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OBC का विभाजन: जिसकी गिनती नहीं हुई, उसे बांटेंगे कैसे?

क्या केंद्र सरकार को ओबीसी आरक्षण में बदलाव करके उसमें बंटवारा कर देना चाहिए?

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ओबीसी आरक्षण का लाभ अत्यंत पिछड़ी जातियों तक पहुंचाने की प्रधानमंत्री मोदी की घोषणा स्वागत योग्य है, लेकिन उनकी पहचान और आरक्षण में उनका अनुपात को तय करने के लिए सरकार को जाति जनगणना, 2011 के आंकड़े सार्वजनिक करने चाहिए.

यह लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी का संभवत: सबसे बड़ा दांव है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 मई को यूपी के बागपत में एक सड़क परियोजना के उद्घाटन के मौके पर एक घोषणा की, जिसका अर्थ है कि केंद्र सरकार राष्ट्रीय स्तर पर आरक्षण नीति में एक बड़ा बदलाव करने जा रही है. उन्होंने कहा कि ओबीसी यानी अन्य पिछड़े वर्गों के कोटे के अंदर अत्यंत या अति पिछड़ी जातियों के लिए अलग से आरक्षण देने के प्रस्ताव पर सरकार काम कर रही है.

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उन्होंने बताया कि इसके लिए सरकार ने एक कमीशन यानी आयोग का गठन किया है. प्रधानमंत्री ने कहा कि इस विभाजन का मकसद अति पिछड़ी जातियों को आरक्षण का ज्यादा लाभ पहुंचाना है.

1978 में मंडल कमीशन के गठन और 1990 में कमीशन की रिपोर्ट लागू करने और ओबीसी जातियों को केंद्र सरकार की नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण देने की तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की घोषणा के बाद, राष्ट्रीय स्तर पर आरक्षण की नीतियों में बदलाव की यह सबसे बड़ी घोषणा है.

मंडल कमीशन की ही एक और सिफारिश को लागू करते हुए मनमोहन सिंह सरकार ने 2006 में केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों में ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की थी. उसके बाद से ओबीसी आरक्षण को लेकर देश में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ था.

मंडल कमीशन की ये दोनों सिफारिशें संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत लागू की गईं, जिसमें कहा गया है कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति का अध्ययन करने के लिए राष्ट्रपति एक आयोग का गठन करेंगे, जो इन वर्गों के जीवन की कठिनाइयों का पता लगाएगा और सरकार को सुझाव देगा कि उनके उत्थान के लिए कौन से कदम उठाए जाएं.

इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 16(4) में ऐसी व्यवस्था दी गई है जिसके मुताबिक, सरकार को अगर लगता कि सरकारी नौकरियों में किसी पिछड़े वर्ग का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो उसके लिए विशेष प्रावधान किए जा सकते हैं. अनुच्छेद 340 के तहत गठित दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग, जो उसके अध्यक्ष बीपी मंडल के नाम की वजह से मंडल कमीशन नाम से मशहूर हुआ, ने दो साल के अध्ययन के बाद अपनी रिपोर्ट तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को सौंपी. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उसी रिपोर्ट की 40 में एक सिफारिश- सरकारी नौकरियों में ओबीसी के आरक्षण को केंद्रीय स्तर पर लागू किया.

मंडल कमीशन की रिपोर्ट में ओबीसी को सिर्फ एक सामाजिक समूह के रूप में देखा गया है. इसमें पिछड़ा, अति पिछड़ा या अत्यंत पिछड़ा जैसा वर्गीकरण नहीं है. इस रिपोर्ट के आधार पर बना राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग हर राज्य की ओबीसी जातियों की लिस्ट बनाता है और ऐसी एक ही लिस्ट अब तक मौजूद है. हालांकि मंडल कमीशन ने विभिन्न राज्यों में आरक्षण की स्थिति के अध्ययन के दौरान यह पाया कि कई राज्यों में पिछड़ी जातियों को एक से अधिक समूह में बांटा गया है. ऐसे राज्यों में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, बिहार शामिल हैं. लेकिन आयोग ने राष्ट्रीय स्तर पर ओबीसी जातियों की अलग-अलग लिस्ट बनाना उचित नहीं समझा.

अब केंद्र सरकार ओबीसी की केंद्रीय लिस्ट को कम से कम दो भागों में बांटना चाहती है.

बहुत पुरानी है आरक्षण की व्यवस्था

वंचित जातियों के लिए सरकार द्वारा व्यवस्था देश में सबसे पहले 1885 में की गई जब तमिलनाडु में इन जातियों को दाखिल देने वाले शिक्षा संस्थानों को सरकार ने आर्थिक सहायता देना शुरू किया. तमिलनाडु और मैसूर प्रांत (अब कर्नाटक) में सरकारी नौकरियों में आरक्षण 1921 से लागू है. देसी रियासतों में सबसे पहले कोल्हापुर में नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था राजर्षी शाहूजी महाराज ने की थी.

देश में संविधान लागू होने के साथ ही अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण लागू है. पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के मामले में राज्यों के स्तर पर अंतर है. अलग अलग राज्यों में इसकी शुरुआत अलग अलग समय में हुई. केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी आरक्षण 1993 से लागू है. 2006 के बाद से केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों में भी ओबीसी आरक्षण लागू हो गया.

अब सवाल उठता है कि क्या केंद्र सरकार को ओबीसी आरक्षण में बदलाव करके उसमें बंटवारा कर देना चाहिए? अगर सरकार के पास इस बात के तथ्य हैं कि आरक्षण की अब तक की व्यवस्था से ओबीसी की कुछ जातियों को नौकरियां मिली हैं और कुछ जातियों को नहीं, तो इस आधार पर ओबीसी को विभाजित करना हर दृष्टि से उचित होगा. सामाजिक न्याय का यही तकाजा है. संविधान भी यही कहता है कि अगर किसी पिछड़े वर्ग का नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, तो उसके लिए सरकार विशेष व्यवस्था कर सकती है.

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पिछड़ेपन की पहचान कैसे हो?

इसलिए उचित होगा कि सरकार उन तथ्यों को सार्वजनिक करे, जिसके आधार पर यह निर्धारित हो कि ओबीसी कटेगरी में शामिल की गई कुछ जातियां दरअसल अत्यंत पिछड़ी जातियां हैं. अत्यंत पिछड़ी जातियों की पहचान के लिए कुछ शर्तों या आधार का होना जरूरी है. मनमाने तरीके से एक जाति को पिछड़ा और दूसरे को अत्यंत पिछड़ा की श्रेणी में रखने से समाज में उथल-पुथल हो सकती है और मामला कानूनी पेचीदगियों में भी फंस सकता है.

इसके अलावा इस बात का भी निर्धारण करना पड़ेगा कि पिछड़ी जाति और अत्यंत पिछड़ी जातियों को किस अनुपात में आरक्षण दिया जाएगा. यह काम उन जातियों की संख्या के आधार पर होना चाहिए. सरकार को यह बताना चाहिए कि जिन्हें पिछड़ी जातियों की कटेगरी में रखा जा रहा है, उनकी आबादी कितनी है और जिन्हें अत्यंत पिछड़ा वर्ग माना जा रहा है, उनकी आबादी कितनी है. प्रधानमंत्री महोदय की घोषणा में अत्यंत पिछड़ी जातियों को ओबीसी कोटे के अंदर ही आरक्षण देने की बात है, जबकि पिछड़ी जातियां हमेशा ही यह मांग करती हैं कि उन्हें आबादी के हिसाब से आरक्षण मिलना चाहिए.

मंडल कमीशन के सामने भी यह सवाल आया था कि किसी जाति को पिछड़ी जाति कैसे माना जाए और पिछड़ी जातियों की संख्या कितनी है. इसके लिए मंडल कमीशन ने आठ काम किए.

  1. सामाजिक पिछड़ेपन के अध्ययन के लिए संगोष्ठी की गई, ताकि यह तय हो कि पिछड़ेपन का आधार किसे बनाया जाए. इसमें देश भर के विशेषज्ञ बुलाए गए.
  2. राज्य सरकारों, केंद्रीय मंत्रालयों और विभागों को प्रश्नावली भेजकर यह जानने की कोशिश की गई कि वहां अन्य पिछड़े वर्गों के कितने लौग नौकरी करते हैं.
  3. सरकारों से यह भी पूछा गया कि इन वर्गों की आय का स्तर, शारीरिक श्रम करने वालों में इनकी संख्या, शैक्षणिक स्तर और स्कूल छोड़ने वालों का प्रतिशत क्या है.
  4. आयोग ने देश के 84 जिलों का दौर किया और लोगों से लगभग ढाई हजार ज्ञापन लिए.
  5. इसके अलावा आयोग के समक्ष अपनी बात कहने के लिए लोगों को बुलाया गया.
  6. 15 विशेषज्ञों की एक समिति की सिफारिश के आधार पर देश भर में सर्वे करके सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन का अध्ययन किया गया.
  7. 931 में देश में हुई आखिरी जाति जनगणना के आंकड़ों का अध्ययन किया गया.
  8. गांवों का विशेष तौर पर अध्ययन करने का काम एंथ्रोपॉलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को सौंपा गया.
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इस तरह जुटाए गए तथ्यों के आधार पर मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट दी, जिसकी बुनियाद पर देश में इस समय ओबीसी आरक्षण चल रहा है और इसे संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक की मंजूरी हासिल है. इतने ही ठोस तरीके से वर्तमान सरकार को भी काम करना चाहिए.

वर्तमान सरकार ओबीसी आरक्षण में बदलाव लाना चाहती है, तो इसका स्वागत होना चाहिए. लेकिन यह काम मनमाने तरीके से किया गया, तो इससे तमाम तरीके की पेचीदगियां आ सकती हैं.

भारत में पिछले दशकों का अनुभव यही है कि आरक्षण के सवाल तथ्यों के आधार पर नहीं, बल्कि सरकार की बांह मरोड़कर हल करने की कोशिश होती है. 1931 की जनगणना के बाद से जाति के आंकड़े न जुटाए जाने से यह दिक्कत आई है. आरक्षण के हर आंदोलन के उग्र रूप ले लेने का अनुभव सरकार के पास है. चाहे मामला गुर्जर आरक्षण का हो या जाट आरक्षण का या मराठा आरक्षण का या कापू आरक्षण का. ये सारे सवाल तथ्यों के आधार पर हल होने चाहिए थे.

संवैधानिक व्यवस्था यह है कि कोई जाति अगर सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी है और सरकारी नौकरियों में उसे आबादी से कम प्रतिनिधित्व हासिल है, तो उसे आरक्षण मिलना चाहिए.

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देश में जाति जनगणना हुई है

दरअसल, जातियों के तथ्य और आंकड़े सरकार के पास हैं. 2011 में भारत सरकार ने देश भर में जाति जनगणना कराई है. इस जनगणना का काम 2014 में पूरा हो चुका है और इस पर 4,894 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं. इसकी रिपोर्ट में सरकार को कुछ खामियां नजर आई हैं, जिसके लिए 16 जुलाई, 2015 को ही नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई गई थी. पनगढ़िया अब सरकार छोड़कर कोलंबिया यूनिवर्सिटी पढ़ाने के लिए लौट चुके हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि इस कमेटी ने अपना काम पूरा कर लिया होगा और जाति जनगणना की रिपोर्ट तैयार हो चुकी होगी.

जाति जनगणना, 2011 के आधार पर हर जाति की संख्या, उसकी सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति और सरकारी नौकरियों में उसकी संख्या जैसे तमाम तथ्य सामने आ जाएंगे. इसके आधार पर अत्यंत पिछड़ी जातियों की पहचान आसानी से की जा सकती है और उसमें कोई विवाद भी नहीं होगा. अत्यंत पिछड़ी जातियों की कुल आबादी जानने के बाद यह तय करना भी आसान होगा कि उन्हें कितना आरक्षण देना है.

सरकार को जाति जनगणना के आकंड़े तत्काल जारी करने चाहिए. जातियों का कोई भी नया बंटवारा करने से पहले उनकी गिनती और उनकी स्थिति के बार में देश को पता होना चाहिए.

(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. आर्टिकल की कुछ सूचनाएं लेखक के अपने ब्लॉग पर छपी हैं)

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