वर गेंद और बल्ले दोनों से पांड्या के मुकाबले बेहतर रहे हैं.

कुमार एक ऐसे उपयोगी बल्लेबाज हैं, जो निचले क्रम में रविंद्र जडेजा के साथ मिलकर बल्ले से टीम के लिए बड़े काम के हो सकते हैं. लेकिन दुर्भाग्य से भुवनेश्वर पर काम का दबाव बढ़ाकर हम उन्हें ठीक से मैनेज नहीं कर पाए जबकि विडंबना ये है कि सीरीज खत्म होने को है और जडेजा का रोल अब तक खेल के दौरान कुछ खिलाड़ियों को ब्रेक देने का रहा है.

मुश्किलों को स्वीकारें

टेस्ट के बाद कप्तान विराट कोहली को सुनकर ऐसा लगा कि वे ग्लास आधा भरे होने का नजरिया रखते हैं न कि ग्लास के आधा खाली होने के. इसका साफ मतलब है कि वे समस्या को मानने के लिए तैयार नहीं हैं. जबकि हमें छोटी अवधि के बैंड एड वाले समाधान के साथ लंबी अवधि की दृष्टि के साथ सोचने की जरूरत है. लेकिन इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है. क्या हम बाहर की पिचों पर फिसड्डी कहला कर खुश हैं?

हम इस बात को छिपा नहीं सकते कि बहुत-सी टीमें घर के बाहर परेशानियों का सामना कर रही हैं. हालांकि यह एक हारने वाला रवैया दर्शाता है और इसका कोई लाभ नहीं है.

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शास्त्री के लिए टेस्ट के काम से इस्तीफे का वक्त

इस गुत्थी को सुलझाने के लिए एक दीर्घकालीन योजना की जरूरत है. इसके लिए एक ऐसे कोच की जरूरत है, जो सफेद गेंद वाले क्रिकेट से दूर हो और जिसका एकमात्र उद्देश्य हो क्रिकेट के लंबे फॉरमेट में विदेश में अच्छा करने के लिए योजना बनाना. लेकिन यह काम रवि शास्त्री नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि वे रणनीतियां बनाने में सक्षम नहीं हैं. आपको एक ऐसे मशीनी इंसान की जरूरत है, जो कारगर और आखिरी रणनीति बना सके. कुछ वैसे ही जैसे जॉन राइट ने अपनी कोचिंग के दौरान घरेलु क्रिकेट में मौजूद टैलेंट पर नजर रखकर किया था. इसके लिए जॉन राइट अपना काफी समय लगाते थे. तब के कप्तान सौरव गांगुली और उप कप्तान राहुल द्रविड़ की आक्रामकता के पीछे राइट का ही हाथ था.

2000 के दशक की सफलता को दोहराने के लिए भारत को उसी तरह के संतुलन की जरूरत है, जैसा कि उस वक्त की टीम में था.

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इसलिए भारत को टेस्ट क्रिकेट के लिए एक ऐसे कोच की जरूरत है, जिसे भले ही बार-बार सुना और देखा न जाता हो, लेकिन वह पर्दे के पीछे अपना काम बखूबी तरीके से करता हो. न्यूजीलैंड के हाल के कोच माइक हेसन इस काम के लिए बिल्कुल सही दिखाई देते हैं.

न्यूजीलैंड में कम टैलेंट होते हुए भी हेसन ने काफी कुछ काम किया. सोचिए वो क्या कुछ कर जाएंगे अगर भारत जैसे टैलेंट की खान के साथ काम करेंगे. लेकिन इस तरह की सोच केवल एक नजरिये से ही आती है.

लंबी अवधि की सोच

हमें खुद से ये सवाल करने की जरूरत है कि क्या हमारे अंदर सचमुच में जीत की भूख है और हम दुनिया के हर कंडीशन में अपनी बेहतर टेस्ट टीम बनाना चाहते हैं? भारतीय क्रिकेट को 86 साल से चली आ रही विरासत से निकलने की जरूरत है और जाहिर है इसमें काफी कड़ी मेहनत करनी होगी. सवाल है कि क्या कोई इस कड़ी मेहनत के लिए तैयार है?

याद रखिए कि हम 1.25 अरब भारतीय हो सकते हैं, लेकिन क्रिकेट खेलने वाले देशों की कुल 50 करोड़ आबादी हमें हर बार विफल होते हुए देखकर खुश होती है. खासतौर से टेस्ट क्रिकेट में. हम तमाम चुटकुलों का हिस्सा बनकर खुश हो सकते हैं या अपने इस चलताउ प्रदर्शन को हमेशा के लिए कहीं डूबोकर खुश जुटा सकते हैं.

(चंद्रेश नारायण पूर्व क्रिकेट राइटर हैं जो टाइम्स ऑफ इंडिया और द इंडियन एक्सप्रेस के साथ काम कर चुके हैं. इसके अलावा वो आईसीसी के एक्स मीडिया ऑफिसर भी रह चुके हैं. फिलहाल वो दिल्ली डेयरडेविल के मीडिया मैनेजर हैं. चंद्रेस वर्ल्ड कप हीरोज के लेखक, क्रिकेट एडिटोरियल कंसल्टेंट, प्रोफेसर और क्रिकेट टीवी कमेंटेटर भी रह चुके हैं.)

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