हजारों सालों से ‘मूक’ रहे ‘नायकों’ की जुबान जब खुलने लगी तो वो चुप कैसे रहते, जो सदियों से एक दमनकारी सामाजिक व्यवस्था के मार्गदर्शक और संरक्षक बने हुए थे. महाराष्ट्र में दलित उत्पीड़न के मुद्दे पर जो कुछ हुआ वो तो होना ही था.
एक तरफ वो थे जो दलित चेतना के वाहक हैं और दूसरी तरफ वो थे जो आज भी आदिम समय की चेतना को पहने घूम रहे हैं. ये टकराव अवश्यंभावी था और आने वाले दिनों में ये और तीक्ष्ण होगा, क्योंकि हजारों साल से सत्ता पर काबिज इतनी आसानी से सत्ता नहीं छोड़ेंगे.
यहां सवाल ये है ही नहीं कि भीमा कोरेगांव में क्या हुआ. कौन जीता और कौन हारा. कौन पेशवाशाही के साथ खड़ा था और कौन ईस्ट इंडिया कंपनी के लिये लड़ा था. या क्या ये संघर्ष देशभक्तों और देशद्रोहियों के बीच का है ? या फिर ये संघर्ष हिंदुत्व को बचाने का है ?
ये संघर्ष एक प्रतिकार है जो लोकतंत्र में अपना हक मांग रहा है. जो आजादी के सत्तर साल बाद भी सम्मान से इंसान माने जाने का अधिकार मांग रहा है. जिग्नेश मेवाणी, रोहित वेमुला तो इस दलित चेतना के प्रतीक चिन्ह मात्र है.
ये चेतना पिछले दिनों काफी बलवती हुई है. दलित युवा काफी उत्तेजना में है. रोहित वेमुला की आत्महत्या और ऊना में गोहत्या के नाम पर नंगे बदन दलितों की शैतानी पिटाई ने इस चेतना में आग भरने का काम किया है. लेकिन इस चेतना में असली चिंगारी डालने का काम बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर ने किया. एक घटना ने उनका नजरिया ही बदल दिया. तिरस्कार की चिंगारी थी.
बड़ौदा रियासत के वजीफे पर अमेरिका से पढ़ कर वापस लौटे बाबा साहेब को जब मिलिटरी सेक्रेटरी जैसे बड़े पद पर रहने के बाद भी शहर में रहने को जगह नहीं मिली क्योंकि वो महार जाति के थे. दलित थे. बाबा साहेब को अपनी पहचान छुपा कर पारसी नाम अडलजी सोराबजी धारण करना पड़ा तब एक पारसी सराय में उन्हे रहने की जगह मिली. लेकिन जल्द ही राज खुल गया और आफत टूट पड़ी.
बाबा साहेब के कमरे पर बीस पचीस लोगों ने लाठी डंडे से धावा बोल दिया. जान से मारने की धमकी दी. बाबा साहेब से पूछा कौन हो तुम! बाबा साहेब बोले, ‘हिंदू’. हमलावर उनके मुंह से सुनना चाहते थे कि वो महार है. बाबासाहेब का सामान बाहर फेंक दिया. बाबा साहेब ने अपने तमाम हिंदू मित्रों से मदद मांगी. किसी ने सिर छुपाने की जगह न दी. हताश निराश बाबा साहेब एक कोने में बैठ कर रोने लगे.
बाबा साहेब को नौकरी छोड़नी पड़ी. वो मुंबई आ गए और तय किया कि जो अत्याचार उनके साथ हुआ वो किसी दलित के साथ न हो.
1917 की वो घटना
ये वही साल है जब पहली बार कांग्रेस पार्टी ने कोलकाता अधिवेशन में छुआछूत विरोधी प्रस्ताव पास किया था. ये घटना कई मायनों में ऐतिहासिक है. क्योंकि 1895 के बाद से कांग्रेस में ये तय हो गया था कि वो सामाजिक सुधार का कोई कार्यक्रम नहीं लेगी. ऐसे में कांग्रेस का ये प्रस्ताव चौंकाने वाला था.
ये वो वक्त था जब अंग्रेजों की तरफ से मोंट्ग्यू चेम्सफोर्ड रिफार्म के तहत दलितों को पृथक प्रतिनिधित्व देने की बात चल निकली थी. दो दलित संगठनों ने भी ये माँग बुलंद की थी कि हिंदू समुदाय से इतर दलित समुदाय को लेजिसलेटिव काउंसिल में अलग से प्रतिनिधित्व दिया जाए.
दलितों का कहना था कि हिंदू समाज ने उनके साथ न्याय नहीं किया है और उन्हे हिंदू समाज का हिस्सा नहीं माना जाता. उनके साथ जानवरों से भी बदतर बर्ताव होता है. अगर हिंदू ही उनका प्रतिनिधित्व करेंगे तो उनके साथ इंसाफ नहीं होगा.
कांग्रेस को डर समा गया कि दलित अगर उनसे छिटक गये तो आजादी की लड़ाई कमजोर हो जाएगी और अंग्रेज बांटने और राज करने में कामयाब रहेंगे. कांग्रेस में आए इस बदलाव का एक बड़ा कारण था पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन. गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से देश आ चुके थे, और वो पार्टी और स्वतंत्रता आंदोलन को अभिजात्य वर्ग से बाहर निकाल कर जनांदोलन बनाना चाह रहे थे.
बाबा साहेब और गांधी के बीच टकराव
आगे चल कर बाबा साहेब और गांधी जी में काफी टकराव हुआ. 1932 में दलितों को अलग प्रतिनिधित्व के मसले पर गांधी जी को आमरण अनशन भी करना पड़ा. भारी दबाव की वजह से बाबा साहेब को पृथक प्रतिनिधित्व की मांग छोड़नी पड़ी और आरक्षण स्वीकार करना पड़ा.
बाबा साहेब को लगता था कि गांधी जी दलित उद्धार के नाम पर टोकनिज्म कर रहे हैं. वो सवर्ण जातियों के दबाव में है. उन्हे ये भी पता था कि गांधी जी जाति प्रथा के समर्थक रहे हैं. फिर भी बाबा साहेब आंबेडकर गांधी जी के बारे में ये कहने से नहीं हिचकते थे कि जब सब लोगों ने हमें त्याग दिया तब गांधी जी की सहानुभूति कुछ कम नहीं है.
बाबा साहेब का मानना था कि दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार का एकमात्र कारण है जाति व्यवस्था. वो कहते थे कि जाति प्रथा हिंदू धर्म का मूल है और जाति प्रथा के रहते हिंदू धर्म में दलितों को न्याय नहीं मिल सकता. साथ ही ये भी कहते थे, ‘सदियों से दलित ये मानता आया है कि उसकी त्रासदी के लिये उनकी किस्मत जिम्मेदार है.
चूंकि वो अपनी क़िस्मत बदल नहीं सकता इसलिये वो चुपचाप अपनी नियति को सहने के लिये मजबूर है. लेकिन नयी पीढ़ी को ये समझ आ गया है कि उनकी बुरी गति के लिए अलौकिक दंड ज़िम्मेदार नहीं है. उनकी हालत कुछ लोगों की शरारत है.
बाबासाहेब ने दलितों को किया संगठित
1920 के बाद से बाबासाहेब घूम घूम कर दलितों को संगठित करने में लग गए. दलित चेतना में उभार दिखना भी शुरू हो गया. अंबेडकर इस चेतना के सबसे बड़े नायक बन गए.
अंबेडकर दलितों से कहते थे-
हमने अपनी आंतरिक ताकत और स्वाभिमान खो दिया है. किसी भी समाज के उत्थान के ये दो प्रमुख स्तंभ होते हैं. हिंदू धर्म के अनुसार हमारे कोई सामाजिक अधिकार नहीं है. हम स्कूल नहीं जा सकते, हम कुएं से पानी नहीं निकाल सकते, हम सड़क पर चल नहीं सकते, हम गाड़ी नहीं चला सकते ... छुआछूत की वजह से हमें नौकरी नहीं मिलती और प्रतिभाशाली होने के बाद भी लोग हमारे अधीनस्थ काम नहीं करते.
बाबा साहेब की बात दलितों के मन में घरौंदा बनाने लगी. उन्हें याद आने लगा कि कैसे अगड़ी जातियों की वजह से दलित अपनी कमर में झाड़ू बांध कर चलने को मजबूर था ताकि उसके चलने से जो जमीन अपवित्र हो गई है वो ज़मीन वो साफ करता चले.
क्या इससे अधिक कुछ अमानवीय हो सकता है ? ये पाठक ख़ुद सोचें. दलितों को अपने गले मे लोटा बांध कर चलना होता था कि अगर उन्हें थूकना है तो वो लोटे में थूकें. क्योंकि उनके जमीन पर थूकने से जमीन अपवित्र हो जाएगी.
क्या ये अमानवीयता की हद नहीं है ? तब 1927 में बाबासाहेब ने कहा कि हम दास नहीं है, हम एक बहादुर कौम है. और बगैर स्वाभिमान के जिंदगी जीने रहने से ज़्यादा शर्मनाक और कोई बात नहीं हो सकती .वो कहते थे, "सामूहिक इच्छा शक्ति का अभाव ही हमें पीछे रखे हुए है.” बाबासाहेब ने दलितों में जो ऊर्जा का संचार किया उसकी एक झलक 1927 में दिखाई दी.
महाद आंदोलन दलित उभार की तार्किक परिणति
1927 में चावड़कर झील का पानी पीने के लिए दलितों ने मार्च किया. पहले महार जाति के लोग झील का पानी नहीं पी सकते थे. लेकिन महाद की म्यूनिसिपलटी ने प्रस्ताव पास कर इसकी अनुमति दे दी. इसके बाद भी सवर्ण जातियों के लोग दलितों को पानी पीने नहीं दे रहे थे. हजारों लोग निकल पड़े. पानी पिया. गांव के सवर्णों ने उन पर हमला भी किया. लेकिन वो लोग बच बचा कर निकल आए.
म्युनिसपलिटी ने इस घटना के बाद अपना ही दिया आदेश वापस ले लिया. ब्राह्मणों ने झील को शुद्ध करने के लिये 108 बर्तनों मे मंत्रोच्चारण के बीच दही, दूध, गोबर और गोमूत्र से धोया. म्यूनिसिपलटी के आदेश वापसी के कुछ महीने बाद बाबासाहेब की अगुवाई मे दलितों ने फिर चावडकर झील की तरफ मार्च किया था.
महाद आंदोलन को दलित विमर्श में वही स्थान है जो आज़ादी की लड़ाई में नमक कानून तोड़ो कानून आंदोलन का है. इसी तरह 1930 का काला राम मंदिर सत्याग्रह ने भी दलित चेतना में अद्भुत बदलाव किया.
मंदिर प्रवेश का संघर्ष
दलितों का मंदिरों में प्रवेश वर्जित था. धारणा ये बनाई गई थी कि दलितों के प्रवेश से मंदिर अपवित्र हो जाएगा. बाबासाहेब का कहना था कि मंदिर प्रवेश के लिए दलित मरा नहीं जा रहा है. वो कहते थे कि मंदिर में नहीं जाने से दलित मर नहीं जायेगा और जाने से वो अमर भी नहीं होगा, पर ये मुद्दा बराबरी का है.
ये मनुष्य के नाते समानता के अधिकार के हनन का है. इसे वो लेकर रहेंगे. हजारों दलित मंदिर प्रवेश के लिए निकले. काफी हंगामा हुआ. मार पिटाई हुई. पुलिस के डंडे चले और सैकड़ों को जेल में भी ठूंसा गया. जेलें दलित विमर्श को नहीं रोक पाई. आज़ादी बाद लोकतांत्रिक प्रक्रिया ने इस चेतना को और सुदृढ़ किया है. आज कोई भी पार्टी दलितों की अनदेखी नहीं कर सकती. जिन बाबा साहेब ने कहा था कि मैं पैदा तो हिंदू हुआ लेकिन मरूंगा हिंदू नहीं, आज उन्हीं बाबा साहेब को लेकर घूमने का उपक्रम आरएसएस कर रहा है. बीजेपी कर रही है, मोदी जी कर रहे हैं.
संघ परिवार की एक और मजबूरी
संघ परिवार की एक और मजबूरी देखिये. जो लोग आज भीमा कोरेगांव की घटना को देशभक्ति की नजर से देख दलित नेताओं को जेल भेजने की वकालत कर रहे हैं वो शायद भूल गए हैं कि बाबासाहेब ने आजादी की लड़ाई के बारें में क्या कहा था.
1930 में उन्होंने कहा कि आज़ादी की मांग मेरे ख्याल से अव्यावहारिक है, ये देश के मौजूदा हालात के संदर्भ में घातक होगा. जब तक लोग एक देश, एक संविधान, एक नियति के सिद्धांत से न जुड़ें हो तब तक आजाद रहने का खतरा नहीं उठाया जा सकता.
अब ये तथाकथित देशप्रेमी/राष्ट्रवादी बाबासाहेब को क्या कहेंगे - देशभक्त या देशद्रोही ? ऐसे में मौजूदा तथाकथित देशभक्तों की देशभक्ति पर आंबेडकर की वो टिप्पणी याद आती है. वो कहते थे कि भारत में देशभक्त और राष्ट्रवादी वो है जो अपनी खुली आंखों से देखता है कि कैसे उसके साथ के लोग अपने ही देशवासियों को इंसान से कम समझते हैं और उनकी अंतरात्मा विरोध में नहीं खड़ी होती.’
(लेखक आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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