गांधी परिवार (Gandhi family) के प्रति पूरी तरह से वफादार रहे गुलाम नबी आजाद (Ghulam Nabi Azad) का एक असंतुष्ट नेताओं समूह के लीडर के तौर पर उभरना असंभव प्रतीत होता था. इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जी-23 (G-23) द्वारा जिस प्रत्याशित विद्रोह की आशंका जताई जा रही थी वह एक फुस्सी बम निकला.
असंतुष्ट और निराश नेताओं के साथ दो डिनर मीटिंग और कपिल सिब्बल द्वारा दिए एक तीखे इंटरव्यू के बावजूद, जिसमें जिसमें गांधी परिवार से पद छोड़ने की मांग की गई थी, आजाद ने सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) के साथ शांतिपूर्वक रुख अपनाया और किसी प्रकार का विवाद नहीं दिखाया. सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद गुलाम नबी आजाद ने कहा लीडरशिप यानी नेतृत्व परिवर्तन की कोई जरूरत नहीं है. आजाद के इस बयान से जी 23 यानी विरोधी खेमे की हवा निकल गई.
कांग्रेस में अफवाह हैं कि गांधी परिवार ने उनके साथ एक "सौदा" किया है और उनके सपोर्ट के बदले में उन्हें राज्यसभा सीट देने का आश्वासन दिया है. देश भर में पार्टी की घटती उपस्थिति को देखते हुए, यह अनुमान लगाना असंभव है कि उन्हें कहां से राज्यसभा भेजा जाएगा. अगर इस तरह से कोई वादा किया गया भी गया है तो आजाद इस पर भरोसा करें इतने मूर्ख नहीं हैं.
कांग्रेस के बहुत ज्यादा ऋणी हैं गुलाम नबी आजाद
जो कोई भी आजाद की पृष्ठभूमि और कांग्रेस में उनके तेजी से उभार से परिचित होगा वह इस बात की भविष्यवाणी आसानी से कर सकता कि आजाद के नेतृत्व में इस विद्रोह का शर्मनाक अंत होगा. सोनिया गांधी का सामना करने या चुनौती देने की हिम्मत आजाद कभी भी नहीं कर सकते थे और न कभी भी कर सकते है. वह पार्टी के पहले परिवार के बहुत अधिक ऋणी हैं. 1978 में जब संजय गांधी द्वारा उन्हें चिन्हिंत किया गया तब जम्मू के एक सुदूर गांव में युवा कांग्रेस के ब्लॉक अध्यक्ष के रूप में आजाद ने अपना राजनीतिक जीवन शुरू किया था उस समय उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वह कितनी दूर जाएंगे.
कांग्रेस में कई अन्य लोगों की तरह आजाद को भी राहुल गांधी से किसी बात की समस्या या असहमति हो सकती है, लेकिन कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में सोनिया ने एक बार फिर से जिस तरीके अपने बच्चों के चारों ओर सुरक्षात्मक पल्लू फेंका, जिसमें इस्तीफा देने के साथ ही किसी तरह के "बलिदान" देने की पेशकश की गई, तब आजाद को इस बात का अहसास हो गया कि अब खेल खत्म हो चुका है. आजाद की तरह ही G-23 में आनंद शर्मा और मुकुल वासनिक सहित कई अन्य भी हैं जिनको गांधी परिवार से भरोसे और उदारता का लाभ मिला है, ये सोनिया गांधी का सामना करने से हिचकिचाएंगे.
आजाद के राजनीतिक जीवन से गांधी परिवार अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है. जब आजाद जम्मू-कश्मीर में राजनीति के छोटे खिलाड़ी थे तब संजय गांधी ने ही उन्हें खोजा था. उन्हें जम्मू और कश्मीर युवा कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया और फिर 1980 में महाराष्ट्र से 31 साल की छोटी उम्र में उन्हें लोकसभा के लिए चुना गया. हालांकि आजाद का उस राज्य (महाराष्ट्र) से कोई लेना-देना नहीं था.
इसके तुरंत बाद एक दुखद विमान दुर्घटना में संजय गांधी की मौत हो गई, लेकिन उनके भाई और उत्तराधिकारी राजीव गांधी को जल्दी ही इस बात का अहसास हो गया कि संजय ने आजाद में क्या दिखा था और इसके बाद उन्होंने राजनीतिक प्रबंधन में आजाद की प्रतिभा का पूरा उपयोग किया. 1980 में राजीव ने आजाद को अखिल भारतीय युवा कांग्रेस का प्रमुख बनाया और इसके बाद आजाद जल्द ही पहले इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में और फिर राजीव के मंत्रिमंडल में केंद्रीय मंत्री बने थे.
मंत्री पद गया लेकिन सबसे कम उम्र के महासचिव बने
1987 में एक विवाद की वजह से आजाद को अपना मंत्री पद छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था, लेकिन वह कंट्रोवर्सी आजाद को कांग्रेस का महासचिव नियुक्त करने से राजीव गांधी को नहीं रोक पाई. जब राजीव ने जम्मू के 38 वर्षीय आजाद को यह पद दिया तब वह (आजाद) सबसे कम उम्र के महासचिव थे. अपनी बराबरी लोगों में भी सबसे ऊपर थे. उनकी स्थिति का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उन्हें मुख्यालय में एक कमरा आवंटित किया गया था, जो पहले पार्टी अध्यक्षों के लिए आरक्षित रहता था.
आजाद ने वर्षों से गांधी परिवार के लिए खुद को एक प्रबंधक, सलाहकार और जैक ऑफ ऑल-ट्रेड्स के रूप में इतना उपयोगी साबित किया कि वह इस परिवार के लिए अपरिहार्य हो गए हैं. पार्टी की ओर से उन्हें सौंपे गए कार्यों की सूची लंबी और विविध है. क्योंकि पार्टी ने उनकी क्षमताओं का पूरा उपयोग दोस्त बनाने और नेताओं को प्रभावित करने, उंगलियों पर भीड़ की व्यवस्था करने में किया. उन्होंने हर संकट से बाहर निकलने के तरीके सुझाये और अपने नेता की ओर से धन और संसाधनों का प्रबंधन भी किया.
1998 में जब सोनिया गांधी ने अध्यक्ष के रूप में पद संभाला, तो पार्टी में आजाद से ईर्ष्या रखने वाले प्रतिद्वंद्वियों को इस बात की उम्मीद थी कि नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री रहते हुए आजाद की उनसे निकटता के कारण पार्टी में आजाद का कद नीचे गिर जाएगा. लेकिन आश्चर्यजनक रूप से आजाद का कुछ नहीं बिगड़ा. सोनिया ने लोकसभा के लिए अपने पहले चुनाव अभियान का प्रबंधन करने के लिए आजाद को बेल्लारी भेजकर उनपर अपना विश्वास जताया.
कांग्रेस में यह व्यापक रूप से माना जाता है कि आजाद ने बीजेपी और वाजपेयी सरकार को चतुराई से पछाड़ने के लिए बेल्लारी का सुझाव दिया था. क्योंकि बीजेपी और वाजपेयी सरकार इस बात को लेकर आश्वस्त थी कि सोनिया गांधी आंध्र प्रदेश के मेडक से चुनावी शुरुआत करेंगी, जोकि 1977 की जनता पार्टी की लहर में रायबरेली चुनाव हारने के बाद इंदिरा गांधी की सुरक्षित ठिकाना था.
आजाद और पटेल की विशेष दोस्ती
किसी भी संगठन में होने वाली साजिश जो कांग्रेस की राजनीति की पहचान है. उसने आखिरकार अपना असर दिखाया और सोनिया के मुख्य राजनीतिक प्रबंधक और सलाहकार के रूप में आजाद के स्थान पर अहमद पटेल को लाया गया. लेकिन इसके बावजूद भी आजाद उनके आंतरिक घेरे का हिस्सा बने रहे.
आजाद और पटेल की असामान्य दोस्ती से कांग्रेस में कई लोग हैरान थे. वे प्रतिद्वंद्वी थे फिर भी वे गांधी परिवार के प्रति समर्पण से बंधे हुए थे.
दरअसल कांग्रेस में एक थ्योरी है कि G-23 का गठन सोनिया गांधी को चुनौती देने के लिए नहीं बल्कि राहुल गांधी को रिटायर करने और उनकी जगह प्रियंका को लाने के लिए मजबूर करने के लिए किया गया था. सोनिया के समर्थकों जैसे पटेल और आजाद ने राहुल को काम करने के लिए बहुत चुभनेवाला और मनमौजी माना और प्रियंका को पसंद किया, जो अपने भाई की तुलना में मजबूत संचार कौशल और मतदाताओं के साथ बेहतर तालमेल रखती थी.
जी-23 में कई लोगों की तरह आजाद का भी निश्चित रूप से सोनिया के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व करने का कोई इरादा नहीं था. सिब्बल, शंकर सिंह वाघेला, संदीप दीक्षित और अन्य जैसे नेता, जिनका अपनी राजनीति के लिए परिवार से कोई संबंध नहीं था वे जी-23 में विद्रोह के लिए जोर दे रहे थे.
वे विफल रहे क्योंकि आजाद की तरह, कांग्रेस में कुछ लोग परिवार को संभालना चाहते हैं. कांग्रेस के पास कर्नाटक में डीके शिवकुमार जैसे कई मजबूत क्षेत्रीय नेता हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश ने पार्टी में विभाजन का समर्थन करने से इनकार कर दिया है.
अंतिम विश्लेषण में, आजाद बस वही दर्शाते हैं जो आज कांग्रेस है : परिवार के प्रति समर्पित, वर्षों से प्राप्त राजनीतिक अहसानों के लिए ऋणी और गांधी परिवार के खिलाफ लड़ने के लिए के आड़े आती वफादारी.
(आरती आर जेराथ दिल्ली की एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. वह ट्विटर पर @AratiJ के नाम से ट्वीट करती हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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