सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने सिटीजन फॉर ग्रीन दून बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में चार धाम सड़क प्रोजेक्ट (Char Dham Project) के निर्माण के लिए एक विस्तारित विन्यास के साथ अनुमति देने का फैसला किया है. ये फैसला उन लोगों के लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है जो भारत में बड़ी परियोजनाओं से संबंधित अदालती फैसलों को फॉलो कर रहे हैं.
ये फैसला पूर्व में बड़ी परियोजनाओं को दी गई पर्यावरण और वन मंजूरी के लिए चुनौतियों से संबंधित मामलों में अदालतों और न्यायाधिकरणों (सुप्रीम कोर्ट SC, हाई कोर्ट HC और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल NGT) द्वारा अपनाए दृष्टिकोण का ही पालन करता है.
रक्षा मंत्रालय ने दाखिल की है अर्जी
वर्तमान में जिस मामले की बात की जा रही है वो परियोजना (project) 'चार धाम महामार्ग विकास परियोजना' (‘Char Dham Mahamarg Vikas Pariyojna’) है. जैसा कि फैसले में बताया गया है कि सुरक्षित, सुगम और तेज यातायात सुनिश्चित करने के उद्देश्य से इस प्रोजेक्ट के तहत 900 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय राजमार्ग (नेशनल हाइवे) का चौड़ीकरण किया जाएगा. ये सड़कें उत्तराखंड में "छोटे चार धाम" पवित्र मंदिरों - यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ (NH-58) को कैलाश मानसरोवर यात्रा मार्ग के टनकपुर-पिथौरागढ़ खंड से जोड़ती हैं. 16 बाईपास, रीअलाइग्मेंट और सुरंगों, 15 फ्लाईओवर, 101 छोटे पुलों और 3,516 पुलियों के साथ इस परियोजना का उद्देश्य मौजूदा राजमार्गों (हाइवे) को पक्के आधार के साथ एक डबल-लेन हाइवे के तौर पर चौड़ा करना है.
अदालत के द्वारा सुनाया गया यह फैसला इस परियोजना की वैधता के बारे में तो था ही नहीं क्योंकि कोर्ट ने पहले ही प्रोजेक्ट की मंजूरी को बरकरार रखा था. अदालत ने रक्षा मंत्रालय (MoD) के 8 सितंबर, 2020 के पिछले आदेश में संशोधन के अनुरोध पर सुनवाई की, जिसमें हाइवे की चौड़ाई को सीमित कर दिया गया था.
केंद्र सरकार के अनुसार परिस्थितियों में हुए बदलावों को देखते हुए सड़कों में सुधार की आवश्यकता है, जिससे कि भारत-चीन सीमा पर मौजूद सैन्य स्टेशनों तक सैनिकों और संबंधित उपकरणों की आवाजाही आसानी से हो सके.
जिसके परिणामस्वरूप आवेदन के जरिए आग्रह किया है कि सेना की आवश्यकता को पूरा करने के लिए 7 मीटर (या 7.5 मीटर) की कैरिजवे चौड़ाई वाली एक डबल-लेन सड़क आवश्यक है, क्योंकि 2020 के फैसले ने इसे अधिकतम 7 मीटर तक सीमित कर दिया था. (2018 में सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के अनुसार).
निष्कर्ष संक्षिप्त और स्पष्ट है, इस तथ्य के बावजूद कि निर्णय काफी विस्तृत है:
"न्यायिक समीक्षा करने के दौरान कोर्ट सशस्त्र बलों की बुनियादी ढांचे की मांगों का दूसरा अनुमान नहीं लगा सकती है... अपीलकर्ताओं के तर्क के लिए न्यायालय को प्रतिष्ठान के नीति विकल्पों की जांच करने की आवश्यकता है, जो कानून द्वारा देश की रक्षा के लिए सौंपे जाते हैं. लेकिन इसकी अनुमति नहीं है."
हालांकि ये सच है कि अदालत अपनी न्यायिक समीक्षा शक्ति का प्रयोग करते समय केवल 'निर्णय लेने की प्रक्रिया' पर ध्यान केंद्रित कर सकती है, न कि 'निर्णय' पर, निर्णय की वैधता अभी भी अदालत के अधिकार क्षेत्र में है. मनमानी, निष्पक्षता और न्याय के लिए एक कार्यकारी निर्णय की अभी भी जांच की जानी चाहिए. निर्णय का विश्लेषण करते समय, दो मुद्दों पर विचार किया जाना चाहिए.
EIA से बचने के लिए परियोजनाओं का विभाजन
भारत के पर्यावरण कानून (पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006) के अनुसार "100 किलोमीटर या उससे अधिक की लंबाई वाली सभी राजमार्ग परियोजनाओं के साथ-साथ 20,000 वर्ग मीटर से बड़ी निर्माण परियोजनाओं को पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (EIA) से गुजरना पड़ता है." इसमें वनस्पतियों और जीवों के साथ-साथ परियोजना के प्रत्याशित प्रभाव का आकलन होता है, इसके बाद सार्वजनिक टिप्पणी होती है और अंत में इस मुद्दे पर सरकार का यह फैसला शामिल होता है कि परियोजना को अनुमति देनी चाहिए या नहीं.
इस परियोजना में 900 किमी सड़क का विस्तार शामिल है. लेकिन इसे पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (EIA) से नहीं गुजरना पड़ा, क्योंकि इस विस्तार परियोजना को पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (EIA) से बचाने के लिए 100 किलोमीटर से कम के भागों में विभाजित किया गया था.
भले ही एक पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (EIA) सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त हाई पावर कमेटी के आदेश के तहत किया गया हो, लेकिन इसे EIA नहीं कहा जा सकता, क्योंकि किसी परियोजना को मंजूरी देने के निर्णय के बाद किया गया मूल्यांकन EIA नहीं है. एहतियाती सिद्धांत के हिस्से के रूप में EIA आवश्यक है और इसे परियोजना की शुरुआत से पहले पूरा किया जाना चाहिए.
इस संबंध में देखें तो चार धाम प्रोजेक्ट के संदर्भ में दिया गया ये फैसला दीपक कुमार बनाम भारत संघ में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक और मिसाल कायम करने वाले फैसले को कमजोर करता है, जिसमें कहा गया था कि खनन कंपनियां EIA से बचने के लिए परियोजनाओं को विभाजित नहीं कर सकती हैं.
न्यायपालिका का 'बचने या दूर रहने वाला' दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट ने चार धाम में स्पष्ट रूप से कहा कि वो सेना के बुनियादी ढांचे की जरूरतों का 'दूसरा अनुमान' नहीं लगा सकता है. चूंकि अदालतों में सुरक्षा मांगों का आकलन करने की क्षमता का अभाव है, इसलिए इस विषय पर दो दृष्टिकोण हो सकते हैं.
हालांकि, इसे पर्यावरण कानून अनुपालन और न्यायिक समीक्षा दोनों की आवश्यकता से बचने के लिए कार्टे ब्लैंच या पूर्ण अधिकार के तौर पर कार्य नहीं करना चाहिए.
यह भी ध्यान देने योग्य है कि उच्च न्यायपालिका का "हैंड्स ऑफ" यानी बचने या दूर रहने का दृष्टिकोण सुरक्षा चिंताओं तक ही सीमित नहीं है. न्यायालयों ने लगातार यह कहा है कि वे "नीतिगत मुद्दों" या "आर्थिक मामलों" में भी हस्तक्षेप नहीं करेंगे. ये अदालतों की शक्तियों की न्यायिक समीक्षा के लिए बहुत कम स्पेस देता है.
पर्यावरण और पारिस्थितिकी को "सुरक्षा" के मुद्दे के रूप में सोचने की भी सख्त आवश्यकता है, क्योंकि हमारे जंगल, पहाड़ और नदियां पारिस्थितिक सुरक्षा प्रदान करते हैं इसके साथ ही ये जलवायु परिवर्तन के खिलाफ एक रक्षापंक्ति के रूप में भी काम करते हैं.
पहले के आदेश में "टिकाऊ" जैसा कुछ भी नहीं था
बेंच द्वारा सतत विकास की धारणा पर विस्तार से चर्चा की गई. यह निर्णय विशेष रूप से सतत विकास के संबंध में अदालत के कई फैसलों को संदर्भित करता है. जो इस तरह से हैं...
"इस न्यायालय की दो-न्यायाधीशों की बेंच ने एस्सार ऑयल लिमिटेड बनाम हलार उत्कर्ष समिति में सतत विकास की धारणा को स्पष्ट करते हुए स्टॉकहोम घोषणा का उल्लेख किया. जिसमें कहा गया है कि विकास सामाजिक आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है, लेकिन पर्यावरणीय समस्याएं हमेशा ही मौजूद रहेंगी. हालांकि, इन मुद्दों की व्याख्या विकास और पर्यावरण के बीच गतिरोध के रूप में नहीं की जानी चाहिए, बल्कि सतत विकास के सिद्धांत के माध्यम से दोनों में सामंजस्य स्थापित करने के अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए."
"एनडी जयल और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य मामले में तीन-न्यायाधीशों की बेंच ने कहा कि सतत विकास की धारणा ही विकासात्मक गतिविधियों और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाए रखने का एकमात्र तरीका है."
"राजीव सूरी बनाम दिल्ली मामले में इस न्यायालय की तीन-न्यायाधीशों की बेंच को सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट की अनुमति पर निर्णय लेना था. सतत विकास के सिद्धांत के उपयोग पर विचार करते हुए, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर ने कहा कि सतत विकास के सिद्धांत में विकास के सिद्धांत (ऐसा विकास जो टिकाऊ हो और पर्यावरण को खराब न करे) को अनिवार्य रूप से शामिल किया गया है.
पर्यावरण कानून के लिए खराब रहा है पूरा साल
सतत विकास का सिद्धांत इन फैसलों का मूल रहा है लेकिन मुकदमे के परिणाम में इस सिद्धांत के महत्व दिखाई नहीं देते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने एस्सार ऑयल मामले में एक समुद्री वन्यजीव अभयारण्य में एक तेल पाइपलाइन बिछाने की अनुमति इस आधार पर दी कि रिसाव से होने वाली कोई भी क्षति अपरिवर्तनीय (irreversible) नहीं है; सुप्रीम कोर्ट ने एनडी जयल मामले में हिमालय में टिहरी बांध के निर्माण की अनुमति दी; और सुप्रीम कोर्ट ने राजीव सूरी मामले में सेंट्रल विस्टा बनाने के सरकार के फैसले को मंजूरी दे दी.
तीनों मामलों में अदालत ने सतत विकास के सिद्धांत पर व्यापक रूप से विचार करने के बावजूद बड़ी परियोजनाओं से जुड़े सरकार के निर्णयों में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया. इन फैसलों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह दिखा सके कि कोर्ट इन परियोजनाओं को 'टिकाऊ' कैसे मान सकती है?
चार धाम के फैसले से एक दिन पहले एनजीटी (NGT) ने गणेशपुर-देहरादून हाइवे के लिए एक कानूनी चुनौती को खारिज कर दिया, जिसमें 11,000 पेड़ों की कटाई शामिल थी. चूंकि यह हाइवे 210 किलोमीटर लंबे दिल्ली-देहरादून आर्थिक गलियारे का हिस्सा है और इससे भारत-चीन सीमा पर सैनिकों की आवाजाही में मदद मिलेगी इसी आधार पर चुनौती को खारिज किया गया था. चूंकि 210 किलोमीटर के मार्ग को छोटे भागों में विभाजित किया गया है, इसलिए एनजीटी ने निर्धारित किया कि किसी भी EIA की आवश्यकता नहीं है. एक हफ्ते पहले नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने विशाखापत्तनम के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के लिए कानूनी चुनौती को खारिज कर दिया.
पर्यावरणीय नियमों से संबंधित कानून की बात करें तो 2021, निश्चित रूप से एक अच्छा वर्ष नहीं रहा है.
(ऋत्विक दत्ता एक पर्यावरण वकील हैं और LIFE नामक एनजीओ के संस्थापक हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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