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Counterview : मोदी सरकार के 9 साल में इन तीन सेक्टरों का हुआ तेजी से उदय

सत्तारूढ़ शासन की कुछ प्रमुख सफलताओं में इन्फ्रास्ट्रक्चर, डिजिटलीकरण और एक "राष्ट्रवादी" विदेश नीति शामिल है.

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(नरेंद्र मोदी सरकार की 9 वर्ष पूरे होने पर, यह लेख इस सरकार की उपलब्धियों पर एक नजरिया प्रदान करता है. ये काउंटव्यू है, आप View को यहां पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं.)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे नेता और राजनेता के प्रदर्शन का आंकलन या मूल्यांकन करना काफी कठिन है. अगर आप मोदी सरकार की किसी पहल या नीति की प्रशंसा करते हैं, तो बिना किसी कारण के आप "गोदी" मीडिया के एक भाग के रूप में चिह्नित हो जाते हैं. अगर आप मोदी शासन की किसी नीति की आलोचना करते हैं, तो आपके साथ "पीडी" मीडिया के सदस्य के समान व्यवहार किया जाएगा. इसे और अच्छी तरह से समझे तो, मोदी "भक्त" या उनके प्रशंसक आपको एक राष्ट्र-विरोधी दुर्भावना के रूप में लेबल करने लगते हैं. जैसा कि दुनिया भर में हर चीज के साथ होता है, वास्तविकता उत्तेजना की चरम सीमा के बीच स्थित है.

सभी नेताओं की तरह, नरेंद्र मोदी पिछले नौ सालों में कुछ प्रमुख मुद्दों पर काम करने में विफल रहे हैं. हालांकि, वहीं दूसरी तरफ उन्होंने कुछ अन्य मौकों पर शानदार तरीके से काम किया है. चूंकि यह प्लेटफार्म कहीं और आलोचनात्मक लेख प्रस्तुत कर रहा है, इसलिए लेखक गोदी मीडिया कहलाने के जोखिम पर कुछ प्रमुख सफलताओं को उजागर करना चाहेंगे. जगह की कमी के कारण, लेखक ने केवल कुछ उन सफलताओं पर ध्यान केंद्रित किया है, जिन्हें मोदी के 2019 में दूसरा कार्यकाल जीतने के बाद विशेष महत्व मिला है.

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डिजिटलीकरण और वित्तीय समावेशन

यह एक ऐतिहासिक विडंबना हो सकती है, लेकिन नरेंद्र मोदी ने 54 साल पहले 1969 में इंदिरा गांधी द्वारा किए गए वादे (जब उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण शुरू किया था) को पूरा किया है. इंदिरा गांधी का स्व-घोषित सपना और अभिलाषा यह सुनिश्चित करना था कि कोई भी गरीब भारतीय आधुनिक बैंकिंग और औपचारिक ऋण तक पहुंच से वंचित न रहे.

31 मार्च, 2023 तक लगभग 500 मिलियन जन धन खातों में 1.99 लाख करोड़ रुपये रखने के साथ, मोदी ने लगभग असंभव को संभव कर दिखाया है. लेखक अभी भी अगस्त 2014 के बाद के उन्मादी हफ्तों और महीनों को याद करते हैं जब जन धन पहल की शुरुआत गई थी.

निंदा और आलोचना करने वाले, जो उस समय सोच रहे थे कि मोदी एक घुसपैठिए या दखलंदाजी करने वाले हैं, वे अब भी ऐसा ही सोचते हैं. उन्होंने तब इस योजना का मजाक उड़ाया था. उनका कहना है कि जब गरीब वास्तव में आमने-सामने रहते हैं और निरक्षर हैं तब ऐसी फैंसी योजनाओं का क्या मतलब है? लेकिन योजना शुरू होने के एक साल बाद, 175 मिलियन जन धन खाते थे जिनेमें 22,000 करोड़ रुपये जमा थे. आज, सबके साथ-साथ निंदा करने वालों को भी यह स्वीकार करना होगा कि वित्तीय समावेशन का यह विशाल कार्यक्रम सफल रहा है.

जब आप कम लागत वाले हाई-स्पीड डेटा और यूपीआई के माध्यम से डिजिटलीकरण को जोड़ते हैं, तब इस परिवर्तनकारी बदलाव का पैमाना और भी स्पष्ट हो जाता है. जब 2016 में डिजिटल पेमेंट की सुविधा देने वाले UPI को लॉन्च किया गया था, तब हमेशा की तरह आलोचकों ने इसका भी मजाक उड़ाया था.

एक प्रमुख विपक्षी नेता ने जोर देकर यह कहते हुए लगभग इस पहल की हंसी उड़ाई थी कि सब्जी विक्रेताओं से डिजिटल लेनदेन की उम्मीद मोदी कैसे कर सकते हैं? आज, लगभग हर जगह उस इलेक्ट्रॉनिक आवाज को सुना जा सकता है जो एक सफल डिजिटल भुगतान (पेमेंट) की घोषणा करती है. लेखक ने चाय और नाश्ते का पेमेंट करने के लिए ओडिशा और झारखंड के अंदरूनी इलाकों में इस सुविधा का इस्तेमाल किया है.

2017-18 में, भारत में 2071 करोड़ डिजिटल लेन-देन (ट्रांजेक्शन्स) दर्ज किए गए. 2022-23 तक लेने-देन का यह आंकड़ा 10 हजार करोड़ को पार कर गया था. इसके परिणामस्वरूप अभूतपूर्व रूप से लोकप्रिय जन धन-आधार-मोबाइल (JAM) ट्रिनिटी बनी है, जिससे आधार-सत्यापित (आधार वेरीफाइड) जन धन खातों को मोबाइल फोन के माध्यम से डिजिटल रूप से कल्याणकारी लाभ (वेलफेयर बेनिफिट्स) मिलते हैं.

वित्तीय समावेशन का तीसरा पहलू औपचारिक ऋण तक पहुंच से संबंधित है. मौजूदा सरकार ने मुद्रा योजना के माध्यम से इसे पूरा किया, जिसे (मुद्रा योजना को) 2015 में लागू किया गया था. इस योजना के तहत, छोटे उद्यमियों को बैंक ऋण (बैंक लोन) दिया जाता है, जिस पर ब्याज की दरें बहुत अधिक नहीं होती हैं. मुद्रा योजना में मार्च 2023 तक 23.2 लाख करोड़ रुपये के मौद्रिक मूल्य के साथ 40.82 करोड़ मुद्रा लोन वितरित किए गए हैं.

चूंकि आम तौर पर इस तरह के ऋण चुकाए नहीं जाते हैं, इसलिए आलोचकों ने इसे वोट हासिल करने के लिए सांकेतिक मुफ्त उपहार के रूप में खारिज कर दिया है. लेकिन डाटा कुछ और ही बयान करते हैं. COVID महामारी के कारण हुए नुकसान के बावजूद, समग्र बैंकिंग प्रणाली के 5.9% की तुलना में मुद्रा ऋणों का "खराब ऋण" (बैड लोन्स) या NPA केवल 3.7 प्रतिशत था.

इन्फ्रास्ट्रक्चर: स्पीड और स्केल

नवी मुंबई इंटरनेशनल एयरपोर्ट की कल्पना 1997 में की गई थी. 2007 में इसे मंजूरी दी गई थी. 2014 में, एयरपोर्ट के निर्माण के लिए वैश्विक निविदाएं आमंत्रित की गई थीं. 2024 के अंत तक यह एयरपोर्ट अंततः आंशिक रूप से पूरा हो जाएगा और संचालन के लिए उपलब्ध होगा. 2001 में, जब राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री थे, तब ग्रेटर नोएडा में एयरपोर्ट के निर्माण का पहला प्रस्ताव रखा गया था.

यूपी में समाजवादी पार्टी और केंद्र में यूपीए की सरकार आने के बाद यह परियोजना ठंडे बस्ते में चली गई थी. लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री चुने जाने के तुरंत बाद इस परियोजना में फिर से जान आ गई थी. 2017 में यूपी में बीजेपी की सत्ता में वापसी होने पर इस काम की गति तेज हो गई. नवी मुंबई एयरपोर्ट से कुछ महीने पहले यह एयरपोर्ट (ग्रेटर नोएडा) सितंबर 2024 में संचालन के लिए तैयार हो जाएगा.

2014 के बाद से मौजूदा सरकार जिस सिंगल-माइंडेड (एकतरफा) फोकस के साथ इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने में जुटी है, यह उसका सिर्फ एक उदाहरण है. रेलवे, हाईवे, पोर्ट, एयरपोर्ट, ग्रामीण सड़कें, फ्रेट कॉरिडोर, गरीबों के लिए पक्के घर, बड़े पैमाने पर रिन्यूएबल एनर्जी प्रोजेक्ट्स और नॉर्थ ईस्ट के साथ भारत के हर कोने और हर पहलू पर अभूतपूर्व ध्यान दिया गया है. ऐसे ही नहीं नितिन गडकरी "मिस्टर हाईवे ऑफ इंडिया" के नाम से प्रसिद्ध हो गए हैं.

2012-13 में, भारत में लगभग 2,800 किलोमीटर नए राजमार्गों (हाइवे) का निर्माण किया गया. 2022-23 में यह आंकड़ा 10,993 किलोमीटर था. स्पष्ट रूप से गडकरी इन आंकड़ों से खुश थे क्योंकि उनका लक्ष्य 12,500 किलोमीटर था. 2013-14 में भारतीय बंदरगाहों की कुल कार्गो हैंडलिंग क्षमता 1399 मिलियन टन थी लेकिन 2022-23 तक यह आंकड़ा 3,000 मिलियन टन के पार जा चुका है.

इंफ्रास्ट्रक्चर में इस तरह के भारी निवेश से न केवल नौकरियां पैदा होती हैं, बल्कि भविष्य के विकास की नींव भी पड़ती है. इंडिया इंक को इस साल की शुरुआत में तब अवाक रह गया था जब वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण के दौरान इस साल सार्वजनिक निवेश में 10 लाख करोड़ रुपये देने का वादा किया था. ऐसे समय में जब निजी निवेश की वृद्धि सुस्त रही, तब इस सरकार का बुनियादी ढांचा जीवन रेखा रहा है.

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'राष्ट्रवादी' विदेश नीति

कहने को तो यह एक क्रूर बात है. फिर भी, यूक्रेन पर रूसी आक्रमण का सबसे बड़ा अनपेक्षित लाभार्थी भारत रहा है. 2022-23 में, भारत ने रूस से प्रति दिन लगभग 1 मिलियन बैरल कच्चे तेल का आयात किया. रूस ने यूरोप को प्रति दिन 200,000 बैरल से अधिक डीजल और अन्य मूल्य वर्धित उत्पादों का निर्यात किया.

यूक्रेन में आक्रमण होने के तुरंत बाद, "पश्चिम" ने रूस पर व्यापक प्रतिबंध लगाए और अन्य "मित्रवत" देशों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया. भारत ने बहुत ही दृढ़ और विनम्र तरीके से इस मामले में टांग अड़ाने से इनकार कर दिया. भारत ने इस मौके पर रूस के साथ व्यापार बढ़ाया. पश्चिमी राजधानियों में इस बात की सुगबुगाहट बार-बार होती रही है कि भारत को उसके "बेशर्म" रवैये के लिए दंडित किया जाए. लेकिन यह सिर्फ एक दिखावा है क्योंकि हर G7 देश भारत का समर्थन कर रहा है ऐसा इसलिए है क्योंकि चीन के साथ लंबे समय से प्रतीक्षित "शीत युद्ध" अब वास्तविक होता दिखाई दे रहा है.

रूस के साथ बातचीत करने के नैतिक खतरों के बारे में बकवास करने वाले मीडिया पेशेवरों या थिंक टैंकरों को जब-जब विदेश मंत्री एस जयशंकर डांटते हैं या उनका मुंह बंद करा देते है तब-तब हर बार मोदी प्रसंशक ताली बजात है और जयशंकर की प्रशंसा करते हैं. लेकिन लेखक ने 'राष्ट्रवादी' शब्द का प्रयोग भक्तों के गाल बजाने के लिए नहीं बल्कि राष्ट्रीय हितों की व्यावहारिक खोज के रूप में किया है.

चीन (और उस पर निर्भर देश पाकिस्तान) को छोड़कर, इस शासन की विदेश नीति का संचालन उन शर्तों पर सफल रहा है. चूंकि चीनी "सम्राट" शी जिनपिंग के साथ एक व्यावहारिक संबंध बनाने के लिए मोदी बार-बार लगे रहे हैं, इसलिए चीन स्पष्ट रूप से विफल है. मोदी के सभी प्रयास जून 2020 में गालवान, लद्दाख में उस वक्त बिखर गए, जब भारतीय और चीनी सेनाओं के बीच हैंड-टू-हैंड (हाथों-हाथ) झड़प हुई.

दूसरी ओर, मोदी सरकार ने लगभग हर दूसरे देश या देशों के समूह के साथ व्यावहारिक और उत्पादक रूप से सफलतापूर्वक बातचीत की है. इजराइल और सऊदी अरब दोनों के साथ आप घनिष्ठ मित्र होने की कल्पना कर सकते हैं. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि विदेश नीति केवल दृष्टिगत नहीं है बल्कि इसके आर्थिक निहितार्थ भी हैं. 2012-13 में, भारत में FDI फ्लो 28 बिलियन यूएस डाॅलर था, जोकि 2021-22 तक लगभग 85 बिलियन यूएस डाॅलर के आंकड़े तक पहुंच गया था.

(सुतानु गुरु CVoter फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और व्यक्त किए गए विचार लेखकों के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है)

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