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OPINION : इन हालात में दलित सड़क पर नहीं उतरता तो आखिर क्या करता? 

क्या दलितों-आदिवासियों के आंदोलन से खफा लोगों को इस देश की 35 फीसदी आबादी पर हो रहे जुल्मों के बारे में पता है? 

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जिन लोगों को 2 अप्रैल को दलितों का सड़कों पर उतरना नागवार गुजरा है, उन्हें शायद यह जानने की फुर्सत नहीं होगी कि इस देश में एससी-एसटी समुदाय के लोग किन हालातों में जी रहे हैं. आंदोलन के दौरान दलितों पर गोलियां दागी गईं, सोशल मीडिया पर गालियां मिलीं. अदालत ने भी कह दिया कि वह एससी-एसटी एक्ट पर संशोधन के फैसले पर स्टे नहीं देगी. अदालत का कहना था कि जो लोग आंदोलन कर रहे हैं उन्होंने फैसले को ठीक से नहीं पढ़ा है. लेकिन क्या दलितों के भारत बंद से खफा लोगों ने नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट पढ़ी है.

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जुल्म की दास्तां बयां करते रिकार्ड

नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक 2008 से 2016 के बीच दलितों पर जुल्म की रफ्तार 23.6 फीसदी बढ़ी है. इसी दौरान आदिवासियों पर जुल्म की रफ्तार 17.7 फीसदी बढ़ गई थी. 2008 में दलितों के खिलाफ अत्याचार के 33000 मामले दर्ज किए गए थे, जो 2014 में बढ़ कर 45,000 हो गए. 2016 में ऐसे मामलों की तादाद 40,800 थी. आदिवासियों के खिलाफ 2008 में अत्याचार के 5582 मामले दर्ज हुए थे और 2015 में इनकी संख्या बढ़ कर 11,451 हो गई. 2016 में यह संख्या 6,568 थी.

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अब जरा इन मामलों में दोषी साबित होने के आंकड़े भी देख लीजिए.इन वर्षों में दलितों के खिलाफ अत्याचारों के मामले में अदालत से दोषी साबित होने वालों की तादाद लगातार घटी है. 2008 में दलितों के खिलाफ अत्याचार की घटनाओं में से 30 फीसदी मामलों में ही जुल्म करने वाले दोषी साबित हुए थे लेकिन 2016 में यह संख्या घट कर 25.7 फीसदी पर आ गई. इसी दौरान आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार में दोषी साबित होने की रफ्तार 27.2 फीसदी से घट कर 20.8 फीसदी पर आ गई.

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दलितों का गुस्सा यूं ही नहीं है. उन पर अत्याचार तो हो रहे हैं वे रोजगार से भी महरूम किए जा रहे हैं. श्रम मंत्री ने संसद में जो आंकड़े रखे हैं उनके मुताबिक एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंजों में रोजगार के लिए 76.44 लाख दलितों ने अपना नाम रजिस्टर्ड कराया था. लेकिन सिर्फ 22000 यानी सिर्फ 0.3 फीसदी को ही रोजगार मिला.
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दलित वेलफेयर स्कीमों का बेड़ा गर्क

अब जरा दलितों के लिए मोदी सरकार की स्कीमों का जायजा लीजिये. दलितों को उद्योग शुरू के लिए स्टैंड अप योजना लाई गई थी. इसके तहत देश के सवा लाख बैंक शाखाओं को अनुसूचित जाति या जनजाति के कम से कम एक उद्यमी और इसके अलावा एक महिला उद्यमी को दस लाख से एक करोड़ रुपये का कर्ज देने की योजना है ताकि वह अपना रोजगार शुरू कर सके. लेकिन पिछले दिनों संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक 31 दिसंबर, 2017 तक इस योजना के तहत सिर्फ 6,589 दलितों और 1,988 आदिवासी उद्यमियों को ही कर्ज दिया गया था. देश में 1.39 लाख बैंक शाखाएं हैं. इसका मतलब यह कि सिर्फ 8,577 बैंक शाखाओं ने स्टैंड अप इंडिया स्कीम पर अमल किया और एक लाख तीस हजार से ज्यादा बैंक शाखाओं ने या तो इस योजना के तहत कर्ज ही नहीं दिया और फिर किसी ने उनसे यह मांगा ही नहीं.

क्या दलितों-आदिवासियों के आंदोलन से खफा लोगों को इस देश की 35 फीसदी आबादी पर हो रहे जुल्मों के बारे में पता है? 
दलितों के लिए चलाई जा रही स्कीमों का प्रदर्शन बेहद लचर है
फोटो ः क्विंट हिंदी 
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दलित स्टूडेंट्स को मिलने वाले वजीफे का मामला लीजिये. एससी-एसटी स्टूडेंट्स को मिलने वाला पोस्ट मैट्रिकुलेशन स्कॉलरशिप का 8600 करोड़ रुपये केंद्र पर बकाया है. इस मद में राज्यों को केंद्र से जो पैसा मिलने वाला था वह पूरा मिला ही नहीं है. सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने संसदीय की स्थायी समिति को बताया था कि दलित-आदिवासी स्टूडेंट्स को वजीफे के लिए उसने वित्त मंत्रालय से 11,027.5 करोड़ृ मांगे थे क्योंकि बकाये के भुगतान के लिए इतनी रकम जरूरी थी. लेकिन उसे सिर्फ 7,750 करोड़ रुपये ही मिले. क्या इन आंकड़ों में दलितों के दर्द और आक्रोश थामने की क्षमता है.

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