अमेरिका के मिनियापोलिस शहर में जॉर्ज फ्लॉयड की बर्बर हत्या की खबर पढ़ी तो पूर्वी दिल्ली के फैजान की याद आ गई. इसी साल फरवरी में दिल्ली हिंसा में फैजान ने दम तोड़ा था. जॉर्ज फ्लॉयड और फैजान में फर्क सिर्फ इतना है कि दोनों दो अलग अलग देशों में अलग-अलग समुदायों के थे.
जॉर्ज फ्लायड अमेरिकी ब्लैक था, और फैजान हिंदुस्तानी मुस्लिम. दोनों अपने अपने देशों में अपनी नस्लीय और धार्मिक पहचान के चलते पूर्वाग्रहों के शिकार हुए. पुलिस की रक्षक की भूमिका, भक्षक में बदल गई. दोनों मामलों में पुलिस का कृत्य नृशंस रहा, उससे भी बढ़कर किसी नस्ल या धर्म के विरुद्ध मन में जमी घृणात्मक हिंसा का.
फ्लॉयड के सहारे याद कीजिए कि फैजान कौन था
चार महीने बाद हम फैजान को फिर से याद कर लेते हैं. अमेरिका में फ्लॉयड की तरह फैजान को किसी दुकान में धोखाधड़ी करने के लिए गिरफ्तार नहीं किया गया था. वह शायद सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करती अपनी मां की तलाश करने घर से निकला था. जब उसे और उसके साथियों को प्रदर्शनकारी महिलाओं पर पुलिसिया हमले की आशंका हुई तो लड़कों ने ह्यूमन चेन बनाकर औरतों की हिफाजत करने की सोची. पर पुलिस के हत्थे चढ़ गए. पुलिस ने बेइंतहा पीटा और जमीन पर पटककर लड़कों से वंदे मातरम गाने को कहा.
वंदे मातरम गाते जमीन पर लेटे फैजान का वीडियो वायरल हुआ.उसके कुछ दिन बाद फैजान ने अस्पताल में दम तोड़ दिया. उसके मुकाबले पुलिस ऑफिसर के घुटने से दबी गर्दन के साथ फ्लॉयड सिर्फ इतना ही कह पाया- मैं सांस नहीं ले पा रहा. और कुछ घंटों बाद सचमुच फ्लॉयड की सांसें उखड़ गईं.
सीमाओं से परे दो वारदात, एक से महसूस होते हैं- फर्क सिर्फ विरोध करने वालों के बीच है. अमेरिका में व्हाइट प्रिविलेज पर लोग शर्मसार हो रहे हैं- भारत में ऊंची जाति और धर्म को शौर्य और गर्व का विषय माना जाता है. फ्लॉयड की हत्या पर दुखी होने वाले बहुत से भारतीय लोगों को फैजान की हत्या ऐतिहासिक गुस्से की न्यायोचित अभिव्यक्ति लगती है.
जब प्रिविलेज का सही इस्तेमाल होता है
फ्लॉयड की हत्या के बाद अमेरिका में लोग नस्लीय हिंसा के खिलाफ सड़कों पर हैं. कहीं पुलिस स्टेशन जलाए गए हैं, कहीं होटल रेस्त्रां. इनमें बड़ी संख्या में व्हाइट लोग भी हैं. दो दिन पहले कैंटुकी में ब्लैक प्रदर्शनकारियों को पुलिस से बचाने के लिए व्हाइट लोगों ने एक ह्यूमन चेन बना ली.
इसकी एक तस्वीर सोशल मीडिया पर चली तो एक शख्स ने लिखा- यह भाईचारा है. आपको अपने प्रिविलेज का इस्तेमाल ऐसे करना चाहिए. बेशक, अमेरिका में व्हाइट होना एक प्रिविलेज ही है. जैसे अपने यहां ऊंची जाति का हिंदू होना. अमेरिका में व्हाइट
प्रिविलेज पश्चाताप, क्षमायाचना और अनुशोच कर रहा है. वह जानता है कि अश्वेतों के प्रति अमेरिका में जो जघन्य कृत्य होते रहे हैं, उनके कारण पूरी दुनिया के सामने उनका सिर हमेशा के लिए कुछ नीचा हो गया है.
अमेरिका में व्हाइट प्रिविलेज पर 1988 में पेगी मैकिन्तोष जैसी स्कॉलर और एक्टिविस्ट ने एक लेख लिखा था- व्हाइट प्रिविलेजः अनपैकिंग द इनविजिबल नैपसैक. इसे हम अपने यहां की अगड़ी जातियों पर लागू कर सकते हैं. इस लेख में पाठकों को यह पहचानने में मदद मिलती है कि श्वेत होना कितना बड़ा विशेषाधिकार है. ज्यादातर लोगों को यह महसूस नहीं होता कि श्वेत होने के चलते उन्हें कितने विशेषाधिकार मिले हुए हैं.
यह वैसा ही ही जैसे मछलियों को कभी पानी, और पक्षियों को कभी हवा की खबर नहीं होती. जैसे आप किसी स्टोर में जाएं और देखें कि मेन डिस्प्ले में रखी चीजें कैसे आपके हेयर टाइप और स्किन टोन से मेल खाती हैं. जैसे आप टीवी चलाएं और देखें कि टेलीविजन शोज में आपके नस्ल के लोगों को ही अधिकतर प्रतिनिधित्व मिलता है. जैसे भारत में आप किसी भी इलाके में मकान खरीद सकें, किराए पर ले सकें. आप अपने टिफिन में गोश्त लेकर जाएं और आप पर हमला न हो. फ्लॉयड की हत्या के बाद अमेरिका में व्हाइट प्रिविलेज का बार-बार जिक्र हो रहा है. लोग दोहरा रहे हैं कि रंग भेद को समाप्त करने का जिम्मा दरअसल व्हाइट लोगों पर है.
भारत में धार्मिक या जातिगत पूर्वाग्रहों को समाप्त करने का जिम्मा किसका है-
भारत में यह जिम्मा बहुसंख्यकों और अगड़ी जातियों का है. इंसानियत, हमदर्दी दिखाने का और इंसाफ के सवाल करने का. पर कहीं वह मूक तमाशबीन बना खड़ा है, कहीं दबंगई से ऐलान कर रहा है. कोरोना संकट के दौर में तो तबलीगी जमात के बहाने मुसलमानों के खिलाफ पुरानी नफरत दर्शा रहा है.
यह नफरत का ही नतीजा है कि हाशिए पर पड़े समुदाय मुसलमान, दलित और आदिवासियों की संख्या भारतीय जेलों में सबसे अधिक है. 2018 की नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती हैं कि उनकी संख्या लगभग दो तिहाई है. जबकि 2011 के जनगणना के आंकड़ों में मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों का हिस्सा क्रमशः 14.2%, 16.6% और 8.6% है. ऐसा ही अमेरिकी जेलों का भी हाल है. अमेरिका में ब्लैक्स की आबादी 12% है और जेलों में उनकी संख्या 33% है.
अपने प्रिविलेज का इस्तेमाल कर धार्मिक, नस्लीय या जातिगत नफरत कैसे खत्म की जा सकती है- इसे न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न और लंदन के मेयर सादिक खान से सीखा जा सकता है. जेसिंडा ने 2019 में न्यूजीलैंड की मस्जिदों पर हुए हमले के बाद मुसलमान औरतों को गले लगाकर तसल्ली दी थी. उन्होंने एक राजनेता होने के नाते अल्पसंख्यकों से माफी भी मांगी थी. इसी तरह 2017 में लंदन के मेयर सादिक खान ने अमृतसर में जलियांवाला बाग जाकर करीब सौ साल पहले के हत्याकांड के लिए क्षमा याचना की थी.
पर भारत की ही तरह अमेरिका में भी शीर्ष नेतृत्व की भूमिका पर सवाल खड़े होते हैं
फ्लायड की हत्या के बाद अमेरिका के शीर्ष नेतृत्व ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. हां, जब प्रदर्शनकारी मिनियापोलिस के अलावा फ्लोरिडा, जैक्सनविल, लॉस एंजेलिस, पीटसबर्ग, न्यूयॉर्क समेत कई जगहों पर धरना दे रहे हैं और हिंसा भड़क रही थी तो राष्ट्रपति ट्रंप ने प्रदर्शनकारियों को धमकाया कि धरने की आड़ में बल का इस्तेमाल ना करें. अगर वे ऐसा करेंगे तो गोलियां चलानी पड़ेंगी.
इसी तरह भारत में नागरिकता एक्ट के समय, जब लोग सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे, तब केंद्र में सत्ता में बैठी भाजपा के बड़े नेता जहरीले भाषण दे रहे थे- प्रदर्शनकारियों को गालियां देते हुए गोली से मारने की धमकी दे रहे थे. बता रहे थे कि शाहीन बाग में जुटने वाले लोग मां बेटियों का रेप करेंगे. भविष्यवाणी कर रहे थे कि ईवीएम मशीन के बटन से कितनों को करंट लगने वाला है. दिल्ली हिंसा के समय आम आदमी पार्टी का आला नेतृत्व भी शांत बैठा रहा. ये सब मिलजुलकर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अल्पसंख्यक विरोधी जमावड़ों को उकसाने का ही काम करते रहे.
जब राजनीतिक नेतृत्व अपने प्रिविलेज का इस्तेमाल न करे तो यह कायरता, चालाकी और नैतिक दुर्बलता, तीनों हो सकती है. फ्लॉयड या उससे पहले के अश्वेतों और फैजान या उससे पहले के मुसलमानों, सभी के सिलसिले में यही बात लागू होती है. किसी भी समाज और देश में बहुसंख्यकों, ऊंची नस्लों और अगड़ी जातियों को आत्मालोचना की जरूरत है. उन्हें अप्रिय को देखने और इस देखने को, दिखाने की भी जरूरत है. अमेरिका में यह समझा जा रहा है- भारत में भी जल्द महसूस किया जाना चाहिए.
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