क्या गुजरात में कॉलेजों और सरकारी नौकरियों में पाटीदार समुदाय के लोगों को संवैधानिक तौर पर आरक्षण दिया जा सकता है? चुनाव प्रचार के पीक पर पहुंचने के साथ हर किसी के मन में यही सवाल है.
पाटीदारों के आरक्षण आंदोलन से राज्य की सत्ताधारी बीजेपी सरकार के निपटने के तरीके को लेकर समुदाय में नाराजगी है. हालांकि सिर्फ इतने से कांग्रेस को पूरे पटेल समुदाय का वोट नहीं मिलने वाला. कांग्रेस को यह दिखाना होगा कि गुजरात में पाटीदारों को आरक्षण देने का संवैधानिक रास्ता क्या होगा.
अधिकतम आरक्षण की बंदिश
अब तक पटेलों को गुजरात में आरक्षण देने की कोशिशें असफल रही हैं. उनका वही हश्र हुआ, जो हरियाणा और राजस्थान में जाट समुदाय का हो चुका है. अदालतों ने आरक्षण के 50 पर्सेंट की अधिकतम सीमा की दुहाई देते हुए ऐसी पहल खारिज कर दी. यह ऐसी बाधा नहीं है, जिसे पार नहीं किया जा सकता. अब तक सरकारों ने इस पर अच्छी तरह से होमवर्क नहीं किया है. हालांकि पटेलों को आरक्षण दिलाने के लिए एक बड़ी संवैधानिक बाधा को पार करना होगा.
आरक्षण की 50 पर्सेंट की अधिकतम सीमा का कोई संवैधानिक आधार नहीं है. यह सीमा न्यायपालिका ने तय की है. इस फैसले के तार एमआर बालाजी बनाम मैसूर और टी देवदासन बनाम केंद्र सरकार जैसे मामलों से जुड़े हुए हैं.
उसके बाद इंद्र साहनी बनाम केंद्र मामले में इस पर 9 जजों की बेंच ने मुहर लगा दी. इसके बावजूद यह ऐसी बाधा नहीं है, जिसे पार नहीं किया जा सकता. 50 पर्सेंट से अधिक आरक्षण चुनिंदा मामलों में दिया जा सकता है, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने इंद्र साहनी मामले में माना भी था.
हालांकि ये चुनिंदा मामले कौन से हो सकते हैं, इसे कभी स्पष्ट नहीं किया गया. इसके बावजूद तमिलनाडु में आरक्षण 50 पर्सेंट से अधिक है.
वहां के आरक्षण कानून के मुताबिक, 69 पर्सेंट सीटों और पदों को एससी, एसटी और पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित रखा गया है. नरसिंह राव सरकार ने इस कानून को 9वें शेड्यूल में रखा था, ताकि संविधान की धारा 14 और 19 के मुकाबिल इसे न्यायपालिका की दखलंदाजी से बचाया जा सके.
सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि अगर 9वें शेड्यूल से संविधान का उल्लंघन होता है, तो वह दखल दे सकता है. हालांकि अभी तक इस बारे में फैसला नहीं हुआ है और इसका पटेलों के लिए आरक्षण के 50 पर्सेंट से अधिक होने पर असर पड़ सकता है.
नतीजा चाहे जो भी निकले, लेकिन पटेलों के आरक्षण के लिए इस रास्ते का इस्तेमाल किया जा सकता है.
क्या संवैधानिक तौर पर पटेल आरक्षण के हकदार हैं?
क्या पटेल आरक्षण के हकदार हैं? आरक्षण समानता के अधिकार को हासिल करने और उसे बढ़ावा देने के लिए दिया जाता है. शिक्षा संस्थानों में आरक्षण आर्टिकल 15 के क्लॉज (4) के तहत दिया जाता है, जबकि सरकारी नौकरियों में रिजर्वेशन आर्टिकल 16 के क्लॉज (4) के तहत. दोनों की भाषा अलग है, लेकिन कॉलेजों में आरक्षण के लिए सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन और सरकारी नौकरियों में कम प्रतिनिधित्व को पैमाना माना गया है.
एससी और एसटी को संवैधानिक तौर पर ‘बैकवार्ड’ माना जाता है, लेकिन दूसरे समुदाय और वर्गों को पहले यह साबित करना होगा कि वे इन पैमानों पर पिछड़े हैं, तभी वे आरक्षण के हकदार होंगे.
केसी वसंत कुमार बनाम कर्नाटक मामले में जस्टिस ओ चिनप्पा रेड्डी ने कहा था, ‘एससी, एसटी और दूसरे सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े वर्ग को समाज में लंबा सफर तय करना है. उन्हें इसके लिए मदद की जरूरत है. उनकी जरूरत ही उनकी मांग है. यह मांग उनका हक है, न कि चैरिटी की. वे बराबरी की मांग कर रहे हैं, न कि परोपकार की.
आर्थिक पिछड़ापन अकेला पैमाना नहीं
सिर्फ आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण का दावा नहीं किया जा सकता. यह साबित करना होगा कि जाति के सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन की वजह से वह आर्थिक तौर पर भी पिछड़ा हुआ है. सुप्रीम कोर्ट ने इंद्र साहनी मामले में यह बात स्पष्ट की थी. हालांकि, यह उसका सुझाव था, निर्देश नहीं. 50 पर्सेंट की लिमिट का जहां कोई संवैधानिक आधार नहीं है, वहीं आरक्षण के लिए सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन को संवैधानिक आधार मिला हुआ है.
पाटीदार सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े हुए नहीं हैं
पाटीदारों को कभी एक जाति के तौर पर भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा. वह दबंग जाति रही है. उसका रुतबा ब्राह्मणों से कम नहीं है. गुजरात विधानसभा में पटेलों का अच्छा प्रतिनिधित्व है. इस बार भी जितनी बड़ी संख्या में समुदाय के लोगों को टिकट मिला है, उससे बड़ी संख्या में पटेल विधायकों का चुना जाना तय है. इसलिए पटेलों के पास आरक्षण का दावा करने का आधार नहीं है. अगर उन्हें आरक्षण दिया जाता है, तो वह कोर्ट में उसका आधार साबित करना मुश्किल होगा.
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