सरकारी नौकरियों और डिग्रियां देने वाली सरकारी संस्थाओं में भारतीय समाज के उन जातियों को 10 प्रतिशत का आरक्षण का फैसला नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के नेतृत्व वाली सरकार ने बहुमत की ताकत से किया और सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की संविधान पीठ के भी तीन जजों ने बहुमत के आधार पर अपनी मुहर लगा दी. यदि देश में रोजगार और बेरोजगारी के कारणों को वास्तव में समझना है तो इस फैसले के दूरगामी नतीजों का एक विश्लेषण किया जा सकता है.
ऐतहासिक तौर पर वर्चस्व और मौजूदा व्यवस्था में उनकी गरीबी का आधार
पहली बात तो ये है कि ये EWS आरक्षण विशुद्ध जाति पर आधारित है. जाति के आधार पर आरक्षण और सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर प्रतिनिधित्व के अंतर को पहले समझना चाहिए. सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर प्रतिनिधित्व का मतलब ये है कि भारतीय समाज में जिन लोगों को पढ़ने लिखने से वंचित रखा गया है और जिन्हें समाज को संचालित करने वाले कामों में भाग लेने से वर्जित रखा गया है उन्हें संविधान वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था में मौका दिया जाना चाहिए. ये प्रतिनिधित्व के आधार पर हो ताकि प्रतिनिधित्व से वैसे तमाम लोगों में अपनी काबिलियत को लेकर एक भरोसा हो.
सामाजिक पिछड़ेपन की पहचान के लिए मापदंड तय किए गए. इसमें आर्थिक पिछड़ेपन की कोई बात शामिल नहीं की गई. इसलिए इसे जाति आरक्षण नहीं कहा जाता है. इसे सामाजिक न्याय के दूरगामी लक्ष्य में शामिल माना जाता है. स्पष्ट है कि आर्थिक न्याय के कार्यक्रम नहीं है.
संविधान में सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर ही अवसर देने की व्यवस्था की गई. यदि आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की बात है तो फिर देश की अधिकांश आबादी के लिए आरक्षण की व्यवस्था करनी पड़ सकती है. केवल अस्सी करोड़ तो सस्ते एवं मुफ्त राशन पर निर्भर है. लेकिन नरेंद्र मोदी का नेतृत्व सांप्रदायिक वोट के प्रभाव में होता है इसीलिए ये राजनीति किसी भी कीमत पर जातिवाद की भावना को बढ़ावा देते रहना चाहती है.
10 प्रतिशत का आरक्षण आर्थिक आधार पर आरक्षण भले कहा जा रहा हो लेकिन ये वास्तव में जातियों के लिए आरक्षण का फैसला है. क्योंकि ये केवल भारतीय समाज के इतिहास के उन लोगों के लिए है जो जाति के आधार पर शासक बने रहे है और समाज के लिए जरूरी किसी भी तरह के उत्पादन के काम से अपने को दूर रखना अपना धर्म मानते रहे है.
यानी सामाजिक वर्चस्व की स्थिति को बनाए रखने के लिए पहली बार आरक्षण की व्यवस्था की गई है. इससे स्पष्ट है कि सामाजिक वर्चस्व और सांप्रदायिकता की राजनीति का सीधा रिश्ता है.
सवर्ण आखिरकार आर्थिक रूप से दरिद्र हों
ये जानना बहुत दिलचस्प है कि भारतीय सवर्ण जातियां संविधान को बदले जाने के प्रयास की कीमत पर इस तरह के आरक्षण से खुश हो सकते हैं और उनमें अपनी जाति की भावना और जातिगत आधार पर एकजूट होने की भावना को उग्र करने और सांप्रदायिक राजनीति के समर्थन के लिए तैयार हो रहे हो लेकिन उन्हें उसी तरह से इसके दूरगामी नतीजों का शिकार होना होगा जैसे अब समाजिक आधार पर अवसर पाने वाले वर्ग के लोग हो रहे है. जिन्हें हम पिछड़ा वर्ग बुलाते है.
10 प्रतिशत का आरक्षण अवसरों के खत्म करने में सहायक बनने के लिए दिया गया है. उपरोक्त दोनों बातों को विस्तार से इस तरह समझने की कोशिश की जा सकती है.
पहली बात तो ये है कि सांप्रदायिक राजनीति को अभी किस बात की सबसे ज्यादा जरूरत है. उसे अपना एक सामाजिक आधार बनाए रखने की सबसे ज्यादा कोशिश करनी है क्योंकि सामाजिक आधार के बिना वह पूंजीवादी हितों में फैसले नहीं कर सकता है. अब सामाजिक आधार बनाकर पूंजीवाद और पूंजीपतियों के हितों में फैसले करने और उसका स्वागत करने के लिए कैसे स्थितियां बनाई जाती है इसका विश्लेषण किया जा सकता है.
हम सबको याद है कि 1991 में पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में अवसर सुनिश्चित करने का फैसला विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने किया तब तक भारत सरकार ने उस नई आर्थिक व्यवस्था में शामिल होने का फैसला कर लिया था जो दुनिया के सबसे ज्यादा अमीरों के नेतृत्व में बनाने का फैसला किया गया था. गरीबों पर शासन जारी रखने वाली अमीरों के नेतृत्व में नई आर्थिक व्यवस्था बनाने का ये फैसला था.
तब विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए अवसर देने के सैकड़ों वर्ष पुराने आंदोलन की आवाज अब सुनने की बात स्वीकार कर ली. नई बनती आर्थिक व्यवस्था के वक्त सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर अवसर देने का फैसला अपने आप में सामाजिक न्याय के लिए दो आपस में कभी नहीं मिल पाने वाले दो छोरों पर खड़े होने के समान लगता है.
अवसर सरकारी संस्थानों के लिए, और नई आर्थिक व्यवस्था उन्हें खत्म करने के लिए
क्योंकि, अवसर तो सरकारी संस्थानों के लिए तय किए जा रहे थे जबकि नई आर्थिक व्यवस्था सरकारी संस्थानों को खत्म करने पर आधारित है. लेकिन सदियों से आहत की गई भावनाओ के लिए इस तरह का विश्लेषण स्वीकार्य नहीं था. लेकिन ये बात जल्द ही स्पष्ट हो गई कि सरकारी संस्थान कुछ समय के लिए ही बचे रह सकते है. तब बीजेपी सांप्रदायिकता का मोर्चा संभाल रही थी. आडवाणी जी रथ यात्रा लेकर भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक हिंदू मिथक ग्रंथो के पात्रों की आग के गोले छोड़ रहे थे. दूसरी तरफ बीजेपी नई आर्थिक नीतियों को तेजी से लागू करने के लिए दबाव भी बना रही थी.
दरअसल पूंजीवाद की नई व्यवस्था को तत्काल ही सब कुछ मैनेज यानी सबको अपने लिए ठीक रखने की जरूरत थी. ठीक रखने से मतलब है कि नई आर्थिक नीतियों के नतीजों के खिलाफ बड़े पैमाने पर होने वाली नाराजगी और गुस्से को भ्रमित करने और दूसरी दिशा में भटकाने का जोगाड़ करना था. यानी विभिन्न राजनीतिक पार्टियों को इस नई व्यवस्था के लिए सक्रिय करना था.
पिछड़े वर्गों के विधायिका नेतृत्व के झांसे
ये भी याद होना चाहिए कि जब सरकारी नौकरियों के लिए पिछड़ा वर्ग को अवसर सुनिश्चित करने का फैसला हुआ तब फैसला करने वाले समूह से निजी कंपनियों में भी अवसर मुहैया कराने की मांग की जाने लगी. सरकारी संस्थानों में अवसर देने का फैसला करने वाले सभाओं में निजी कंपनियों में अवसर की मांग करने लगे, बात कुछ अटपटी लगती है. दरअसल ये पुरी कवायद भारतीय समाज के बहुजनों को नई आर्थिक व्यवस्था के लिए एक सामाजिक आधार के रूप में इस्तेमाल करने के लिए थी. हुआ यही.
सरकारी संस्थानों में बचा खुचा अवसर भी खत्म हो गया. निजीकरण का तेजी से विस्तार हो गया है. बेरोजगारी बढ़ती चली गई और अधिकार को बचाने और उसके लिए विकसित हुई चेतना को भी भोतरा कर दिया गया. 10 प्रतिशत का आरक्षण उस दौर में संविधान को दरकिनार कर देने का फैसला किया गया जब कि सरकारी संस्थाओं का सारा खून इंजेक्शन से निकाला जा चुका है या निकाला जा रहा है.
चंद पूंजीपति रह जाएंगे
10 प्रतिशत का जातिगत आरक्षण देने वाली राजनीति ने देश में पूंजी का कुछ लोगों को मालिक बना दिया है, और उसी दिशा में बढ़ रही है. इसके लिए एक सामाजिक आधार की जरूरत है और भारत जैसे जातिवाद आधारित समाज में जाति के आधार पर आरक्षण की भावनाओं का शोषण करना आसान है.
इस आरक्षण में एक बात और काबिले गौर है कि इसे गरीबी का मुखौटा पहनाया गया है. यानी गरीब सवर्ण जिसने शिक्षण संस्थाओं से डिग्री ले रखी है उसे सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिलेगा. लेकिन ये कैसी विडंबना है कि शिक्षित होने के लिए पैसे होना चाहिए क्योंकि शिक्षा का निजीकरण किया जा चुका है और निजी संस्थानों की शिक्षा काफी महंगी की जा चुकी है. यानी सवर्ण के बीच भी गरीब की स्थितियों का दोहन करने की व्यवस्था इस आरक्षण के साथ घुली मिली है.
सवर्ण क्या उस व्यवस्था का सामाजिक आधार बनने में सहायक होने को तैयार है जो आखिरकार उन्हें और गरीब बनाने की दिशा में बढ़ रहा है.
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