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जॉर्ज फ्लॉयड निर्णय: भारत में पुलिस अपराधों के लिए न्याय कब ?

भारत को George Floyd के फैसले से सीखना चाहिए कि खोई हुई FIR ,खराब जांच और पुलिस की मिलीभगत आदर्श स्थिति नहीं

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न्याय के लिए खड़े होने वाले और संघर्ष करने वाले लोगों के लिए अच्छी खबर तब आई जब मिनीपोलिस पुलिस डिपार्टमेंट के पूर्व श्वेत पुलिस अधिकारी डेरेक चाउविन (Derek Chauvin) को 46 वर्षीय अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड (George Floyd) की हत्या के लिए 22.5 साल कैद की सजा सुनाई गयी.

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जॉर्ज फ्लॉयड की मौत तब हुई थी जब चाउविन ने उसके गर्दन को 9 मिनट तक अपने घुटने के नीचे दबाए रखा था, वह भी तब जब फ्लॉयड को हथकड़ी लगी थी और उसे जमीन पर उल्टा लिटाया गया था. फ्लॉयड को कथित $20 के नकली नोट जैसे मामूली आरोप में गिरफ्तार किया गया था.उसकी दर्द भरी कराह कि "मैं सांस नहीं ले पा रहा हूं" पुलिस की बर्बरता के खिलाफ पूरे अमेरिका में विरोध प्रदर्शन रैलियों की आवाज बन गयी. विशेषकर ब्लैक और हिस्पैनिक सहित गैर-श्वेत अमेरिकी नागरिकों के बीच.

एक देश अपनी गलतियों को कैसे सुधरता है

सबसे उल्लेखनीय बात और जो दरअसल अमेरिका में स्वतंत्र और निष्पक्षता के गहरे समाये मूल्यों की गवाही देता है, वह है न्याय की तेज गति.जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या 25 मई 2020 को हुई थी.1 साल के अंदर ही 21 अप्रैल 2021 को डेरेक चाउविन को हत्या का दोषी घोषित किया गया और 25 जून 2021 को उसे सजा भी सुना दी गई.

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डेरेक चाउविन को दोषी सिद्ध किया जा सका क्योंकि भारत के विपरीत अमेरिका के ‘सिस्टम’ में राज्य और पुलिस एक साथ मिलकर किसी ‘पापी’ को डिफेंड नहीं करते.मिनीपोलिस पुलिस विभाग के कई सदस्यों ,जिसमें चीफ मेडारिया अर्राडोंडो भी शामिल थें, ने ट्रायल के दौरान इस बात की गवाही दी थी कि चाउविन का फ्लॉयड के गर्दन पर घुटना रखना स्पष्ट रूप से गलत था और बल प्रयोग पर डिपार्टमेंट के पॉलिसी के खिलाफ था.

राष्ट्रपति बाइडेन ने नेशनल टेलीविजन पर दिए अपने टिप्पणी में कहा "यह दिन के उजाले में की गयी हत्या थी और इसने पूरे दुनिया के आंखों से पट्टी हटा दी है... 'सिस्टमैटिक नस्लवाद' इस देश की आत्मा पर एक धब्बा है".

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तुलना करने पर भारतीय पुलिस कहां खड़ी है?

ऐसी नेक भावनाओं की तुलना अब भारत से करें. भारत में पुलिस और राज्य मिलकर आदतन उसे बचाने की कोशिश करते हैं जिसे नहीं बचाया जा सकता, क्योंकि यहां 'सिस्टम' इस अस्थिर सिद्धांत पर काम करता है कि राज्य कोई गलत काम कर ही नहीं सकता. इसके अलावा यह मानता है कि राज्य या उसके कर्मचारियों की गलती को स्वीकार करने से राज्य अपने नागरिकों पर 'शासन' करने का नैतिक अधिकार खो देगा.

पुलिस द्वारा मुसलमानों की सामूहिक हत्या की सबसे भयानक घटनाओं में से एक में यूपी प्रोविंशियल आर्म्ड कांसटेबुलरी(PAC) के 19 जवानों के ऊपर मई 1987 में हाशिमपुरा के 40 से 42 मुसलमानों की हत्या का आरोप लगा था. उस समय वहां सांप्रदायिक दंगें चल रहे थे.उन्हें एक ट्रक में भरकर शहर के बाहरी इलाके में ले गये, उन्हें गोली मार दी और उनकी लाशों को पास के सिंचाई नहर(गंग नहर) और कुछ को हिंडन नहर में फेंक दिया.

मामला प्रकाश में तब आया जब तीन-चार दिन बाद लाशें ऊपर तैरने लगी. यह भयावहता भारत की राजधानी से मात्र 82 किलोमीटर की दूरी पर हुई थी, किसी दूर-दराज के कोने में नहीं.
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आश्चर्यजनक रूप से 2015 में ट्रायल कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया. हालांकि 2018 में दिल्ली हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को पलटते हुए PAC के 16 कर्मियों को उम्र कैद की सजा सुनाई जबकि 3 की ट्रायल के दौरान ही मौत हो गई थी. हाईकोर्ट ने कहा "हम यह जानते हैं कि मारे गए लोगों के परिवारजनों के लिए यह शायद बहुत कम है, बहुत देर हो चुकी है.उन्हें न्याय के लिए 31 साल का इंतजार करना पड़ा है".

हाशिमपुरा नरसंहार: 31 साल बाद अर्धन्याय

इस मामले की जांच इस बात का एक सशक्त उदाहरण है कि जब अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की बात आती है तो उसमें शामिल राज्य कितना आपराधिक हो सकता है.

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उन्होंने ना सिर्फ एक भयानक अपराध को अंजाम दिया बल्कि अपनी क्षमता भर उस अपराध को दबाने की कोशिश भी की.हाईकोर्ट ने कहा कि यूपी राज्य के नियंत्रण में मौजूद मामले से जुड़े महत्वपूर्ण डॉक्यूमेंट जांच एजेंसी को उपलब्ध नहीं कराया गया ताकि न्याय प्रक्रिया को विफल किया जा सके. जांच के दौरान पुलिस ने मारे गए लोगों के परिवार वालों और करीबी दोस्तों को शव दिखाने से इंकार कर दिया. जिस ट्रक में उन्हें ले जाया गया था और गोली मारी गई थी उसे 8 महीने के बाद ही फॉरेंसिक जांच के लिए भेजा गया.

हमने कोर्ट के निर्णय को अर्धन्याय कहा है क्योंकि यह कल्पना करना बिल्कुल भोलापन होगा कि कुछ कॉन्स्टेबल और PAC के एक सब-इंस्पेक्टर के इशारे पर 42 मुसलमानों का नरसंहार हो सकता है. नहीं, यह सीनियर अफसरों और राज्य सरकार में बैठे लोगों के स्पष्ट निर्देश के तहत ही हो सकता था. इसके बावजूद किसी का नाम तक बाहर नहीं आया, सजा मिलना तो दूर की बात है.
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मलियाना नरसंहार: 34 साल बाद भी न्याय का इंतजार

मलियाना नरसंहार की घटना हाशिमपुरा नरसंहार के अगले ही दिन हुई. आरोप था कि PAC और PAC की मिलीभगत से काम कर रहे बहुसंख्यक समुदाय के दंगाइयों द्वारा कम से कम 72 मुसलमानों की हत्या कर दी गई. जो बच गए उनका आरोप है कि PAC ने इलाके के सभी आने और बाहर निकलने के रास्तों को ब्लॉक कर दिया और फिर अंधाधुंध फायरिंग की, जबकि दंगाइयों ने लूटपाट और आगजनी की. 214 मुस्लिम घरों में से 106 को जला दिया गया.मारने का तरीका- गोली मार दी गयी, काट दिया गया या जिंदा जला दिया गया.

फास्ट ट्रैक कोर्ट में चलने के बावजूद इन 34 सालों में 900 बार मामले को स्थगित किया गया है और 70 गवाहों में से मात्र 8 गवाहों की गवाही दर्ज की गई है. पीड़ितों की ओर से केस लड़ रहे वकील अलाउद्दीन सिद्दीकी का कहना है कि कोर्ट रिकॉर्ड से FIR समेत अहम दस्तावेज गायब हो गए हैं. मेरठ सेशन कोर्ट ने बिना FIR कॉपी के मुकदमा आगे बढ़ाने से इंकार कर दिया गया है. आधिकारिक तौर पर FIR की 'खोज' अभी भी जारी है.

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अप्रैल 2021 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को एक याचिका के जवाब में एक जवाबी-हलफनामा दायर करने के लिए कहा. याचिका में कहा गया कि नरसंहार के 3 दशक से अधिक समय बीतने के बावजूद मामला ट्रायल कोर्ट में ज्यादा नहीं चला क्योंकि महत्वपूर्ण कोर्ट पेपर रहस्यमई ढंग से लापता हो गए थें

.याचिका में यूपी पुलिस और PAC पर पीड़ितों और गवाहों को गवाही न देने के लिए डराने-धमकाने का आरोप भी लगाया गया है. राज्य सरकार के वकील ने तो यहां तक कह दिया कि मामला बहुत पुराना है और इसमें कोई मेरिट नहीं है. अदालत ने हालांकि राज्य सरकार द्वारा जवाबी हलफनामे पर जोर दिया है.
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ज्यादतियों के खिलाफ कानून बनाने से इनकार

न्याय प्रक्रिया को कमजोर करने के खिलाफ मौजूद प्रमुख अंतरराष्ट्रीय डॉक्यूमेंट "इंटरनेशनल कॉवनेंट ऑन सिविल एंड पॉलीटिकल राइट्स,1966" का अनुच्छेद 14(6) कहता है कि अगर किसी की सजा को उलट दिया जाता है तो उस सजा से पीड़ित उस व्यक्ति को कानून के अनुसार मुआवजा दिया जाना चाहिए .अनुच्छेद 9(5) गैरकानूनी गिरफ्तारी और नजरबंदी के खिलाफ मुआवजे का प्रावधान करता है.

हालांकि यह राज्य पर निर्भर था कि वे इस उद्देश्य के लिए कानून बनाएं. बावजूद इसके कि भारत ने ICCPR को 1979 में स्वीकार किया था, उसने कानून बनाने से इंकार कर दिया. साधारण कारण यह है कि भारत राज्य ऐसा नहीं करना चाहता है क्योंकि ऐतिहासिक रूप से भारत में राज्य के पास पूर्ण शक्तियां मौजूद रही हैं. निरंकुश राज्य के इमेज को नुकसान होगा यदि वह लोगों को उन पर किए गए ज्यादती के लिए क्षतिपूर्ति देने को बाध्य हो जाए.

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पुलिस अत्याचार के खिलाफ कानून बनाने में विफलता

भारत ने केवल 14 अक्टूबर 1997 को 'कन्वेंशन अगेंस्ट टॉर्चर एंड अदर क्रुएल, इनह्यूमन एंड डिग्रेडिंग ट्रीटमेंट ऑर पनिशमेंट' पर हस्ताक्षर किया है.इसे 9 दिसंबर 1975 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा अपनाया गया था.

कन्वेंशन को लागू करने के लिए ‘टॉर्चर’ शब्द को परिभाषित और सजा तय करने के लिए कन्वेंशन के अनुरूप घरेलू कानूनों को बनाने की जरूरत है. लेकिन यही नहीं किया जा रहा है .ऐसा ना करके भारत सूडान,ब्रूनेई, बहामास, साओ टोम एंड प्रिंसिपे, अंगोला, कोमोरोस,गांबिया, पलाऊ सहित आठ देशों के साथ एक कतार में खड़ा है. इन देशों की सूची ही बहुत कुछ कहती है और मानवाधिकारों के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को बयां करती है.
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भारतीय अल्पसंख्यक, गरीब और हाशिए पर पड़े लोग पुलिस के हाथों जो ज्यादती झेलते हैं वह व्यक्तिगत नस्लवाद, सांप्रदायिकता,जातीय या आर्थिक भेदभाव से भी बुरा है क्योंकि इस कवायद के पीछे राज्य उन्हें देशद्रोही के रूप में पेश करता है.जिस दिन भारत में जॉर्ज फ्लॉयड मामले जैसा फैसला होगा उस दिन जनता राहत की सांस ले सकेगी कि सामाजिक न्याय को पूरा करने वाले राज्य की ओर भारत ने अपना पहला कदम बढ़ाया है.

(डॉ. एन. सी. अस्थाना एक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं. वह केरल के डीजीपी और सीआरपीएफ तथा बीएसएफ के एडीजी रह चुके हैं. वह @NcAsthana पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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