गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि गढि काढैं खोट. अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट. कबीर दास ने कभी गुरु की महिमा के बारे में बताते हुए लिखा था कि गुरु कुम्हार की तरह अपने शिष्य को गढ़ता है, उसकी कमियां दूर करता है और इसके लिए अंदर से मजबूत सहारा देते हुए बाहर से आवश्यक चोट भी करता है.
वह 15वीं सदी थी. हम 21वीं में जी रहे हैं. अब छात्र को गुरु थप्पड़ नहीं मारते. छात्र ही गुरु को थप्पड़ मारते हैं. छात्र ही गुरु की ‘खोट’ निकालने का ‘गुरुज्ञान’ रखते हैं. वे प्यार का सहारा दे तो नहीं सकते, नफरत का सहारा लेते हुए गुरु पर बारंबार वार करते हैं. उनके हृदय को तोड़ते हैं. ये छात्र घड़ा क्या बनाएंगे, बनाए हुए घड़ों को, जिन्हें उनके गुरुओं ने कभी गढ़ा था- तोड़ने में लगे हैं.
हमलावरों में कोई दलित, पिछड़ा, आदिवासी या मुसलमान क्यों नहीं?
बात सिर्फ इतनी नहीं है कि कबीर दास काल के शिष्य 6 सौ साल बाद बदल गये हैं, अपने गुरुओं पर हमला कर रहे हैं. ऐसे शिष्यों की भी खास बिरादरी है. प्रोफेसर रविकांत पर लखनऊ यूनिवर्सिटी में 10 मई और 18 मई को हुए हमले की घटनाओं में दर्ज शिकायतों पर नजर डालें तो हमलावर शिष्य पांडे, दुबे, सिंह, शुक्ला, पाठक, वर्मा, तिवारी, मिश्रा, चतुर्वेदी, शाही आदि हैं. इनमें कोई दलित, पिछड़ा, आदिवासी, मुसलमान क्यों नहीं है?
राजनीतिक रूप से देखें तो पहली घटना में हमलावर एबीवीपी के लोग रहे थे, तो ताजा घटना में हमलावर कार्तिक पांडे समाजवादी छात्र समूह से जुड़ा है.
हमलावर शिष्यों की नजर में प्रो. रविकांत (Ravikant) का गुनाह है उनका कथित रूप से हिन्दू विरोधी हो जाना. ज्ञानवापी मस्जिद विवाद में सीताभि पट्टाभि रमैया के हवाले से सुनायी गयी कहानी को हमलावर न सिर्फ गलत और मनगढ़ंत मानते हैं बल्कि उसे हिन्दुओं का अपमान भी बताते हैं. और, इसीलिए अपने ही ‘गुनहगार गुरु’ को सजा देने पर आमादा हैं.
कहानी भी नहीं सुना सकते दलित प्रोफेसर?
ज्ञानवापी मस्जिद बनने की इस सीताभि पट्टाभि रमैया की कहानी में मंदिर परिसर में कच्छ की रानी को लूट लिए जाने का वर्णन है. मंदिर का टूटना, मस्जिद का बनना सब इसी के इर्द-गिर्द है. प्रो. रविकान्त ने संदर्भ के तौर पर इस कहानी का जिक्र एक टीवी डिबेट में किया था और यह भी स्पष्ट किया था कि इस कहानी का आधार सीताभि पट्टाभि रमैया बताकर नहीं गये हैं.
प्रो. रविकांत हों या प्रो. रतन लाल- इन्हें सजा देने का अधिकार अदालत के अलावा किसी और को कैसे हो सकता है? सजा के तौर पर गालियां, जाति सूचक अपमान, जान मारने की धमकी, सरेआम बेइज्जती इन गुरुओं की हो रही है, लेकिन इस घनघोर अपराध पर हमारी व्यवस्था खामोश है. राजनीतिक दल चुप हैं. खासतौर से उन दलों में चुप्पी है, जिनसे हमलावर छात्र जुड़े रहे हैं.
गैर दलित होते प्रो रविकांत-प्रो रतन लाल तो क्या वे होते निशाने पर?
सवाल यह भी है कि प्रो रविकांत और प्रो रतन लाल अगर दलित समुदाय से नहीं होते तो क्या उनके खिलाफ इसी तरह की प्रतिक्रिया देखने को मिलती? इसका उत्तर जानना हो तो ज्ञानवापी मस्जिद विवाद में लगातार हो रही टिप्पणियों पर गौर करें. टिप्पणी तो सवर्ण भी कर रहे हैं लेकिन क्या उस पर प्रतिक्रिया हो रही है?
काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत राजेंद्र तिवारी ने तो ज्ञानवापी मस्जिद के भीतर मिले शिवलिंग पर भी सवाल उठा दिया-
शिवलिंग आप उसको मत कहिए. किसी भी पत्थर के स्तंभ को शिवलिंग कहना उचित नहीं है." राजेन्द्र तिवारी आगे सवाल उठाते हैं कि करुणेश्वर महादेव, अमृतेश्वर महादेव, अभिमुक्तेश्वर महादेव, चंडी चंडेश्वर महादेव समेत पांच शिवलिंग तोड़े गये हैं उस पर चर्चा नहीं हो रही है तो क्यों?
महंत सवाल उठाएं तो चुप्पी, बाकी हैं हिन्दू विरोधी?
सवाल यह है कि काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत अगर उसी शिवलिंग पर सवाल उठाते हैं, जिस पर मस्जिद पक्ष भी सवाल उठा रहा है तो महंत राजेंद्र तिवारी पर हिन्दू विरोधी होने का तमगा क्यों नहीं लगता? क्या राजेंद्र तिवारी अगर राजेंद्र अंबेडकर होते तो प्रतिक्रिया भिन्न नहीं होती?
प्रोफेसर रविकांत ने पुलिस को लिखी शिकायत में कहा है कि अगर पिछली घटना में एफआईआर दर्ज हो जाती तो शायद यह दोबारा घटना नहीं घटी होती. प्रो रतन लाल ने भी प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर एके-56 जैसे हथियारों के साथ सुरक्षा की मांग की है.
उन्होंने प्रधानमंत्री को उनका वह बयान भी याद दिलाया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि “मुझे गोली मार देना, लेकिन मेरे दलित भाइयों को कुछ मत करना.“ फिर भी अगर दलितों पर हमले लगातार बढ़ रहे हैं तो इसके पीछे की वजह क्या यह है कि अब दलितों से बदला लेने को तैयार बैठा समूह किसी के नियंत्रण में नहीं है.
अब दलितों में खोजे जाने लगे हैं ‘गद्दार’!
यह बात भी गौर करने की है कि दलित चिंतक के तौर पर मशहूर रहे प्रो रविकांत या प्रो रतन लाल को लगातार ‘हिन्दू विरोधी’ के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है. जेएनयू की याद आ रही है जहां एक के बाद एक घटी घटनाओं ने जेएनयू छात्रों के बारे में समूचे देश की धारणा बदल दी. जेएनयू में ‘गद्दार’ पैदा होते हैं- यह संदेश फैलाया जाने लगा. क्या अब निशाने पर दलित चिंतक हैं?
दलित चिंतकों की दलित समाज में पकड़ है. अगर उन्हें ‘देश विरोधी’ रंग में डुबो दिया जाते हैं तो उनकी विश्वसनीयता कम होती चली जाएगी. कन्हैया कुमार पैदा करने का फॉर्मूला बीजेपी को राजनीतिक सुफल देकर गया. अब क्या दलित चिंतकों में कन्हैया कुमार की खोज की जा रही है? एक बार अगर दलितों में कन्हैया कुमार गढ़ने में बीजेपी कामयाब हो जाती है तो इसके दूरगामी नतीजे मिल सकते हैं.
सवाल यह है कि प्रो रविकांत या प्रो रतन लाल दलित न होकर सवर्ण होते तो क्या उन पर हमले नहीं हुए होते? काल्पनिक होकर भी इस सवाल का मतलब नहीं समझ सके हैं तो इस सवाल का उत्तर खोजना जरूरी है. देश भर में सवर्ण नित दिन अनर्गल नफरती बोल बोलते रहते हैं लेकिन कभी न उन पर एफआईआर दर्ज होती है और न ही कार्रवाई ही हो पाती है। ऐसे में यह क्यों न समझा जाए कि दलित चिंतक होने की वजह से ही उनके खिलाफ थर्ड डिग्री का इस्तेमाल हो रहा है.
तहजीब का शहर लखनऊ अब अपने ही छात्रों के हाथों पिटने वाले गुरुओं का शहर बन रहा है. लखनऊ यूनिवर्सिटी के कैम्पस में प्रॉक्टर ऑफिस के सामने पुलिस की मौजूदगी में छात्रों के बीच प्रो रविकांत पर हमला दूसरी बार हुआ है. आठ दिन में में दूसरी बार प्रो. रविकांत अपने ही कैम्पस में छात्रों का निशाना बने हैं.
हमले की वजह दोनों घटनाओं में एक है. टीवी टिस्कशन में खुलकर विचार रखना. मतलब साफ है कि आगे भी घटनाएं घट सकती हैं. खुद प्रो रविकांत ने कहा है कि उनकी जिन्दगी पर खतरा बना हुआ है. चूंकि पिछली घटना में कोई कार्रवाई नज़ीर नहीं बनी होती है इसलिए अगली घटना या घटनाएं रोकी भी नहीं जा सकतीं. यही सच है.
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