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BJP का ‘अमृत काल’,AAP की रैली: किसानों को लुभाने की कला-आत्महत्याओं की अनदेखी

भारत में सरकारों को किसान मुद्दों पर गौर करने की जरूरत ही नहीं रहती, वे किसी दूसरे तरीकों से सत्ता में आ जाते हैं.

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भारत में सरकारों को किसान आत्महत्या (Farmer's suicides) या ग्रामीण संकट पर गौर करने की जरूरत नहीं रहती है. वे किसी भी दूसरे तरीकों से सत्ता में आते हैं. पंजाब में 25-30 अप्रैल वाले सप्ताह में जो धरना प्रदर्शन हुए उनसे साफ है कि कैसे किसानों की चुनी सरकारें ही उन्हें भूल जाती हैं.

पिछले एक महीने में ही पंजाब में कर्ज और फसल खराब होने के कारण कम से कम 15 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. आम आदमी पार्टी (आप) ने हाल ही में राज्य का चुनाव इस वादे पर जीता था कि 1 अप्रैल से राज्य में एक भी किसान आत्महत्या नहीं करेगा. ऐसे ही वादे पिछले हफ्ते कर्नाटक में उसी पार्टी ने किए जो वहां सत्ता में है. कर्नाटक एक ऐसा राज्य है जहां महाराष्ट्र के बाद देश में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या करते हैं.

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पिछले सप्ताह ही केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने किसान भागीदारी, प्राथमिकता हमारी (किसानों के साथ साझेदारी हमारी प्राथमिकता है) के नारे के साथ अमृत महोत्सव मनाया. कृषि मंत्री ने किसानों के साथ ' वर्चुअल बातचीत' की जहां उन्हें किसान बने रहते हुए भी 'समय के साथ बदलें' की सलाह दी गई.

यह वही सरकार है जिसने साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था, लेकिन ऐसा करने में वो विफल रही है.

आंकड़ों का खेल

केंद्र और राज्य सरकारें किस तरह किसानों की अनदेखी करती हैं , इसे नीचे बताए उदाहरणों से समझा जा सकता है

पहला: सबसे पहली बात तो ये है कि कर्ज और फसल बर्बादी के कारण किसान आत्महत्याएं करते हैं और इसके लिए सीधे तौर पर सरकारें जिम्मेवार हैं. इसी वजह से किसान आत्महत्याओं की संख्या छिपाई जाती है, या उनमें हेराफेरी की जाती है. देश के कई राज्य राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) को किसान आत्महत्या के आंकड़े भी नही देते, जैसे पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तराखंड. इससे इन राज्यों की छवि साफ रहती है और राज्यों की नीतियों की पड़ताल भी नहीं होती.

दूसरा: जो राज्य डाटा देते हैं वो किसानों की आत्महत्या की संख्या को बहुत दबाते हैं. यह दो स्तरों पर होता है. पहले तो सख्ती और कड़क निगरानी की वजह से किसान आत्महत्या को माना ही नहीं जाता. कागजी कार्रवाई और सरकारी प्रक्रिया की जटिलता से मृत किसान की विधवा के लिए ये साबित करना मुश्किल हो जाता है कि उनके पति ने सच में गांवों में कर्ज की परेशानी के कारण आत्महत्या की. दूसरा तरीका जिला स्तरीय समितियां जो मुआवजे के लिए 'पात्रता' का फैसला करती है उसमें हेराफेरी. इन समितियों में आमतौर पर प्रभावशाली लोग होते हैं, और अक्सर गरीब किसान सूची से बाहर रह जाते हैं.

किन किसानों की मौत खुदकुशी और किनकी नहीं

तीसरा: एक और बड़ा चीज किसानों की परेशानी से जुड़ी है वो मौत की रिपोर्टिंग. दरअसल जिला स्तर पर किसानों की आत्महत्या के जो आंकड़े तैयार होते हैं वो पुलिस रिपोर्ट के आधार पर होती है. फिर जिले से राज्य और केंद्र तक पहुंचते पहुंचते ये आंकड़े छोटे होते जाते हैं. इसको साफ करने के लिए कुछ उदाहरण आपको देते हैं. महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में, जिला प्रशासन के अनुसार 2020 में 319 आत्महत्याएं हुईं. इनमें से 188 या 58.9% मुआवजे के लिए अपात्र पाए गए और एनसीआरबी ने जो अंतिम संख्या दी उसमें इनका जिक्र नहीं था.

एक अन्य उदाहरण तेलंगाना का खम्मम जिला है. इस लेखक को अपने आरटीआई के जवाब में प्रशासन ने बताया कि 2014 और 2021 के बीच कुल 107 किसानों ने आत्महत्याएं की. इनमें से 45.79% मुआवजे के लिए अपात्र पाए गए, और इसलिए उन्हें किसान आत्महत्या के रूप में मान्यता नहीं दी गई.

तेलंगाना में किसान आत्महत्या की संख्या संदिग्ध रूप से कम हो रही है.. भले ही ग्रामीण संकट अभी COVID-19 और हाल में धान खरीद संकट के कारण ज्यादा बढ़ा हो पर वहां किसानों की आत्महत्या की संख्या का गिरने पर संदेह बढ़ता है.

भारत में सरकारों को किसान मुद्दों पर गौर करने की जरूरत ही नहीं रहती, वे किसी दूसरे तरीकों से सत्ता में आ जाते हैं.

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चौथा: 17वीं लोकसभा में, 2019 से अब तक, संसद सदस्यों ने किसान आत्महत्याओं, जुटाए आंकड़ों, मुआवजे, उपचार और रोकथाम पर 25 से अधिक प्रश्न उठाए..लेकिन सरकार की प्रतिक्रिया सभी मामलों में समान थी. इसमें किसान आत्महत्याओं पर एक अध्ययन के नतीजे भी शामिल थे.

भारत में किसान आत्महत्या: कारण और नीतिगत सुझाव (2016-17) शीर्षक से हुए अध्ययन में मोटे तौर पर आत्महत्याओं के वजहों की जो पहचान है .. वो है फसल बीमा, एमएसपी, फसल विविधीकरण और निजी साहूकार...इन सब पर कंट्रोल करने के उपाय स्टडी में सुझाए गए हैं. पर ये बहुत अफसोसनाक है कि देश की सबसे बड़ी निकाय यानि संसद भी इन पर वही रटे रटाए जवाब देती है. साल 2006 में स्वामीनाथन कमिटी की जो रिपोर्ट थी उसके आलोक में भी जवाब नहीं दिए गए.

सिर्फ सरकारों के लिए ही अमृतकाल

अंत में, जो इकोनॉमी के इंडिकेटर हैं वो ये बताने के लिए काफी हैं कि आखिर सरकारें किसानों पर कितना कम ध्यान दे रही हैं. NSSO रिपोर्ट 587 के मुताबिक आज 50% से अधिक कृषि परिवार कर्ज में हैं. यह महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में 86 प्रतिशत किसान छोटे और सीमांत हैं. साथ ही, प्रति किसान परिवार पर औसत बकाया कर्ज 74,121 रुपये है जबकि उनकी मासिक औसत कृषि आय सिर्फ 6,960 रुपये है. इसके अतिरिक्त, 57% से अधिक कर्ज कृषि के लिए लिए गए थे, लेकिन लगभग 70% पहले के कर्ज ही बकाया हैं. वहीं अगर देखें तो निजी कर्ज सिर्फ 20 % बकाया है. मतलब साफ है कि निजी साहूकारों पर निर्भरता ज्यादा है.

सरकारें किसानों को उनके भाग्य पर छोड़ देती हैं. चुनाव में उनका इस्तेमाल करती है और ऐसे वादे करती हैं जिन्हें वे कभी पूरा नहीं करना चाहते हैं. सरकारें उन्हें देखें या न देखें, किसानों की आत्महत्याएं जारी हैं, जो हर दर्दनाक मौत के प्रति राज्य की उदासीनता को उजागर करती है, चाहे वह कीटनाशक पीने से हो या फांसी का फंदा लगाने से.

आधिकारिक तौर पर, भारत में (1995-2020) के बीच 3,70,000 से अधिक किसानों ने आत्महत्याएं की, और जैसा कि शोध से पता चलता है, इतना ही नंबर लिस्ट में शामिल नहीं किए गए होंगे. भले ही सरकारों के लिए यह अमृत काल हो सकता है, लेकिन किसानों के लिए यह मृत काल बना हुआ है.

(डॉ कोटा नीलिमा लेखक, शोधकर्ता के साथ-साथ इंस्टीट्यूट ऑफ परसेप्शन स्टडीज, नई दिल्ली की निदेशक हैं.वह ग्रामीण-शहरी संकट और नागरिक दृश्यता जैसे विषयों पर लिखती हैं। @KotaNeelima उनका ट्विटर हैंडल है. यह एक ऑपिनियल आर्टिकल है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है..)

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