देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है लेकिन करीब 20 करोड़ भारतीय अब भी आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं. इससे पहले कि आगे कुछ कहूं हाल फिलहाल की इन घटनाओं पर गौर कीजिए.
राजस्थान के जालोर में एक शिक्षक ने सिर्फ इसलिए एक 9 साल के दलित बच्चे को पीटा क्योंकि उसने कथित तौर पर पानी का घड़ा छू दिया था.
बिलकिस बानो गैंगरेप में दोषी साबित हो चुके, 15 साल जेल काट चुके 11 लोग जब पूरी सजा काटे बिना रिहा हुए तो एक बीजेपी विधायक सीके राउलजी ने कहा-"इन लोगों ने अपराध किया या नहीं, ये नहीं मुझे नहीं पता. वो ब्राह्मण हैं और वैसे भी ब्राह्मणों का संस्कार अच्छा होता है. हो सकता है उन्हें जेल में कैद रखने के पीछे दुर्भावनापूर्ण इरादे हों"
एमपी के सतना में एक 'दलित' महिला (जो पहले दलित थी और बाद में बौद्ध धर्म अपना कर ओबीसी कोटे से चुनाव लड़ी) पर सर्वणों ने हमला कर दिया. उन्हें पीटा. पंचायत की एक पंच सावित्री साकेत के बेटे विक्रम सूर्यवंशी ने आरोप लगाया है हमलावरों ने जातिसूचक गालियां दी और कहा कि तुम च@#र लोग जो कल तक हमारी गुलामी करते थे, पंचायत चलाओगे?
तमिलनाडु अस्पृश्यता उन्मूलन मोर्चा ने एक सर्वे किया तो पाया कि कई दलित पंचायत अध्यक्षों को कुर्सी नहीं दी जाती. उन्हें तिरंगा नहीं फहराने देते. कुछ पंचायत अध्यक्षों को तो निकाय कार्यालय में घुसने तक नहीं देते
नोएडा की ग्रैंड ओमैक्स सोसाइटी में सत्ता के नशे में चूर श्रीकांत त्यागी ने एक महिला से बदसलूकी की. गालियां दीं. धमकियां दीं. श्रीकांत के गुंडों ने जब सोसाइटी पर हमला किया तो बीजेपी सांसद ने इसे अपनी सरकार का शर्म बताया. अब इस बात से वेस्टर्न यूपी के त्यागी समाज को लग रहा है कि ये सब त्यागियों के स्वाभिमान को ठेस पहुंची है. महेश शर्मा से किसी त्यागी नेता की बातचीत का ऑडियो भी वायरल हो रहा है जिसमें त्यागी और उसके गुर्गों को रिहा कराने के लिए कुछ करने की बात की जा रही है.
केरल में एक कोर्ट ने सेक्शुअल हैरेसमेंट के एक आरोपी को ये कहते हुए जमानत दी कि चूंकि आरोपी खुद जातिवाद के खिलाफ है, लिहाजा वो दलित महिला का यौन उत्पीड़न करेगा, यकीन नहीं होता. साथ में जज साहब ने कहा कि एससी-एसटी एक्ट के तहत आरोप नहीं लग सकते, क्योंकि आरोपी को पता नहीं था कि महिला दलित है.
ये खबरें सुर्खियां बनीं, लेकिन देश में 'दोयम दर्जे के नागरिकों' पर जुल्म की कहानियों से लोकल अखबारों के पन्ने रंगे रहते हैं. रोज. चैनलों के बिजी शेड्यूल में तो खैर इन खबरों को जगह ही नहीं मिल पाती.
जैसे ये खबर शायद ज्यादातर लोगों की नजरों से छूट गई होगी.
जबलपुर के सूखा गांव में दलित बच्चों से सरकारी स्कूल में खाने के बर्तन धुलवाए जाते हैं. मिड-डे मील के बाद यही बच्चे बर्तन धोते हैं. जब बच्चों के घरवालों ने विरोध किया तो उन्हें गाली देकर भगा दिया गया. बहुजन समाज पार्टी के जिस कार्यकर्ता सुनील अहिरवार ने इसकी शिकायत कलेक्टर से की, उनका कहना है कि उन्हें धमकियां मिल रही हैं. जब क्विंट ने ब्लॉक एजुकेशन ऑफिसर सुशील श्रीवास्तव से इस बारे में सवाल किया तो उनका जवाब पढ़िए और समझिए
''वहां पर सर्वण समाज के लोग भी हैं, जिनमें शुरू से चलता आया है. ऐसा होता रहता है थोड़ा बहुत. हमने निर्देश दिए हैं कि दोबारा ऐसी घटना न हो''
अब एक-एक कर इन घटनाओं का मतलब समझते हैं.
जालोर
हत्या का आरोप शिक्षक पर है. वो शिक्षक जिससे उम्मीद की जाती है कि वो बच्चों को बराबरी का पाठ पढ़ाएगा. सिखाएगा कि ऊंच-नीच गलत बात है, छुआछूत गलत बात है और गैरकानूनी भी. सवाल ये है कि पढ़ने लिखने के बाद भी पढ़ाने वाले के अंदर जातिवाद का इतना जहर कैसे रह गया कि वो किसी को मार डाले?
क्योंकि देश में शिक्षा का संबंध संस्कारों से कम और रोजगार से ज्यादा है. ये जातिवाद के अलावा बाकी कुप्रथाओं पर भी लागू होता है. यही कारण है कि डॉक्टर, इंजीनियर और आईएएस अफसरों के घर से भी दहेज उत्पीड़न की खौफनाक कहानियां निकलती हैं.
कौन व्यक्ति शिक्षित है? कौन शिक्षक हो सकता है, इसका मूल्यांकन उसके सरोकारों और संस्कारों पर होता ही नहीं. वो कानून कितना मानता है, इसकी किसी को परवाह नहीं. ऊपर से कॉस्मेटिक बातें चलती रहती हैं, जातिवाद का जहर रगों में दौड़ता रहता है.
गुजरात
बिलकिस गैंगरेप के दोषियों की रिहाई पर बीजेपी विधायक सीके राउलजी के बयान को ही लीजिए. एक तो ऐसे जघन्य अपराध के दोषियों की जल्दी रिहाई की आलोचना हो रही है, ऊपर से अलग-अलग अदालतों से रेप और हत्या जैसे अपराधों में दोषी करार दिए जा चुके लोगों को विधायक क्लीनचिट दे रहे हैं, क्योंकि वो ब्राह्मण हैं. जैसे ब्राह्मण होना सुविचार और सदाचार का सर्टिफिकेट हो. विधायक की बातों में जातिवाद की सड़ांध साफ सूंघी जा सकती है. ये एक ऐसा केस है जिसपर देश ही नहीं दुनिया की नजर टिकी हुई, लेकिन फर्क नहीं पड़ता. न शर्म है, और न डर.
कौन व्यक्ति नेता बनने लायक है, उसका मूल्यांकन इस बात पर है ही नहीं कि उसके संस्कार और सरोकार क्या हैं. इनसे कोई फर्क नहीं पड़ता. वो कानून कितना मानता है, इसकी किसी को परवाह नहीं. ऊपर से दलितों और पिछड़ों के हित की बात हर नेता करता है लेकिन अंदर जातिवाद का जहर रगों में दौड़ता रहता है.
केरल
ये मामला अजीब है. वो दलित थी इसलिए जातिवाद के खिलाफ लड़ रहा व्यक्ति उसके साथ कुछ गलत नहीं करेगा, इस दलील पर ही सवाल खड़े होते हैं. दूसरी बात अगर उसे पता था कि वो दलित है इसलिए वो गलत नहीं करेगा तो फिर एससी-एसटी एक्ट लगाने से ये कहते हुए कैसे मना किया जा सकता है कि उसे पता नहीं था कि महिला दलित है?
इसी जज ने इसी आरोपी को एक दूसरे सेक्शुअल हैरेसमेंट केस में ये कहते हुए जमानत दे दी कि महिला ने भड़काऊ कपड़े पहने थे.
महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिए महिलाओं में ही ऐब निकालने का अपराध ये देश जाने कब से देख रहा है लेकिन इसे ठीक करने की अहम जिम्मेदारी जिस न्यायपालिका पर है, वहां भी ऐसी बातें होने लगें तो दुखद है. दरअसल महिलाएं एक और 'दलित ट्राइब' हैं, जिनकी आजादी की लड़ाई जारी है.
सतना
सतना और तमिलनाडु में दलित पंचायत अध्यक्षों की हालत बताती है कि भले ही संख्या बल के आधार पर दलित राजनीति में आ जाएं, भले ही सीटें आरक्षित होने के कारण वो जीत जाएं लेकिन सवर्ण उन्हें स्वीकार को तैयार नहीं. दलित सत्ता में आने के बाद भी पावरलेस हैं. करोड़ों दलितों में से दो चार नेता वोट बैंक की मजबूरियों के कारण जब गांव और जिले की राजनीति से ऊपर उठ जाते हैं तो प्रत्यक्ष उन्हें इज्जत दी जाती है, लेकिन एक कसक के साथ. दलित और आदिवासी राष्ट्रपति बन सकते हैं, लेकिन इससे जमीन पर दलित-आदिवासियों की स्थिति में बदलाव बहुत कम आता है. मैंने अंबेडकर से लेकर बाबू जगजीवन राम तक के बारे में सवर्णों के ओछे विचार सुने हैं. कइयों में तो इनके प्रति नफरत भरी पड़ी है.
श्रीकांत त्यागी
श्रीकांत त्यागी केस को लेकर जो त्यागी समाज अपने स्वाभिमान के लिए सड़क पर उतर आया है उसे लगता है कि त्यागी के साथ ज्यादती हो रही है. यानि अपराध अपनी जगह है लेकिन समाज ऊपर. पहले अपने हित. अपना कोई नपने न पाए. कानून नपे तो नपे. कोई पीड़ित हो तो हो.
नेता, टीचर, न्यायपालिका के बाद सतना के मामले और श्रीकांत त्यागी पर त्यागियों का गोलबंद होना हमारे समाज के बारे में बताता है. हर दूसरे मसले पर विक्टिमहुड का कार्ड खेलने वाली पब्लिक जरा अपने गिरेबान में झांक कर देखे. कई काले धब्बे नजर आएंगे. यहां त्यागियों का मसला है. लेकिन कहीं करणी सेना है तो कहीं परशुराम सेना, कहीं वैश्य समाज का सम्मेलन है तो कहीं जाटों की पंचायत. शादी के लिए अपनी जाति के दूल्हा-दुल्हन ढूंढने वाले इश्तिहार से हर रोज अखबार रंगे होते हैं. अपनी जाति का कोई चुनाव लड़ रहा हो तो सारे मुद्दे गौण हो जाते हैं. और ये मामला सर्वणों तक सीमित नहीं है. ब्राह्मण क्षत्रिय को नीचा मानता है; क्षत्रिय वैश्य को; वैश्य, पिछड़ों को; पिछड़े, दलितों को और दलित, महादलितों को. हम ऐसे ही हैं.
इस मायने में हमारा लोकतंत्र फेल हुआ है कि न तो यहां लोक बदला है और न ही तंत्र. और इस वजह से करोड़ों लोगों को बराबरी का हक नहीं मिल पाया है. इसके लिए जिम्मेदार 75 साल में आए गए तमाम लीडर भी हैं, क्योंकि वही लीड करते रहे. जब उनकी एक आवाज पर संपूर्ण क्रांति हो सकती है, उनकी एक पुकार पर अंग्रेजों की जेलें छोटी पड़ सकती हैं, एक अपील पर देश स्वच्छता का अभियान चला सकता है तो क्यों नहीं एक आवाज, एक पुकार, जातिवाद के खिलाफ एक मुकम्मल अभियान के लिए दी जाती है?
दलितों, अछूतों का जीवन न बदले तो कैसी संपूर्ण क्रांति, दलितों के प्रति सोच न बदले तो कैसे कोई दावा कर रहा है कि 'देश की बदली सोच'? आखिर क्यों आज भी हमारी लगभग 100 फीसदी फिल्मों का हीरो चुलबुल...पांडे है, बाजीराव...सिंघम है, राउडी...राठौर है. सवाल उस महात्मा से भी पूछा जाएगा कि आजादी दिलाई तो करोड़ों की गुलामी खत्म क्यों नहीं कराई? जिन्हें वो बागडोर सौंप गए थे उन्होंने क्यों नहीं उनका अधूरा काम खत्म किया? और अपने दफ्तरों में गांधी को दीवार पर टांगकर राजनीति कर रहे आज के नेताओं से भी पूछा जाएगा कि गांधी के 'हरिजन' को 'हारा जन' क्यों बनने दे रहे हो?
संविधान की कथनी और देश की करनी में साफ अंतर है. दशक बीतते जा रहे हैं और सतना और जालौर जैसे जुल्म बंद नहीं हो रहे. 20 करोड़ से ज्यादा लोग कब तक सहेंगे? उनका गुस्सा लावा बन रहा है. विश्वगुरु बनने का ख्वाब देख रहे देश के लिए इतना बंटवारा ठीक नहीं.
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