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गांधी परिवार यदि कांग्रेस पर नियंत्रण रखना चाहता है, तो यह अहम वर्ष हो सकता है

2022 के चुनाव कांग्रेस व गांधी परिवार की दशा व दिशा तय करेंगे. अगर पार्टी अभी नहीं जागी तो परिणाम भयंकर होंगे.

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गांधी परिवार (Gandhi family) के लिए ये वे साल है, जिसमें इन्हें हिसाब करना होगा. 2022 में सात राज्यों में विधानसभा चुनाव (Assembly elections) होने हैं. इनमें से पांच राज्यों (उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर, हिमाचल प्रदेश और गुजरात) में कांग्रेस मुख्य चुनौती है, वहीं छठवें राज्य (पंजाब) में कांग्रेस अपना राज्य बचाने की कोशिश करेगी वहीं सातवें राज्य (उत्तर प्रदेश) में प्रियंका गांधी अपनी पार्टी को "सम्मानजनक सीटें" (दोहरे अंक में सीट) दिलाने और प्रदेश में पार्टी की पैठ मजबूत करने की दिशा में पूरी ऊर्जा के साथ अभियान चला रही हैं.

चूंकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस हाशिए पर है, इसलिए बाकी के 6 राज्यों में गांधी परिवार की असल परीक्षा होगी. इसके साथ ही इस समय पार्टी में जो माहौल है उसके आधार पर गांधी परिवार के लिए साफ और स्पष्ट संदेश है कि या तो उद्धार करो या फिर मिटा दो.

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राहुल गांधी की अप्रत्याशित विदेश यात्राएं

इन सबके बीच सबसे हैरानी तब होती है जब ऐसा लगता कि एक व्यक्ति जो उत्तराधिकारी के तौर पर अपनी छाप बना सकता है वह कहीं खो गया है. वह शख्स और कोई नहीं राहुल गांधी हैं. जैसे ही संसद का शीतकालीन सत्र समाप्त हो रहा था, वे विदेश में किसी अज्ञात स्थान पर चले गए थे.

कांग्रेसियों (जिन्हें सबसे आखिरी में यह पता चलता है कि उनके प्रेसीडेंट कहां हैं.) के बीच इस बात की अटकलें हैं कि राहुल गांधी अपनी बीमार नानी (ग्रैंडमदर) के साथ न्यू ईयर ईव सेलिब्रेट करने के लिए इटली की यात्रा पर गए हैं और हमेशा की तरह इस बार भी यह कोई नहीं जानता कि वे वापस कब लौटेंगे?

राहुल गांधी के समर्थकों का तर्क है कि क्रिसमस-नए साल के दौरान छुट्टियां मनाना एक पारिवारिक परंपरा है. जवाहरलाल नेहरु ऐसा करते थे, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने भी ऐसा किया था. लेकिन ऐसा लगता है कि राहुल ने छुट्टी के विचार को एक नए स्तर पर पहुंचा दिया है.

शीतकालीन सत्र शुरू होने से कुछ समय पहले उन्होंने लगभग 40 दिन विदेशों में कहीं बिताए थे. सत्र शुरू होने की पूर्व संध्या में वे वापस लौटे. उसके बाद अब वे फिर कहीं चले गए हैं. उनके बाहर जाने की वजह से कांग्रेस पार्टी को पंजाब के मोगा में अपनी एक अहम रैली व सभा को स्थगित करना पड़ा. पार्टी को इस रैली व सभा से राज्य में चुनाव अभियान शुरु करने की उम्मीद थी.

पिछले साल (2021) राहुल गांधी ने इन दोनों यात्राओं के साथ-साथ कई यात्राएं की थीं. टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी जोकि गांधी वंश की मुखर आलोचकों में से एक हैं, उन्होंने राहुल गांधी की लगातार यात्रा के कारण एक नॉन-रेजीडेंस राजनेता (non-resident politician) के रूप में उनका (राहुल गांधी का) उपहास भी उड़ाया है.

चूंकि शायद ही कभी कांग्रेस द्वारा उनकी विदेश यात्राओं के लिए स्पष्टीकरण दिया गया है, इससे लोगों के बीच तरह-तरह की धारणाएं बनती हैं. ये धारणाएं तब और बढ़ जाती है जब बीजेपी की ओर से यह कहते हुए बार-बार हमला किया जाता है कि राहुल गांधी गंभीर नेता नहीं हैं.
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2022 में क्या कांग्रेस हार का एक और दौर झेल पाएगी?

एक ओर जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से जुड़ी इवेंट्स को बड़ी ही बारीकी से कोरियोग्राफ करते हुए उन्हें प्रस्तुत किया जाता है जहां कई इवेंट में वे प्रत्यक्ष मौजूद रहते हैं कहीं अप्रत्यक्ष. लेकिन उनकी छवि बहुत ही व्यापक बनाई जाती है.

इसके साथ ही चापलूस और गोदी मीडिया द्वारा सब कुछ छोड़कर उनके (पीएम मोदी के) इवेंट्स को बार-बार टीवी पर दिखाया जाता है, जिससे लोगों के दिमाग में उनकी छवि बनी रहती है. इस वजह से मोदी हर जगह दिखाई देते हैं. वहीं दूसरी ओर राहुल खुद ही अंतर्ध्यान हो जाते हैं.

अपने नेता (राहुल गांधी) के ठिकानों की अटकलों के साथ-साथ इस साल पार्टी (कांग्रेस) के भाग्य को लेकर 2022 के आगाज ने कांग्रेसियों की चिंता को बढ़ा दिया है. ऐसे में क्या कांग्रेस 2021 में एक निराशाजनक वर्ष के बाद नुकसान की एक और लहर का सामना करने में सक्षम होगी?

भले ही गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस मणिपुर और गोवा का चुनाव हार जाए और उत्तर प्रदेश के नक्शे पर मुश्किल से जीत दर्ज करे, लेकिन पंजाब को बनाए रखना और उत्तराखंड को फिर से हासिल करना पार्टी के अस्तित्व व भविष्य के लिए बहुत जरूरी हो गया है. इन पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव 2022 की शुरुआत में होने हैं.

पार्टी में आगे क्या होगा है यह तो नतीजों पर निर्भर करेगा. लेकिन सीधे शब्दों में कहें तो अगर कांग्रेस इन दोनों राज्यों में जीत जाती है, तो गांधी परिवार को फिर से लड़ने का मौका मिल सकता है. वहीं अगर कांग्रेस हार जाती है, तो यह हार पार्टी के पतन का कारण बन सकती है.

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सुलगते हुए विद्रोह का संकेत

सुलगते हुए विद्रोह के संकेत पहले से ही हैं. गुलाम नबी आजाद कांग्रेस की जम्मू-कश्मीर इकाई में संकट पैदा कर रहे हैं. उनके समर्थकों ने परिवर्तन के लिए एक अभियान शुरू किया है, जबकि आजाद ने पार्टी से स्वतंत्र रूप से रैलियां और जनसभाएं की हैं. कांग्रेस के कई सदस्यों का मानना ​​है कि आजाद अपने गृह राज्य में एक क्षेत्रीय पार्टी शुरू करने वाले हैं. वह केवल इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि आने वाले पांच विधानसभा चुनावों में हवा किस तरफ बहती है.

कई वर्षों से हरियाणा के वरिष्ठ नेता भूपेंद्र हुड्डा भी अपने सुर उठाते रहे हैं. 2019 में वह विधानसभा चुनाव से ठीक पहले एक क्षेत्रीय पार्टी बनाने के करीब आ गए थे. उस समय दिवंगत अहमद पटेल, जिन्हें सोनिया गांधी का संकटमोचक कहा जाता है उन्होंने हुड्‌डा को ऐसा करने से रोका था. ऐसा माना जाता है कि अगर उन्हें (हुड्‌डा को) जल्दी व ज्यादा छूट दी जाती तो उन्होंने अपनी पार्टी के लिए राज्य में जीत हासिल की होती. ऐसे में अब वह एक बार फिर अपने पंखों को खोलने का इंतजार कर रहे हैं और पूरे माहौल पर अपनी नजर बनाए हुए हैं.

कर्नाटक में डीके शिवकुमार एक और संभावित असंतुष्ट हैं. वे परिवार के प्रति वफादार भी हैं, लेकिन जिस तरह से जिस तरह से गांधी परिवार राज्य में पार्टी की संभावनाओं को खत्म कर रहा है, उस स्थिति में उनके (डीके शिवकुमार) बारे में विचार किया जा सकता है क्योंकि वे एक ताकतवर नेता भी हैं और उनकी बेचैनी जाहिर भी होती रहती है. कर्नाटक में 2023 में चुनाव होने हैं, इस लिहाज से उनके लिए ज्यादा समय बचा नहीं है.

निश्चित तौर पर ये सभी कांग्रेस की कमजोर कड़ियां हैं. इसके साथ ही लगभग हर राज्य में समस्याएं देखने को मिल रही हैं, जिससे निपटने के लिए गाँधी परिवार या तो कांग्रेस के नेतृत्व के लिए खराब और कम लोकप्रिय विकल्प चुन रहा है या अपने लचर जहाज को स्थिर रखने के लिए निर्णय नहीं ले पा रहा है.

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क्या मुख्यमंत्री चेहरे के बिना चुनाव में उतरेगी कांग्रेस?

कांग्रेसियों को जिस बात ने सबसे ज्यादा चौंकाया है वह है गांधी परिवार द्वारा पंजाब और उत्तराखंड जैसे राज्यों में आंतरिक अशांति से निपटने का तरीका. इस अशांति को अब तक निपटा दिया जाना चाहिए और यहां पार्टी को चुनाव के लिए तैयार हो जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा दिख नहीं रहा. पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू और मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के बीच तनाव पैदा हो रहा है क्योंकि सिद्धू लगातार अपने ही प्रशासन पर निशान साध रहे हैं.

अंदरूनी कलह के बीच, अब अटकलें लगाई जा रही हैं कि कांग्रेस मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के बिना चुनाव लड़ेगी. हालांकि कांग्रेस के पास अभी एक सीएम चेहरा है जो कि मौजूदा सीएम है. संघर्षों को सुलझाने में गांधी की अक्षमता ने पार्टी नेताओं के विश्वास को तोड़ दिया है, जो निजी तौर पर स्वीकार करते हैं कि उन्होंने पंजाब में जीत के जबड़े से हार छीन ली है.

उत्तराखंड में हरीश रावत पार्टी के सबसे बड़े नेता हैं, यहां चुनावी युद्ध के पथ पर हरीश के साथ पार्टी चल रही है. लेकिन यहां भी कांग्रेस पार्टी डगमगा रही है, क्योंकि रावत को लगता है कि गांधी परिवार उन्हें कमजोर कर रहा है. गांधी परिवार के साथ उनके मतभेद तब से हैं जब पार्टी अध्यक्ष पद के लिए 2000 में स्व. जितेंद्र प्रसाद ने सोनिया गांधी को चुनौती दी थी. इनके बेटे जितिन प्रसाद हाल ही में बीजेपी में शामिल हुए है. प्रसाद के साथ रावत के संबंध पुराने हैं ऐसे में सोनिया गांधी के समर्थन में रावत डगमगाते हुए दिखाई दिए.

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पंजाब की राह पर उत्तराखंड

यह बात अलग है कि रावत अंततः सोनिया खेमे में शामिल हो गए, लेकिन कांग्रेस में यह कहा जाता है कि गांधी परिवार की याददाश्त काफी लंबी है, यही वजह है कि गांधी परिवार ने कभी उन पर कृपा नहीं की. उन्हें दो बार सीएम पद के लिए नजरअंदाज किया गया, आखिरकार आलाकमान ने उनकी अनदेखी नहीं की और उन्हें 2014 में मुख्यमंत्री का ताज पहनाया.

रावत के कद और उनकी चिंताओं को देखते हुए कांग्रेस पार्टी इस बारे में कुछ भी नहीं बोल रही है कि आखिरकार उत्तराखंड में सीएम चेहरा कौन होगा? नतीजतन अब उत्तराखंड, जहां कांग्रेस को जीत की उम्मीद थी, वह भी पंजाब की राह पर आगे बढ़ रहा है.

इन तमाम पहलुओं को देखते हुए अगर गांधी परिवार कांग्रेस पर अपनी पकड़ बनाए रखना चाहता है, तो यह एक महत्वपूर्ण वर्ष है. अब समय आ गया है वे वक्त की नजाकत को पहचानते हुए जाग जाएं और काम पर जुट जाएं.

(आरती आर जेराथ दिल्ली की एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. वह ट्विटर पर @AratiJ के नाम से ट्वीट करती हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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