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क्या वित्तमंत्री ने मान लिया- बैंकों को डराती है CBI, CVC, CAG? 

साफ है कि निर्मला सीतारमण बैंकिंग सेक्टर की अन्दर की बातों से वाकिफ थीं.

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भारत के संवैधानिक, कानूनी और सरकारी ढांचे को जानने-समझने वाले लोग वैसे तो कहते ही हैं कि CBI, CVC और CAG जैसी शीर्ष संस्थाएं केन्द्र सरकार के इशारे पर ही काम करती हैं. इनकी निष्पक्षता और स्वायत्तता ‘हाथी के दिखाने वाले दांतों’ की तरह ही रही हैं. इसलिए भी इन्हें केन्द्र सरकार के ‘दबंग सरकारी लठैतों’ की तरह देखा जाता रहा है. सरकारी दबंगों की इस बिरादरी में ही पुलिस के अलावा आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय (IT & ED) का नाम भी शुमार रहा है. लेकिन अब कोरोना पैकेज के बहाने खुद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने CBI, CVC और CAG को लेकर लगाए जाने वाले तमाम आरोप और तथ्यों की परोक्ष रूप से पुष्टि कर दी है.

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दरअसल, बीजेपी के प्रवक्ता नलिन कोहली को 23 मई को दिए एक ऑनलाइन वीडियो इंटरव्यू में वित्त मंत्री ने बताया कि बैंकों को ये निर्देश दिया गया है कि ‘वो तीनों Cs यानी CBI, CVC और CAG से बेखौफ होकर ‘योग्य ग्राहकों’ को स्वचालित ढंग से कर्ज बांटते जाएं.’ सीतारमण ने बताया कि उन्होंने 22 मई को सरकारी बैंकों और वित्तीय संस्थानों के CEOsऔर MDs को स्पष्ट निर्देश दिये हैं कि कोरोना पैकेज में जिन सेक्टरों के लिए सरकार ने 100 फीसदी की गारंटी दी है, उसे लेकर बैंकों को किसी से डरने की जरूरत नहीं है. बीजेपी ने इस इंटरव्यू को पार्टी के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर शेयर किया है.

वित्तमंत्री ने बैंकों में बैठे डर को खत्म करने के बाबत साफ किया कि ‘अगर लोन देने का फैसला आगे चलकर गलत साबित हुआ और इससे बैंकों को नुकसान हुआ, तो इस नुकसान की भरपाई सरकार करेगी. किसी भी बैंक अधिकारी को दोषी नहीं ठहराया जाएगा. इसीलिए वो निडर होकर योग्य ग्राहकों को ‘अतिरिक्त टर्म लोन या अतिरिक्त वर्किंग कैपिटल लोन’ जिसके लिए भी वो सुपात्र हों, उन्हें लोन देते जाए.’

दरअसल, प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री ने जैसे उत्साह से ‘आओ कर्ज लो’ की ‘थीम’ पर आधारित कोरोना पैकेज का ऐलान किया था, वैसा उत्साह जब ग्राहकों में ही नहीं उमड़ रहा है तो बैंकों में कहां से नजर आएगा? 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज में लघु, छोटे और मझोले उद्यमियों (MSME) के लिए 3 लाख करोड़ रुपये की इमरजेंसी क्रेडिट लाइन गारंटी स्कीम (ECLGS) शामिल है.

CBI, CVC, CAG का खौफ सताता है!

वित्तमंत्री जानती हैं कि बैंक अधिकारी ‘तेजी से सही फैसले’ इसलिए नहीं ले पाते क्योंकि उन्हें केन्द्रीय जांच ब्यूरो (CBI), केन्द्रीय सतर्कता आयोग (CVC) और भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) का खौफ सताता रहता है कि जरा सी चूक हुई नहीं कि ये तीनों संस्थाएं उन्हें धर दबोचेंगी. यहां सोचने वाली बात तो ये भी है कि बैंकों के अफसरों का डर नाहक तो नहीं हो सकता. आखिर, वो भी तो दिन-रात इन तीनों संस्थाओं का रवैया और तेवर देखते ही रहे होंगे.

बैंक के अफसरों की भी कुछ आपबीती होगी, कुछ निजी तज़ुर्बा जरूर रहा होगा. वरना, ‘पक्की’ नौकरी कर रहे बैंकों के अफसर लोन बांटने से भला क्यों डरते? वो इतने नादान भी नहीं हो सकते कि रस्सी को सांप समझ लें. लोन बांटना उनका पेशेवर काम है. कर्तव्य है. इसे वो सालों-साल से करते आये हैं. इसके बावजूद यदि उनमें कोई डर समा गया है तो फिर इसकी कोई न कोई ठोस वजह जरूर होगी.

साफ है कि निर्मला सीतारमण बैंकिंग सेक्टर की अन्दर की बातों से वाकिफ थीं. तभी तो उन्होंने सफाई दी कि वित्त मंत्रालय ने अपनी कई ऐसी अधिसूचनाओं को वापस ले लिया है जिसकी वजह से बैंक अधिकारियों में CBI, CVC और CAG का डर बैठ गया था.

साफ है कि बैंक के अफसरों का डर पूरी तरह से वाजिब था. वर्ना, सरकार अपनी ही अधिसूचनाओं को वापस क्यों लेती? अपने कदम पीछे क्यों खींचती? मजे की बात ये है कि बीते 7-8 महीने के दौरान भयभीत बैंक अफसरों को खुद वितमंत्री तीन बार कह चुकी हैं कि उन्हें ‘3-Cs’ से नहीं डरना चाहिए.

अब जरा सोचिए कि अगर वस्तुस्थिति वाकई डरने लायक नहीं होती तो क्या बैंक अफसरों के मन से CBI, CVC और CAG का डर निकल नहीं गया होता? यदि वित्तमंत्री ही अपने बैंक अफसरों के मन से डरावने खयाल नहीं निकाल पा रहीं तो समस्या कितनी गम्भीर होगी. दरअसल, ECLGS पैकेज का सीधा सा नजरिया है कि ‘यदि किसी कम्पनी ने बैंक से एक निश्चित सीमा तक लोन लिया है, या उसमें एक निश्चित सीमा तक निवेश हुआ है, या उसका एक निश्चित टर्नओवर है, और यदि वो लॉकडाउन से बने हालात के बाद अपने कारोबार को फिर से चालू करने के लिए अतिरिक्त टर्म लोन या वर्किंग कैपिटल ले सकते हैं.’

वित्त मंत्री की नीति का दूसरा पक्ष

वित्त मंत्रालय की इस नीति और इससे जुड़े ऐलान का एक स्याह पक्ष ये भी है कि बैंकों के कर्जों पर वसूला जाने वाला ब्याज दर कतई रियायती नहीं है. चरामरा चुकी अर्थव्यवस्था में जब आमदनी औंधे मुंह गिरी पड़ी हो तब ऊंची ब्याज दरों पर बैंकों से पैसा उठाना और फिर इसकी किस्तें भरना आसान नहीं है. फिर भी वित्तमंत्री को उम्मीद है कि ‘पहली जून से बिना किसी कोलैटरल (यानी गिरवी या गारंटी) वाली नगदी का बैंकों से प्रवाह शुरू हो जाएगा.’ कर्ज के प्रवाह की रफ्तार का जल्द ही पता चल जाएगा कि वास्तव में जमीनी स्तर पर बैंकों के अफसर कितना निडर हो पाये.

दरअसल, CBI, CVC और CAG से भी बढ़कर बैंकों को अपने नये NPA (डूबा कर्ज) की चिन्ता खाये जा रही है. सरकार सिर्फ मौजूदा पैकेज वाले फंड को लेकर ही तो गारंटी दे रही है. जबकि बैंक तो अपने ही पुराने कर्जों को लेकर मातम मना रहे हैं. इसकी सीधी सी वजह है कि NPA के बढ़ने से बैंकों की साख गिरती है. बैंकों के सरकारी होने के नाते सरकारें आम जनता के टैक्स के पैसों से बैंकों के नुकसान की भरपाई देर-सबेर भले ही कर दे. लेकिन बैंकों को अपनी साख सुधारने में बहुत वक्त लगता है.

19 लाख करोड़ तो सिर्फ कर्ज की योजना

इसी प्रसंग में ये समझना जरूरी है कि 21 लाख करोड़ रुपये के कोरोना पैकेज में 19 लाख करोड़ रुपये की ऐसी पेशकश हैं जिन्हें कर्ज की योजनाएं ही कहा जाएगा. अभी सरकार ने सिर्फ कर्ज के लिए फंड बनाये हैं. इन्हें आकर्षक बनाने के लिए ब्याज दरों में कोई रियायत नहीं दी गयी है. इसीलिए, उद्यमियों की ओर से कर्ज लेकर अर्थव्यवस्था में नयी जान फूंकने की कोशिशों में ढीलापन नजर आ रहा है. लॉकडाउन अब भी जारी है. मजदूर पलायन कर रहे हैं. मांग-पक्ष बेहद कमजोर है. हरेक तबके की आमदनी में भारी गिरावट आयी है. नौकरियों में हुई छंटनी और बेहिसाब बेरोजगारी ‘कोढ़ में खाज का काम’ कर रही है.

इन सभी परिस्थितियों के बीच बहुत गहरा आन्तरिक सम्बन्ध है. इसीलिए कर्ज लेकर अपनी गाड़ी को पटरी पर लाने वाली मनोदशा कमजोर पड़ी हुई है. इसीलिए भले ही बैंक निडर होकर कर्ज बांटने की तैयारी करने लगें, लेकिन मंदी के दौर में कर्जदार भी कहां मिलते हैं? कोरोना से पहले भी बैंकों को कर्जदारों की तलाश कोई कम नहीं थी. दरअसल, कर्ज लेकर उसे चुकाने वाली कमाई भी तभी हो पाती है जबकि अर्थव्यवस्था की विकास दर ऊंची हो. मांग में तेजी हो.

लेकिन अभी ऊंची और तेजी तो बहुत दूर की कौड़ी है. अभी तो ये सफाचट है. अर्थव्यवस्था डूब रही है. इसीलिए, निर्मला सीतारमन के सपनों के साकार होने में भारी सन्देह है.

(ये आर्टिकल सीनियर जर्नलिस्ट मुकेश कुमार सिंह ने लिखा है. आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)

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