पिछले हफ्ते प्रकाशित एक महत्वपूर्ण डेटा बिंदु पर ध्यान देने की जरूरत है. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के डेटा में हमारी दुनिया पर मैक्स रोजर का ब्लॉग दुनिया को याद दिलाता है कि दुनिया का अधिकांश हिस्सा गरीब है, लेकिन भारत के लिए, यह विशेष रूप से संकट की भयावहता को रेखांकित करता है - "99.5% भारतीय एक दिन में $30 से कम खर्च करते हैं".
लेकिन जब चुनाव आयोग (EC) सूचित करता है, तो जो पांच राज्यों के चुनावों होने वाले सभी चुनावों के लिए चुनावी खर्च की सीमा अधिकतम 70 लाख थी उसको बढ़ाकर 95 लाख किया गया है, इसके अलावा जिन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में यह सीमा 54 लाख थी उसे बढ़ाकर 75 लाख कर दिया गया है. विधानसभा क्षेत्रों के लिए चुनावी खर्च की सीमा मौजूदा 20 लाख से बढ़ाकर 28 लाख और 28 लाख से बढ़ाकर 40 लाख कर दी है जो कि खतरे की घंटी की तरह है और एक तरह का विरोधाभास है.
चुनावी खर्च की सीमा बढ़ाने का क्या कारण है?
राजनीतिक दलों की मौजूदा चुनावी खर्च की सीमा बढ़ाने की मांग के संबंध में चुनाव आयोग ने मतदाताओं की संख्या में 936 मिलियन की वृद्धि का हवाला दिया है जो 834 मिलियन से ज्यादा है जब 2014 में अंतिम बार सीमा की समीक्षा की गई थी.
इस कारण के पीछे कॉस्ट इन्फ्लेशन इंडेक्स का भी हवाला दिया गया, कहा गया कि यह "32.08% तक" है और अधिक "वर्चुअल कैंपेनिंग" की आवश्यकता है.
चुनावी खर्च की सीमा बढ़ाना हानिकारक क्यों है?
यह मानक और व्यावहारिक दोनों कारणों से हानिकारक है. आम तौर पर, पर्याप्त धन न होना एक मानदंड कैसे हो सकता है जो एक अच्छे उम्मीदवार को मैदान में प्रवेश करने से रोकता है?
हमारा संविधान सुनिश्चित करता है कि सभी वयस्क मतदान कर सकते हैं फिर भले ही उनकी त्वचा, धर्म, क्षेत्र, जाति, वर्ग या शैक्षिक योग्यता, रंग कैसा भी हो. चुनाव लड़ने के योग्य लोगों के लिए नियम निश्चित रूप से क्षेत्र को संकीर्ण करते हैं, लेकिन हमारे संविधान की भावना कहती है कि सभी भारतीयों को चुनाव लड़ने में सक्षम होने के बारे में सोचना चाहिए. आखिरी चीज जो एक बाधा हो सकती है वह कैंपेनिंग में खर्च करने के लिए पैसा है.
चुनावी खर्च की सीमा को बढ़ाना मतलब मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए बड़े पैमाने पर खर्च को वैध बनाता है और इससे लोकतंत्र को गहरा नुकसान पहुंचता है. वह भी एक ऐसे लोकतंत्र का जो सीमित साधनों वाले लोगों की भारी संख्या से बना है. संक्षेप में, लोगों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए पैसे को बाध्यकारी बनाना भारतीय लोकतंत्र को पीछे की ओर धकेलता है, आगे की ओर नहीं.
अगस्त 2021 में एक आकलन में पाया गया कि बीजेपी को 2,555 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड मिले जो कि 2019-20 में कुल तीन-चौथाई से अधिक हैं और यह 1450 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड से 75% ज्यादा है जो 2018-19 में मिले थे.
चुनाव को लेकर जो सवाल उठाए जाते हैं उन पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय इस पर ध्यान जाना चाहिए कि कैसे राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग को ट्रास्पेरेंट बनाया जा सके और राजनीतिक दलों द्वारा खर्च किए जाने वाले पैसे को सीमित करने पर. ऐसा ना होने पर औसतन मतदाता लोकतंत्र से दूर हो जाते हैं.
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने (ADR) ने 2020 में बताया था कि "नौ कार्यकारी समूहों" (जिसमें राज्यों के मुख्य चुनाव अधिकारी और अन्य ईसीआई अधिकारी शामिल हैं) ने चुनाव आयोग को मसौदा प्रस्तुत किया. जिसमें सुझाव दिया गया था कि चुनावी खर्चों की सीमा होने की आवश्यकता है.
एडीआर ने 2019 में हुए चुनाव को "वाटरशेड इलेक्शन" करार दिया था
2019 में जो हुआ वो खतरे की घंटी थी तब 55,000 करोड़ रुपए या $8 बिलियन बीजेपी द्वारा खर्च किए गए थे. यह अब तक का सबसे महंगा चुनाव था.
इस चुनाव ने खर्च के मामले में 2016 में अमेरिका में हुए चुनाव को भी पीछे छोड़ दिया था. सेंटर फॉर रिस्पॉन्सिव पॉलिटिक्स ने बताया था कि अमेरिका में $6.5 बिलियन के खर्च पर चुनाव लड़ा गया था.
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की 2019 की रिपोर्ट में कहा गया है, "20 सालों में 1998 और 2019 के बीच लोकसभा के छह चुनावों में चुनावी खर्च 9,000 करोड़ रुपये से लगभग छह गुना बढ़कर लगभग 55,000 करोड़ रुपये हो गया है". एडीआर ने 2019 में हुए चुनाव को "वाटरशेड इलेक्शन" करार दिया था.
क्या पैसा वोट नहीं खरीद सकता, या खरीद सकता है?
जहां तक लोकतंत्र की स्थिति का सवाल है भारत एक निर्णायक क्षण में है. इसने अपनी लोकतांत्रिक स्थिति में भारी गिरावट देखी है, जिसे पिछले एक साल में फ्रीडम हाउस, वी-डेम इंस्टीट्यूट, द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट डेमोक्रेसी इंडेक्स, रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स, पेन इंटरनेशनल और इंटरनेशनल आईडीईए द्वारा दर्ज की गई थी. वी-डेम ने 2021 में भारत को 'चुनावी निरंकुशता' करार दिया है न कि लोकतंत्र.
लेकिन इससे भी ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि इस साल दक्षिण एशिया में रूटलेज हैंडबुक ऑफ ऑटोक्रेटाइजेशन में बताया गया है कि, "चुनाव प्रबंधन निकाय (चुनाव आयोग) की स्वायत्तता 2013 के बाद से गंभीर रूप से कम हो गई है."
(सीमा चिश्ती दिल्ली में स्थित एक लेखिका और पत्रकार हैं. अपने दस साल से ज्यादा के करियर में वह बीबीसी और द इंडियन एक्सप्रेस जैसे संगठनों से जुड़ी रही हैं. उनका ट्विटर हैंडल @seemay है. यह राय लेखक के निजी है. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)