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झारखंड में हार: वोटरों को समझने में फिर फेल हुई बीजेपी

झारखंड के नतीजे को अक्टूबर में महाराष्ट्र और हरियाणा में मिले नतीजों से जोड़कर देखा जाएगा.

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जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत के अभिनव नारे को इजाद किया और पार्टी ने इसे चुनावी मंत्र बनाते हुए समूचे भारत में भगवे का विस्तार किया, तब से वे और उनके सहयोगी, खासकर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ‘कांग्रेस युक्त भारत’ के दोबारा उभरने के ‘कलंक’ का सामना कर रहे हैं.

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झारखंड के नतीजे को अक्टूबर में महाराष्ट्र और हरियाणा में मिले नतीजों से जोड़कर देखा जाएगा. स्पष्ट है कि ये नतीजे राजनीतिक रूप से जनता को सम्मोहित रखने की सीमा को रेखांकित करते हैं. हालांकि महज 14 लोकसभा सदस्यों को चुनने वाला झारखंड छोटा राज्य है, मगर मोदी और शाह ने व्यक्तिगत रूप से यहां चुनाव अभियान में खुद को झोंक रखा था.

दो राज्यों में मतदाताओं ने कड़वा सबक सिखाया था. फिर जब झारखंड में विधानसभा चुनाव आए तो आर्थिक और स्थानीय मुद्दों के बजाए उन्हें जोर-जबरदस्ती के राष्ट्रवादी ‘राष्ट्रीय’ मुद्दे से हांकने की कोशिश की गयी. मोदी ने बड़े पत्ते खेलने का कोई अवसर नहीं छोड़ा और वातावरण को जहरीला बनाया.

सांप्रदायिक कार्ड बनाम रोजमर्रा की चिन्ता

संथाल-परगना के बीचो-बीच दुमका में चुनाव प्रचार खत्म होने से पहले 16 दिसंबर को, जब सीएए-एनआरसी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन पूरे भारत में छेड़ा जा रहा था, प्रधानमंत्री ने हाल के दिनों का सबसे उकसावापूर्ण बयान दिया. हिंसा का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, “जो आग लगा रहे हैं टीवी पे उनके जो दृश्य आ रहे हैं, ये आग लगाने वाले कौन हैं, वो उनके कपड़ों से ही पता चल जाता है.”

इस विधानसभा क्षेत्र में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हेमंत सोरेन और बीजेपी की लुईस मरांडी के बीच मुकाबला था. वह आक्रामक भाषण देने वाली महिला नेता हैं, जिन्होंने सोरेन को 2014 में हराया था और उन्हें इसका पुरस्कार कैबिनेट मंत्री के तौर पर मिला था.

इस विधानसभा में भी मोदी के ध्रुवीकरण वाला भाषण उनके उम्मीदवार को जीत नहीं दिला सका, जो यह बताता है कि रोजमर्रा की चिंताओं पर बीजेपी का राष्ट्रवादी संदेश हमेशा नतीजे नहीं देगा.

यह भी साफ हो गया कि सांप्रदायिक निशानेबाजी की सियासत हमेशा और हर जगह काम नहीं करती. हर राज्य के लिए नीति अलग-अलग हुआ करती है.

इस राह पर चलने के फैसले में सम्भावित खतरे को महसूस नहीं किया गया. इससे पहले लिंचिंग के कई मामलों ने बीजेपी को नुकसान पहुंचाया था. इस तरह यह फैसला बताता है कि सबसे अधिक संख्या में बर्बर हत्याओं के कारण (देश में कुल 22) वोटर छिटक गये. ताजा घटना नवंबर के पहले हफ्ते में हुई थी. इससे साबित हुआ कि चाहे चुनाव हो या नहीं हो, झारखंड में कानून व्यवस्था की स्थिति बीजेपी के शासन में इस हद तक गिर गयी कि कानून को अपने हाथों में लेने की घटनाएं नये दौर में पहुंच गयी.

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कानून-व्यवस्था की अनदेखी की कीमत बीजेपी ने चुकायी

लोगों ने गंभीर असुरक्षा की स्थिति में जीने की विवशता का बदला बीजेपी से लिया. न सिर्फ राज्य सरकार ने बदतर कानून व्यवस्था से आंखें फेर ली, बल्कि लिंचिंग के अभियुक्तों को बीजेपी के जयन्त सिन्हा ने केंद्रीय मंत्री रहते हुए मालाएं पहनाईं. यहां तक कि हाल में बीजेपी सांसद निशिकान्त दुबे ने घोषणा की कि गोड्डा लिंचिंग मामले में चार अभियुक्तों के कानूनी खर्च वे खुद उठाएंगे. उन्होंने दावा किया कि घटना में पूरा गांव शामिल था, लेकिन केवल इन लोगों को ही चुना गया.

दूसरा मुद्दा, जिसने उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में असर दिखाया, उसे झारखंड ने ठुकरा दिया और वह था लोगों को देश विरोधी घोषित करना और उनके विरुद्ध राजद्रोह के मुकदमे ठोंकना.

आज की तारीख में सिर्फ एक जिला खूंटी में करीब 10 हजार लोग राजद्रोह के मुकदमे का सामना कर रहे हैं. इसके बावजूद यह सीट बीजेपी नहीं जीत सकी. पार्टी ने 28 आदिवासी बहुल विधानसभा सीटों पर 2014 में जैसा प्रदर्शन किया था, उसे दोहरा नहीं सकी.

राजनीतिक प्रभुत्व वाले समुदाय से अलग नेतृत्व को बढ़ावा देने का जो प्रयोग बीजेपी ने 2014 में तीन राज्यों- महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड- में किया था, वह भी असफल सिद्ध हुआ. महाराष्ट्र में पार्टी ने मराठा मुख्यमंत्री की परंपरा तोड़ते हुए एक ब्राह्मण देवेंद्र फडणनवीस को चुना. हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर जाट से न होकर खत्री समुदाय से थे. इसी तरह झारखंड में रघुवर दास पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री थे.

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आदिवासियों के बीच बीजेपी का आधार घटा

हालांकि झारखंड बनने के पीछे मूल कारण क्षेत्रीय विकास था, मगर इसे बिहार से काटकर अलग राज्य बनाने के आंदोलन का विजन आदिवासियों का सशक्तिकरण रहा था. हालांकि आधिकारिक रूप से राज्य में आदिवासी जनसंख्या गिरकर 26 फीसदी पहुंच गयी (कई लोग इसे 32 प्रतिशत बताते हैं, क्योंकि बड़ी संख्या में आदिवासियों के क्षेत्रीय प्रवास के कारण उनकी गिनती नहीं हो पाती है), फिर भी राज्य की सांस्कृतिक पहचान और इसका आदिवासी चरित्र बरकरार रहा.

1890 में अंग्रेजों के खिलाफ सशक्त बगावत का नेतृत्व करने वाले आदिवासी नेता बिरसा मुन्डा आज भी झारखंड में श्रद्धेय हैं और भगवान बिरसा के रूप मे जाने जाते हैं. राज्य के कई संस्थानों और सार्वजनिक भवनों के नाम उनके ही नाम पर हैं. हालांकि सन 1900 में 25 साल की उम्र में जेल में उनकी मृत्यु हो गयी, लेकिन जिस आंदोलन का उन्होंने नेतृत्व किया, उसका परिणाम छोटानागपुर टेनेन्सी एक्ट के रूप में 1908 में मिला, जिसमें छोटे किसानों की जमीन की रक्षा का प्रावधान सुनिश्चित किया गया.

आदिवासियों का कहना है कि दास सरकार ने 2016 में टेनेन्सी एक्ट में जो बदलाव किए, उसके बाद अथक परिश्रम से हासिल किए गये जमीन संबंधी अधिकार कम हो गये. निश्चित रूप से आदिवासियों के बीच बीजेपी का जनाधार खिसकने की यह वजह रही. यह वह समुदाय है जिनके बीच आरएसएस ने लगातार काम किया है.

फडणनवीस और खट्टर के तुरंत बाद दास के सत्ता से बाहर होने के बाद बीजेपी को अपने सामाजिक गठबंधनों पर न सिर्फ इन राज्यों में दोबारा काम करना होगा, बल्कि यह भी देखना होगा कि कहीं दूसरे राज्यों में भी ऐसी ही आशंका तो नहीं है. बीजेपी 2014 में दोहरे इंजन की ताकत वाली सरकार देने के वादे के साथ सत्ता में आयी थी, जिसका मतलब था कि राज्य और केंद्र में एक ही दल का शासन हो.

इसके अलावा गठबंधन सरकार में सहयोगी दलों की उछलकूद से अलग पूरे कार्यकाल तक एक स्थिर सरकार देने का संकल्प था. बीजेपी ने 2000 से 2014 के बीच की राजनीतिक अस्थिरता के दौर को सामने रखा, जिस दौरान 9 मुख्यमंत्री हुए और तीन बार राष्ट्रपति शासन लगे.

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सहयोगियों से बीजेपी के संबंध

यह फैसला महाराष्ट्र की तरह बताता है कि लोगों की इच्छा एक बार फिर गठबंधन सरकार के प्रयोग दोहराने की रही. यह संदेश बीजेपी के लिए खतरे की घंटी है, क्योंकि यह पार्टी बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है.

नतीजे इस बात को भी उजागर करते हैं कि सहयोगी दलों के साथ काम करने में बीजेपी विफल रही और समांतर रूप से बड़ा भाई बनने की कोशिश का संदेश दिया. एक राज्य के बाद दूसरे राज्य में सहयोगी दलों के साथ बीजेपी का गठबंधन कमजोर होता गया, क्योंकि सहयोगियों को अपने वोट बैंक के निगल लिए जाने का खतरा था.

ऑल झारखंड स्टूडेन्ट्स यूनियन के साथ भी ऐसा ही हुआ जो 2014 में तो सहयोगी था, लेकिन सीटों के बंटवारे पर असहमति के बाद उसने राह बदल ली. अगर दोनों साथ रहते तो नतीजे कुछ और होते.

दोनों के साझा वोट शेयर 41.6 फीसदी है जो जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी के साझा वोट शेयर 35.5 से बहुत अधिक है. यहां तक कि अपने दम पर भी बीजेपी ने 2014 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले अपना वोट शेयर बढ़ाया है. हालांकि यह 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना में काफी कम हो गया.

सीएए-एनआरसी को लेकर प्रदर्शनों समेत दूसरी घटनाओं के संदर्भ में हालांकि झारखंड में पराजय बीजेपी के लिए बड़ा धक्का है, लेकिन इसे बीजेपी की राजनीति को राष्ट्रीय स्तर पर खारिज कर दिए जाने के तौर पर देखना गलत होगा.

फिर भी यह सच है कि इससे आगे एक राज्य के बाद दूसरे राज्य विपक्ष को सौंपते चले जाने की स्थिति के बीच भी बीजेपी के पास लंबा समय है. झारखंड का जनादेश निश्चित रूप से बीजेपी विरोधियों को दिल्ली और बिहार में एकजुट करेगा जहां 2020 में चुनाव होने जा रहे हैं. यह बीजेपी को विवश करेगा कि वह सहयोगियों के सामंजस्य बिठाए और अपने वैचारिक आधार को आगे बढ़ाने पर जोर न दे.

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