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क्या मुसलमानों की थोड़ी सी तरक्की है देश में दंगों की एक वजह?

बड़ा सवाल ये है कि समुदायों के बीच लगातार दिलों की दूरियां क्यों बढ़ रही हैं?

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दिल्ली में हादसा कैसे शुरू हुआ और किसने इसे हवा दी, इसपर बहस जारी रहेगी. कौन समुदाय ज्यादा दोषी है, इसपर भी अलग-अलग दावे होते रहेंगे. भड़काऊ भाषणों की क्या भूमिका रही, इसका भी कभी नहीं खत्म होने वाला विश्लेषण चलता रहेगा. लेकिन इन सबसे बड़ा सवाल ये है कि समुदायों के बीच लगातार दिलों की दूरियां क्यों बढ़ रही हैं? वोट के लिए लोगों को बांटने की कोशिश तो कुछ नेता करते ही रहते हैं. लेकिन लोग क्यों और कैसे इस जाल में फंसकर जान देने और जान लेने के गंदे खेल में शामिल होते हैं?

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ताजा रिसर्च के मुताबिक, तुलनात्मक रूप से मुस्लिम समुदाय में बढ़ती आर्थिक खुशहाली दिलों के बीच बढ़ती दूरियों की एक वजह बनती जा रही है. ध्यान रहे कि लगभग सारे आर्थिक इंडिकेटर्स के हिसाब से देश का मुस्लिम समुदाय दूसरे वर्गों के मुकाबले काफी पिछड़ा रहा है. लेकिन उस पिछड़े स्तर से हाल के दिनों में थोड़ी तरक्की दिख रही है.

अलग-अलग रिसर्च में दंगों की कई वजह बताई गई हैं- धर्म के नाम पर समुदायों के बीच नफरत का घर कर जाना, समुदायों के बीच बिजनेस कॉम्पिटिशन का हिंसक रूप ले लेना और प्रॉपर्टी हथियाने की लालच. लेकिन 2014 में यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो प्रेस में छपे एक रिसर्च ने दंगों को समझने की एक नई थ्योरी दी है. इसके मुताबिक, हिंदुओं की खुशहाली बढ़ने से दंगों की संख्या में कमी आती है, लेकिन इसके ठीक उलट अगर मुस्लिम समुदाय में तुलनात्मक रूप से तरक्की होती दिखती है तो समुदायों के बीच हिंसक मामले बढ़ जाते हैं.

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एक समुदाय में तरक्की से दूसरे में जलन

1950 से 2000 के बीच दंगों के आंकड़ों के विश्लेषण के बाद स्कॉलर्स का कहना है कि हिंदुओं के प्रति व्यक्ति खर्च में 1 परसेंट की बढ़ोतरी का मतलब है कि दंगों में होने वाले जान के नुकसान में 3 से 7 परसेंट की कमी आती है. वहीं मुस्लिम के प्रति व्यक्ति खर्च में 1 परसेंट की बढ़ोतरी का मतलब है कि दंगों में होने वाले नुकसान में 3 से 5 परसेंट का इजाफा. उसी रिसर्च में एक आंकड़ा दिया हुआ है, जिसके अनुसार दंगों में जान माल का नुकसान मुसलमानों का ज्यादा होता है. प्रति व्यक्ति खर्च में बढ़ोतरी यह बताता है कि उस वर्ग के लोगों की कमाई बढ़ रही है. तभी तो खर्च भी बढ़ते हैं.

तो क्या हाल के दिनों में दिलों की दूरियां बढ़ने की यही वजह है? क्या तुलनात्मक रूप से मुसलमानों के आर्थिक हालात में मामूली बेहतरी की वजह से दूसरे समुदाय के लोगों में गुस्सा है?

NSSO के डेटा के आधार पर दो सोशल साइंटिस्ट- संध्या कृष्णन और नीरज हटेकर- के रिसर्च के अनुसार 2000 से 2012 के बीच मुसलमानों की मिडिल क्लास में एंट्री ज्यादा तेजी से हुई है. उनके अनुसार जो प्रति व्यक्ति प्रति दिन 130 से 650 रुपया खर्च करते हैं वो न्यू मिड्ल क्लास का हिस्सा हैं. उनके कैलकुलेशन के हिसाब से जहां इस दौरान न्यू मुस्लिम मिड्ल क्लास की संख्या में 86 परसेंट की बढ़ोतरी हुई, वहीं हिंदुओं के मामले में ये ग्रोथ 76 परसेंट का है. संभ्रांत जातियों (SC/ST/OBCs के अलावे दूसरे वर्ग) के मामले में तो ये ग्रोथ महज 45 परसेंट का रहा है. ये आंकड़ा भी यही बताता है कि इस सदी के पहले दस साल में दूसरे समुदायों के मुकाबले मुसलमानों की हालत देश में थोड़ी बेहतर हुई है.

हिंदुओं के खास तबके में गुस्से की वजह क्या यही है? क्या उन्हें लगता है कि तरक्की में वो लगातार पिछड़ रहे हैं और इसके लिए मुसलमानों को जिम्मेदार मानते हैं? तनावग्रस्त इलाकों में आप लोगों से बात करेंगे तो आपको भी लगेगा कि दिलों की दूरियों की शायद ये बड़ी वजह है.
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दंगों का राजनीति पर असर

दंगों से नुकसान सबका होता है. राज्य सरकारों, जिसपर कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी होती है, की आलोचना होती है, पुलिसिंग पर सवाल उठते हैं, नेताओं की साख गिरती है, निवेश का माहौल खराब होता है और अर्थव्यवस्था को नुकसान होता है.

लेकिन देश की राजनीति पर इसका क्या असर होता है? येल यूनिवर्सिटी की एक रिसर्च में इसका जवाब खोजने की कोशिश की गई है. इसमें कहा गया है कि विधानसभा चुनाव से एक साल पहले किसी जिले में दंगा की सूरत में उस जिले में कांग्रेस के वोट शेयर में औसतन 1.3 परसेंटेंज प्वाइंट्स की गिरावट होती है जबकि बीजेपी के वोट शेयर में अनुमानित 0.8 परसेंटेज प्वाइंट्स की बढ़ोतरी होती है. इस पेपर में कहा गया है कि ध्रुवीकरण के माहौल में उन पार्टियों को नुकसान होता है जिनका वोटर बेस अलग-अलग समुदायों में फैला होता है. लेकिन इससे उन पार्टियों को फायदा होता है जो किसी खास समुदाय के हितों की बात करती दिखती हैं.

इन रिसर्चों से हमें सबक लेने की जरूरत है. सबसे बड़ा सबक ये है कि तरक्की की रफ्तार, और ऐसी तरक्की जिसमें सबकी भागीदारी बढ़े, बढ़ने से दिलों की दूरियां अपने आप कम हो जाती है.

क्या हमें सरकारों पर इसके लिए दवाब नहीं बढ़ाना चाहिए की ग्रोथ को रफ्तार दे? ऐसा होता है तो दिल्ली जैसी घटनाओं को हम रोक पाएंगे.

हमें ध्यान रखना चाहिए कि दंगे का वायरस कोरोना वायरस से भी ज्यादा खतरनाक है और इसको रोकने की हर संभव कोशिश होनी चाहिए

(मयंक मिश्रा वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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