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चुनावी बॉन्ड का डेटा दिखा रहा स्थिति कितनी खराब, क्या भारत का लोकतंत्र बिकाऊ है?

Electoral Bond Data: इलेक्टोरल बॉन्ड पर यदि सभी डेटा सार्वजनिक किए जाते तो 'वैध भ्रष्टाचार' के पैमाने का व्यापक सबूत मिलता?

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सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार भारतीय चुनाव आयोग (ECI) ने साल 2019 से खरीदे और भुनाए गए चुनावी बॉन्ड के आंकड़े (Electoral Bond Data) अपनी वेबसाइट पर अपलोड कर दिए हैं. ये आंकड़े उसे भारतीय स्टेट बैंक (SBI) ने उपलब्ध कराए थे. चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट की ओर से दी गई डेडलाइन से एक दिन पहले ही गुरुवार, 14 मार्च को ये आंकड़े सार्वजनिक किए हैं.

चुनाव आयोग ने आंकड़ों के दो सेट अपलोड किए हैं. पहली 337 पेज की लिस्ट कंपनियों की है कि उन्होंने कब कितने का बॉन्ड खरीदा. दूसरी 426 पेज की लिस्ट राजनीतिक दलों की है कि उन्होंने कब-कब कितने का बॉन्ड भुनाया. (दोनों लिस्ट देखने के लिए यहां क्लिक करें).

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यहां यह हाईलाइट करना उचित होगा कि जारी किया गया डेटा अप्रैल 2019 से लेकर जनवरी 2024 तक का है. मार्च 2018 से मार्च 2019 तक का डेटा गायब है जबकि इस बीच चुनावी बॉन्ड की बिक्री 2500 करोड़ रुपये से अधिक थी. इस बीच चंदा किसने दिया और चंदा किसको मिला? और यह डेटा सार्वजनिक रूप से गायब क्यों है? इस पर तत्काल स्पष्टीकरण की आवश्यकता है.

इसके अलावा, अधिकांश इंवेस्टिगेटर अब इस बात पर बहस कर रहे हैं कि भारतीय स्टेट बैंक ने हर चुनावी बॉन्ड के साथ जो यूनिक कोड था, वो शेयर नहीं किया है. इस आइडेंटिफिकेशन नंबर को अक्सर "मिलान/ मैचिंग कोड" के रूप में जाना जाता है. यह मैचिंग कोड बता सकता है कि किसी बॉन्ड को किसने खरीदा (प्राइवेट कंपनी) और किसने (राजनीतिक पार्टी) उस बॉन्ड को भुनाया. सुप्रीम कोर्ट ने अब इन नंबरों को साझा न करने पर SBI को नोटिस जारी किया है.

यदि सभी डेटा सार्वजनिक किए जाते तो 'वैध भ्रष्टाचार' के पैमाने का व्यापक सबूत मिलता?

जारी आंकड़ों से कुछ प्रमुख सवाल पहले से ही उभर रहे हैं, जिनकी व्यापक जांच की जरूरत है. सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी स्पष्ट कहा था कि चुनावी बॉन्ड से दिए गए राजनीतिक चंदे का डेटा यह निर्धारित कर सकता है कि कंपनियों और उससे लाभान्वित होने वाली राजनीतिक पार्टियां क्या एक-दूसरे को फायदा पहुंचा रही हैं?

इलेक्टोरल बॉन्ड पर सार्वजनिक की गई सीमित जानकारी के बावजूद, उसे देखने के बाद एक-दूसरे का फायदा करने (क्विड-प्रो-क्वो) वाला ट्रेंड अब सामने आ रहा है. याद रखें, बीजेपी भारी अंतर से इस इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम की सबसे बड़ी लाभार्थी है.
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टाइम्स ऑफ इंडिया ने निम्नलिखित रिपोर्ट दी:

“फ्यूचर गेमिंग एंड होटल सर्विसेज पीआर ने 21 अक्टूबर, 2020 और 9 जनवरी, 2024 के बीच 1,368 करोड़ रुपये का चंदा दिया, सभी 1-1 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड से.”

“23 जुलाई, 2019 को, ED ने एक कथित मनी लॉन्ड्रिंग घोटाले में 120 करोड़ रुपये की संपत्ति अटैच की, जहां उन पर (कंपनी के मालिक सैंटियागो मार्टिन) पुरस्कार राशि को बढ़ाने और बेहिसाब नकदी से संपत्ति इकट्ठा करने का आरोप लगाया गया था.”

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ED ने कंपनी से जुड़े 70 से अधिक परिसरों की तलाशी ली थी. जारी आंकड़ों के अनुसार, कंपनी इसके बाद चुनावी बॉन्ड खरीदने के लिए आगे बढ़ी. इसने सबसे पहला इलेक्टोरल बॉन्ड 21 अक्टूबर 2020 को खरीदा था.

जुलाई 2022 में, चुनाव निगरानी/ वॉचडॉग संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने वित्त वर्ष 2020-21 के लिए भारत के चुनाव आयोग को सौंपी गई इलेक्टोरल ट्रस्टों के चंदे की रिपोर्ट का विश्लेषण किया था. ADR ने बताया कि फ्यूचर गेमिंग और होटल सर्विसेज पीआर ने प्रूडेंट इलेक्टोरल को 100 करोड़ रुपये का दान दिया, और इस ट्रस्ट ने सबसे ज्यादा चंदा बीजेपी को दिया है.

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इसी तरह, चुनावी बॉन्ड के जरिए चंदा देने के मामले में मेघा इंजीनियरिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर (MEIL) दूसरे नंबर पर है. इसने 980 करोड़ रुपये का दान दिया है. CAG ने हाल ही में 38,000 करोड़ रुपये की कालेश्वरम लिफ्ट सिंचाई योजना में बड़े पैमाने पर अनियमितताओं की ओर इशारा करते हुए कहा था कि यह अव्यवहार्य है और इससे तेलंगाना को नुकसान होगा. MEIL इस प्रोजेक्ट की मुख्य ठेकेदार है. यहां भी आम कनेक्शन निकाल सकते हैं.

इसके अलावा, 11 अप्रैल 2023 को मेघा इंजीनियरिंग ने चुनावी बॉन्ड में जरिए 100 करोड़ रुपये का दान दिया और एक महीने के भीतर उसे बीजेपी के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार से 14,400 करोड़ रुपये का कॉन्ट्रैक्ट मिल गया. भले ही SBI ने सार्वजनिक किए गए डेटा में मैचिंग कोड छिपाए हैं लेकिन कुछ कंपनियों ने किन पार्टियों को चंदा दिया होगा, इसका स्पष्ट रूप से अनुमान लगाया जा सकता है.

भारत में 'लोकतंत्र' की खस्ताहाल चुनावी स्थिति का आकलन करते समय ये डिटेल्स आश्चर्यजनक और दिमाग सुन्न कर देने वाले हैं. यह राजनीतिक पार्टियों, विशेषकर सत्ताधारी पार्टी के आचरण में लोकतांत्रिक नैतिकता के व्यापक पतन को दर्शाता है.
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बीजेपी की कुल फंडिंग का 46 प्रतिशत से अधिक निजी कंपनियों द्वारा खरीदे गए चुनावी बॉन्ड से आता है. बदलने में राजकोषीय नीति (सबसे उदार टैक्स कटौती, छूट की पेशकश) में समर्थन देती है, स्पष्ट रूप से उन (जो सबसे बड़ा दान देते हैं) को लाभ पहुंचाती है, कॉन्ट्रैक्ट और पॉलिसी-फेवर देती है.

फ्यूचर गेमिंग और होटल सर्विसेज और मेघा इंजीनियरिंग केवल दो केस हैं, दो सबसे स्पष्ट केस हैं और भी सामने आएंगे. वंडर सीमेंट लिमिटेड, सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, क्विक सप्लाई चेन लिमिटेड, वेदांता लिमिटेड, आर्सेलर मित्तल ग्रुप इत्यादि जैसी प्राइवेट फर्मों द्वारा दिए गए चुनावी चंदे और बदले में सत्ता में मौजूद राजनीतिक दल (ज्यादातर मामलों में बीजेपी) से मिले लाभ के बीच सीए हिमांक सिंगला ने कनेक्शन निकाला है. इसे आप यहां देख सकते हैं.

कोई मुश्किल से कल्पना कर सकता है, यदि इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम शुरू होने के साल से ही सभी डेटा को सार्वजनिक कर दिया गया है तो भारत के राजनीतिक-फंडिंग परिदृश्य में देखे जाने वाले 'वैध भ्रष्टाचार' के पैमाने का व्यापक सबूत और वास्तविकता क्या होगी? इसने भारतीय चुनावी लोकतंत्र की कीमत लगा दी है. यह सत्ता में बैठे नेताओं और बिजनेस करने वालों के बीच सीधे लेनदेन से संचालित होती है.

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सुप्रीम कोर्ट की भूमिका और न्यायिक हस्तक्षेप पहले की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है

दशकों से, भारत के सुप्रीम कोर्ट की कार्यकारी शक्ति (सरकार) का विरोध करने और उसके सामने खड़े होने की क्षमता के कारण दुनिया भर में प्रशंसा की जाती रही है. हालांकि, गौतम भाटिया ने अपनी हालिया पुस्तक अनसील्ड कवर्स में दिखाया है कि कैसे इस शीर्ष अदालत ने मोदी सरकार के शासन के दौरान ज्यूडिशियल इवेजन (न्यायिक तौर पर कदम पीछे खींचना) की प्रथा अपनाई है. हालांकि, चुनावी बॉन्ड स्कीम पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बिल्कुल विपरीत है.

फिर भी, कोर्ट ऊपर हाइलाइट किए गए मामलों को किस प्रकार अधिक बारीकी से देखता है, और पैसे लेकर फायदा पहुंचाने के सबूतों को देखते हुए क्या करता है, वह भारत के चुनावी लोकतंत्र और पार्टी फंडिंग के भविष्य को परिभाषित और आकार दे सकता है.

सार्वजनिक संस्थानों की स्वायत्तता और अखंडता में देखी जा रही गिरावट को देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है, इसके बारे में हम अधिक से अधिक सिर्फ सावधानीपूर्वक आशावादी हो सकते हैं. दौर ऐसा है कि सरकार कथित तौर पर राजनीतिक और चुनावी लाभ के लिए चंदा देने वाली निजी कंपनियों का पक्ष ले रही है और 'वैध भ्रष्टाचार' की दोषी है.

(दीपांशु मोहन ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज (सीएनईएस) के डायरेक्टर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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