दिल्ली के ओल्ड राजेंद्र नगर के एक कोचिंग के बेसमेंट में तीन UPSC एस्पिरेंट्स की दुखद मौतों पर छात्रों का प्रदर्शन जारी है. ऐसे में मामले की पुलिस जांच में एक ऐसे आरोपी की गिरफ्तारी हुई है जो असमान्य है और जिसका अंदाजा किसी ने नहीं लगाया होगा.
पुलिस ने उस SUV को ड्राइव कर रहे मनुज कथूरिया को गिरफ्तार कर लिया है, जो घटना से कुछ घंटे पहले पानी भरी सड़क से गुजर रही थी. पुलिस का कहना है कि गाड़ी के गुजरने की वजह से पैदा हुई "लहरों" ने स्पष्ट रूप से उस कोचिंग संस्थान के गेट को तोड़ दिया जहां छात्र डूब गए. बेशक, दिल्ली पुलिस ने यह आरोप नहीं लगाया है कि वह मौतों के लिए पूरी तरह जिम्मेदार था, लेकिन यह कुछ हद तक हैरान करने वाला है कि इस त्रासदी के लिए दोषियों को खोजते-खोजते दिल्ली पुलिस इतनी दूर तक जाएगी.
आखिर पुलिस ने ऐसा क्यों किया? इसका एक संभावित जवाब हो सकता है लोगों, खासकर छात्रों में मौजूद नाराजगी. यानी इस तरह की एक बड़ी घटना के बाद जनता के दबाव के कारण भारत की पुलिस अपने जवाब में ओवररिएक्ट कर रही है.
पुलिस का यह ओवररिएक्शन किसी मामले के आरोपियों के घरों पर बुलडोजर चलाने से लेकर फर्जी एनकाउंटर्स में पूरी तरह से निर्दोष व्यक्तियों को टारगेट करके मारने तक में दिखता है. इस तरह की असंगत कार्रवाइयों के शिकार आमतौर पर भारत के वंचित समुदाय - मुस्लिम, दलित और आदिवासी होते हैं. दुर्लभ मामलों में ही, जैसे कि दिल्ली में तीन छात्रों की डूबने से मौत, या हाल ही में पुणे हिट-एंड-रन मामले में, पुलिस अधिक विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्तियों के खिलाफ भी ऐसी कार्रवाई करती है.
मनोज कथूरिया भी शायद उस दुर्लभ विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्तियों में शामिल हैं जो पुलिस के ओवररिएक्शन का खामियाजा भुगत रहे हैं.
जनता के दबाव के जवाब में पुलिस की ओर से ऐसी असंगत प्रतिक्रिया चिंताजनक है. ऐसा नहीं है कि इस तरह की प्रतिक्रियाएं किसी एक अफसर द्वारा आपा खोकर अचानक उठाया गया कोई कदम है. यदि ऐसा होता, तो इससे उनकी ट्रेनिंग और अनुशासन पर सवाल उठते, और साथ ही इससे निपटना अपेक्षाकृत आसान होता. लेकिन असल में इस प्रकार की असंगत प्रतिक्रियाएं, यह संकेत दे रही हैं कि पुलिस-प्रशासन की ऐसी कार्रवाइयों को संस्थागत स्वीकृति मिली हुई है.
ये ऐसी कार्रवाइयां हैं जो वैधता के केवल हल्के से पर्दे में लिपटी होती हैं. कानून का उल्लंघन करके बनाई गई इमारतों को गिराने की अनुमति खुद कानून देता है, लेकिन ऐसी अवैध रूप से बनाई गई इमारतों को हटाने की एक प्रक्रिया है. लेकिन इस प्रक्रिया का बहुत कम पालन किया जाता है. जवाब मांगने पर कहा जाता है कि बुलडोजर तो नगर निकाय ने चलाया है.
यह इसे कानूनी रूप से उचित ठहराने के बजाय, यह केवल नगर निगम के अधिकारियों को पुलिस की असंगत कार्रवाइयों में फंसाता है. मकानों को बनाने में अवैधता, जैसा कि इन मामलों में होता है, आम तौर पर स्पष्ट रूप से मौजूद होती है. लेकिन कुछ लोगों के अपराध में शामिल होने का आरोप लगने के तुरंत बाद ही उनके मकानों पर बुलडोजर चलता है.
दूसरी ओर, पुलिस द्वारा टारगेट करके की गई हत्याओं के लिए और भी कम कानूनी औचित्य या जस्टिफिकेशन पेश किया गया है. हैदराबाद में बलात्कार और हत्या के चार "आरोपियों" की हत्याओं को "आत्मरक्षा/सेल्फ डिफेंस" के नाम पर उचित ठहराया गया था. जस्टिस वीएस सिरपुरकर आयोग ने तमाम सबूतों पर गौर करने के बाद एक विस्तृत रिपोर्ट में इस जस्टिफिकेशन की धज्जियां उड़ा दी और कहा कि इसमें शामिल पुलिस पर हत्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए. फिर भी, आयोग के निष्कर्ष पर पहुंचने के दो साल बाद भी इसमें शामिल किसी भी पुलिस के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है.
हम इस स्थिति को कैसे समझें, जहां हमारे देश की पुलिस को जनता के दबाव में कानूनी रूप से असुरक्षित और असंगत कदम उठाने की जरूरत महसूस होती है?
इसका एक जवाब संभवतः हमें जिनी लोकनीता की किताब, द ट्रुथ मशीन्स: पुलिसिंग, वायलेंस, एंड साइंटिफिक इंटेरोगेशन्स इन इंडिया से मिलता है. इसमें, लोकनीता पुलिस द्वारा जांच में लाइ डिडेक्टर, ट्रुथ सीरम और नार्को ऐनालिसिस जैसे वैज्ञानिक और तकनीकी तरीकों के बढ़ते उपयोग के पीछे की प्रेरणाओं को समझाने की कोशिश करती हैं. भारतीय पुलिस ऐतिहासिक रूप से अपराध को स्वीकार कराने के लिए (जिसमें कुछ रिजल्ट भी मिलते हैं) कस्टडी में टार्चर देने के लिए जानी जाती है. लेकिन लोकनीता की किताब में यह सवाल उठाया गया है कि भारत की पुलिस ने 21वीं सदी के पहले दशक में अपना रवैया बदलने का फैसला क्यों किया.
कोई राज्य किस प्रकार हिंसा का उपयोग करता है, इसके मौजूदा मॉडल यूरोपीय दार्शनिकों (वेबर के नौकरशाही राज्य या अगम्बेन के अपवाद की स्थिति) से आते हैं. लेकिन ये हमेशा भारतीय वास्तविकता को नहीं बताते. लोकनीता भारतीय राज्य के बारे में कैसे सोचा जाए इसका एक विकल्प प्रस्तुत करती हैं. वह भारत को "कंटिजेंट स्टेट या contingent state" कहती हैं- जिसे समाज के बीच जाना होता है और रोजमर्रा के आधार पर लोगों की मंजूरी लेनी होती है.
जब भारत के राज्य को लगता है कि वह एक शानदार तरीके से विफल हो गया है, तो वह वैध उपाय के साथ प्रतिक्रिया नहीं करता है (जैसा कि वेबर तर्क देते हैं कि उसे करना चाहिए) और न ही वो कानून से एकदम परे जाकर जो कुछ भी करना हो वह करता है (जैसा कि अगमबेन का तर्क होगा कि यह हो सकता है).
बल्कि, यह ऐसा दंड देता है जो केवल हल्का सा न्यायसंगत कदम है. लेकिन यह वास्तविक अपराध के अनुपात में मिलने वाली सजा से कहीं अधिक है. इसके पीछे का मकसद है कि इसे लोगों को यह विश्वास दिलाना है कि यह अभी भी काम कर रहा है और उसके पास इसका अधिकार है.
एक तरफ तो ओल्ड राजेंद्र नगर जैसी त्रासदियों पर जनता का आक्रोश उचित है, लेकिन इसके जरिए राज्य को कार्रवाई के लिए प्रेरित करने का हमेशा वह प्रभाव नहीं होगा जो हम चाहते हैं. राज्य इस तरह के आक्रोश पर रिएक्ट करता है और ओवररिएक्ट करता है, स्थिति को सुधारने के लिए नहीं बल्कि आपको यह याद दिलाने के लिए कि यह अस्तित्व में है और बिना किसी परिणाम के हिंसा का उपयोग कर सकता है.
अदालतें भी इसमें उतनी ही सहभागी हैं क्योंकि वे खुद को उसी कंटिजेंट स्टेट का हिस्सा मानती हैं.
जैसे कि पुरानी कहावत चल रही है- इस बात को लेकर भी सावधान रहें कि आप क्या मन्नत मांग रहे हैं.
(आलोक प्रसन्न कुमार बेंगलुरु में विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में सीनियर रेजिडेंट फेलो हैं. वह न्यायिक जवाबदेही और सुधार अभियान की कार्यकारी समिति के सदस्य भी हैं. यह एक ओपिनियन पीस है, और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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