कबीर आज से पांच सौ साल पहले भी सबकी खैर मांगने के लिए मंदिर, मस्जिद या राजदरबार में खड़े नहीं होते. वे बाजार में ही आते हैं. भारत में दलितों की मुक्ति के प्रश्न को हल करने की तमाम कोशिशें हुई हैं. ये कोशिशें भी सैकड़ों साल से चल रही है. तमाम समाज सुधारक और विभिन्न राजा-महाराजाओं, भक्ति कवियों, क्रांतिकारियों, साहित्यकारों ने यह करने की कोशिश की.
लेकिन 2018 में भी हम यह नहीं कह सकते कि यह प्रोजेक्ट पूरा हो चुका है और दलित भी उसी मान-सम्मान और मर्यादा के साथ भारतीय नागरिक हैं, जैसे कि कोई भी और समुदाय.
ये सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत का हर छठा आदमी दलित है और उसके विकसित हुए बिना और राष्ट्र निर्माण में उसके शामिल हुए बिना देश का भला नहीं हो सकता.
भारत में 20 करोड़ से ज्यादा दलित
2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में 20 करोड़ से ज्यादा दलित हैं. यह संख्या कितनी बड़ी है इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि यह ब्राजील या पाकिस्तान की कुल आबादी के बराबर है. जाति और खासकर दलितों, आजादी से पहले के अछूत समुदायों, के सवालों को हल करने की अब तक लगभग हर कोशिश हो चुकी है और समाज अपने जाल निकल नहीं पाया है.
भक्त कवियों और समाज सुधारकों ने सवर्ण जातियों को मानवीय बनाने के लिए हर प्रयास कर लिए हैं. इंसान और इंसान में कोई भेद नहीं है, जैसे उपदेश तमाम महापुरुषों ने दिए हैं. समाज सुधारक यह समझाते हुए थक गए कि हर किसी के अंदर में वही प्राण है और हर किसी का जन्म एक ही विधि से होता है, तो कौन, छोटा और कौन बड़ा. सबको मिल जुलकर रहना चाहिए और हर किसी को जीवन में तरक्की करने के मौके मिलने चाहिए. ऐसी अच्छी बातें हजारों बार कही जा चुकी हैं. लेकिन भारतीय समाज जाति की बीमारी से आजाद नहीं हो पाया है.
शादी से लेकर कॉरपोरेट बोर्ड रूम में भी जाति ढूंढ़ी जाती है
आज भी लाखों की संख्या में लोग मेट्रोमोनियल साइट्स पर अपनी जाति का लाइफ पार्टनर ढूंढ़ रहे हैं. गौर कीजिए कि ये अनपढ़ या ग्रामीण लोग नहीं हैं. अमेरिका और यूरोप जाकर भी लोग अपनी जाति में शादी करने के लिए भारत लौटते हैं या वहीं अपनी जाति का मैच खोज लेते हैं.
जाति जाने बिना कई बार बस और ट्रेन में बातचीत आगे नहीं बढ़ती. कई सारे सेक्टर हैं, जहां दलित हैं ही नहीं, जैसे कॉरपोरेट बोर्ड रूम, या उच्च न्यायपालिका, या कॉलेज, यूनिवर्सिटी या शोध संस्थान, ऐसी जगहों पर जाति की बात नहीं होती क्योंकि बातचीत में सिर्फ अपने जैसे लोग होते हैं.
ऐसे में दलितों के लिए यह मान लेने की कोई वजह नहीं है कि जाति समस्या से उन्हें छुटकारा मिल गया है. या निकट भविष्य में समाज में कोई बहुत बड़ी क्रांति होने वाली है, जिसके बाद उनके साथ भेदभाव खत्म हो जाएगा.
मंदिरों में दलितों की एंट्री
इस बीच देश के कई हिस्सों में अच्छी भावनाएं रखने वाले लोग और संगठन दलितों के मंदिर प्रवेश के आंदोलन चला रहे हैं. कई जगहों पर उन्हें कामयाबी भी मिली है. वैसे भी शहरी मंदिरों में जाति पूछ कर प्रवेश रोकने का चलन नहीं है. शहरों में लोग अपनी आदिम पहचान को एक हद तक छिपा ले जाते हैं. हालांकि मंदिर में भी गर्भगृह तक दलितों की एंट्री आम तौर पर नहीं है और मंदिरों की अर्थव्यवस्था में वो दक्षिणा देने वाले की भूमिका तक सीमित हैं.
मंदिर से होने वाली आमदनी में दलित हिस्सेदार नहीं हैं. मंदिर या कोई भी धार्मिक स्थल चूंकि सत्ता का केंद्र भी होता है और धर्मसत्ता काफी बड़ी चीज है, इसलिए धर्मसत्ता में समाज के हर हिस्से की उपस्थिति आवश्यक है.
लेकिन धर्मसत्ता में दलितों की हिस्सेदारी के लिए समाज को शायद लंबा सफर तय करना होगा और यह कभी हो पाएगा या नहीं, इसे लेकर पक्के तौर पर कुछ कह पाना मुश्किल है. अब तक के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि मंदिरों में दलितों को प्रवेश का अधिकार मिल जाने भर से समाज में कोई खास बदलाव नहीं आएगा.
कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर...
ऐसे में लगभग 500 साल पुराने संत-कवि-समाज सुधारक सतगुरु कबीर के रास्ते की तरफ एक बार फिर मुड़कर देखने की जरूरत है. कबीर कहते हैं कि – कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर, ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर.
कबीर आज से पांच सौ साल पहले भी सबकी खैर मांगने के लिए मंदिर, मस्जिद या राजदरबार में खड़े नहीं होते. वे बाजार में ही आते हैं. बाजार को लेकर तमाम तरह की धारणाएं लोगों के मन में है, और विचारधाराओं के असर की वजह से बाजार को किसी शत्रु की तरह भी कई लोग देखते हैं, लेकिन निष्पक्ष या जन्मना भेदभाव से मुक्त जीवन का सबसे उच्च रूप बाजार में ही मिलता है. बाजार आपसे आपकी जेब तौलकर तो भेदभाव कर सकता है, लेकिन जन्म से आप छोटे या बड़े हैं, यह बाजार नहीं पूछता.
अंबेडकर और गांधी का गांव
जाति को सबसे ज्यादा बाजार और शहरीकरण ने ही तोड़ा है और जातिमुक्ति भी यहीं होनी है. खानपान और साथ उठने-बैठने के मामले में जाति ने शहरों में अपने कदम पीछे खींचे हैं.
बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर जब भारतीय गांवों को क्रूरता, जाति भेदभाव और सांप्रदायिकता का अड्डा बताते हैं, तो उनके दिमाग में यह बात स्पष्ट है कि दलितों को गांवों में मुक्ति नहीं मिलने वाली है और वे जितनी जल्दी शहर की ओर चले जाएं, उनके लिए उतना ही बेहतर होगा.
गांवों को लेकर महात्मा गांधी की सोच में जो रुमानियत है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लेकर उनमें जो मोह है, उससे अंबेडकर पूरी तरह मुक्त हैं. एक आधुनिक चिंतक के तौर पर अंबेडकर परंपरा के खिलाफ आधुनिकता के साथ खड़े होते हैं.
हालांकि यह कहना आसान है कि दलितों को गांव छोड़ देना चाहिए, क्योंकि शहरी अर्थव्यवस्था के इंटिग्रेट होने के लिए जिस सामाजिक पूंजी की जरूरत होती है, वह दलितों के पास अक्सर नहीं होती.
जीडीपी में खेती का हिस्सा घटने के साथ ही, लोगों के ग्रामीण अर्थव्यवस्था के बाहर जाना एक सामान्य चलन है. दलितों के लिए ये भी सवाल होते हैं कि शहर में चले तो जाएं, लेकिन किसके पास रहें, कौन काम दिलाएगा, काम छूट गया तो कौन संभालेगा, शहरों में पुलिस और प्रशासन के बीच से जीने के रास्ते कैसे खुलेंगे, जैसे सवाल हर किसी के सामने होते हैं, लेकिन नेटवर्किंग के अभाव और बड़े पदों पर अपने लोगों की अनुपस्थिति का जितना असर दलितों पर होता है, वह बाकी और समुदायों पर अक्सर नहीं होता.
दलितों के साथ मिडिल क्लास का भी होगा विस्तार
अगर मौजूदा दौर में सरकारें, दलितों का फाइनेंशियल इनक्लूजन करती है और खासकर बैंक लोन देने के मामले में टारगेट फिक्स करके काम करती है, तो भारत में न सिर्फ मिडिल क्लास का विस्तार होगा और कंज्यूमर मार्केट का साइज बढ़ेगा, बल्कि समाज पर भी इसका सकारात्मक असर नजर आएगा.
भारत में दलित मिडिल क्लास बड़ी मात्रा में अपनी बचत बैंकों में रख रहा है, इस नाते भी बैंकों को लोन देने के मामले में दलितों के साथ प्राथमिकता का व्यवहार करना चाहिए.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ढ़ाई साल पहले लालकिले की प्राचीर से यह घोषणा की थी कि देश का हर बैंक ब्रांच कम से कम एक दलित या आदिवासी उद्यमी को 10 लाख से 1 करोड़ रुपए का कर्ज दें ताकि वे अपना काम शुरू कर सकें. इसे स्टैंड अप इंडिया का नाम दिया गया था.
अगर भारत का हर बैंक ब्रांच प्रधानमंत्री की इस घोषणा पर अमल करता है तो देश में हर साल अनुसूचित जाति और जनजाति के एक लाख 39 हजार उद्यमी खड़े हो सकते हैं, क्योंकि देश में इतनी ही बैंक ब्रांच हैं.
भारतीय समाज के लिए इससे शुभ बात और क्या हो सकती है?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में उनके अपने विचार हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.
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