सितंबर 2018 में पत्रकार गौरी लंकेश की पुण्यतिथि कार्यक्रम में पहुंचे गिरीश कर्नाड ने अपने गले में तख्ती लटका रखी थी- मैं भी अर्बन नक्सल. उन्होंने अपनी कला को सिर्फ रंगमंच और किताबों तक सीमित नहीं रखा . वह हमेशा मुखर रहे और प्रतिक्रियावादी ताकतों के खिलाफ सड़क पर उतर कर विरोध दर्ज किया. बेहद बीमार होने के बावजूद वो इन ताकतों की मुखालफत से पीछे नहीं हटे.
गणित की दुनिया से कला के आसमान तक का सफर
जिस वक्त वह इस कार्यक्रम में आए, उनकी नाक में पाइप लगी हुई थी. गले में लटकी ‘अर्बन नक्सल’ की तख्ती आदिवासी इलाकों में काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को ‘अर्बन नक्सल’ के नाम पर निशाना बनाने और कई लेखकों पर हमलों और हत्याओं के विरोध में थी.
गिरीश कर्नाड का जन्म 19 मई 1938 को महाराष्ट्र के माथेरान में हुआ था. वह साहित्य और उसमें भी विशेष कर नाटकों में आने से पहले गणित के होनहार विद्यार्थी रह चुके थे. वह गणित की सर्वोच्च परीक्षा में सफल होकर रोड्स स्कॉलर के रूप में ऑक्सफोर्ड गए. इंग्लैंड में उन्होंने दर्शन, अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र की पढ़ाई की. 1962-63 में वह ऑक्सफोर्ड यूनियन के अध्यक्ष चुने गए.
गिरीश ने 1963 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस मद्रास में नौकरी शुरू की. पर 1970 में भाषा फेलोशिप के बाद नौकरी से त्यागपत्र और स्वतंत्र लेखन की शुरुआत की. दूरदर्शन के बहुचर्चित धारावाहिक ‘मालगुडी डेज’ में स्वामी के पिता के रूप में नजर आए गिरीश कर्नाड ने नाट्य लेखन और रंगकर्म को सर्वोपरि रखा.
1970 से पहले उनका लिखा पहला नाटक ‘ययाति’ आ चुका था. तब वह मात्र 23 साल के थे. बाद में आए नाटक ‘तुगलक’ से उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर नाटककार के रूप में प्रतिष्ठा हासिल हुई. ‘तुगलक’ का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ .उन्हें ‘तुगलक’ के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार दिया गया.
क्लासिक बन चुके हैं गिरीश कर्नाड के नाटक
वसुधा पत्रिका के पूर्व संपादक राजेंद्र शर्मा कहते हैं, “उनके नाटक इंडियन क्लासिक्स में गिने जाते हैं. कलात्मक प्रयोगों से उन्होंने कभी गुरेज नहीं किया, घबराए नहीं. वह अपने समय के एक सक्रिय बुद्धिजीवी थे. उन्होंने अन्याय के खिलाफ और भारतीय सेक्यूलर मूल्यों के पक्ष में हमेशा खुलकर अपनी राय रखी. प्रतिरोध के हर मोर्चे पर गिरीश कर्नाड की उपस्थिति अनिवार्य थी. किसी भी मोर्चे से हमने उन्हें गायब नहीं पाया. वह एक लोक बुद्धिजीवी थे.”
गिरीश के नाटक ऐतिहासिक तथ्यों या लोक कथाओं में बुने हुए होते हैं. पर उन नाटकों में मौजूद विषय और बिम्ब आज के समाज को आईना दिखा रहे होते हैं. उनके नाटक तुगलक का मुख्य किरदार आज के समय में किसी भी महत्वाकांक्षी और समाज में बदलाव चाहने वाले शख्स के भीतर और आसपास का द्वन्द हो सकता है. तुगलक को उस वक्त वही दिक्कतें आईं, जो आज सपने देखने वाले किसी भी शख्स को आएंगी.
उनके बहुचर्चित नाटक ‘तुगलक’ की भूमिका में इब्राहिम अल्काजी ने कहा था-
तुगलक ने पाया कि उसकी योजना में उसके सर्वाधिक विश्वस्त व्यक्ति ही धोखा देते हैं. उसे कोई नहीं समझता, उसके सपनों का कोई भागी नहीं बनता. अपने क्षुद्र हितों से हटकर देख पाने की किसी में क्षमता नहीं है. धोखे और विद्रोह के अतिरिक्त और किसी बात को कोई सोच नहीं पाता. अंत में उसकी अपनी सौतेली मां भी, जिसके प्रति उसे लगाव है उसे धोखा देती है.
इसी भूमिका में आगे अल्काजी कहते हैं, कर्नाड की सूझ-बूझ कभी नहीं डगमगाती, उनके सभी चरित्र मांसमज्जा और प्राणों की उमंग से भरे-पूरे चरित्र हैं. और प्रत्येक पात्र अपनी-अपनी विशेष बोली में बात करता है. कर्नाड के नाटकों में स्त्री-पुरुष के संबंधों का तनाव भी एक महत्वपूर्ण अंग रहा है.
नाटक ‘हयवदन’ में ही देखें, जिसके बारे में डॉ. रामगोपाल बजाज कहते हैं पुरुष की अपूर्णता (मनुष्य की अपूर्णता) को विभिन्न कालखंडों में रखकर अनेक नाटक लिखे गए हैं. ‘आधे-अधूरे’, ‘द्रौपदी’, ‘सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ आदि में भी ये ध्वनि है. इन सभी नाटकों में स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर किसी या कुछ बिंदुओं से त्रिकोण बनते हैं. ‘हयवदन’ की उपकथा में मनुष्य के पूर्ण मनुष्य होने से आरम्भ होकर शरीर और मस्तिष्क दोनों की श्रेष्ठता की कामना मुख्य कथा में प्रदर्शित की जाती है .
नरेंद्र मोदी को पीएम कैंडिडेट के तौर पेश करने का किया था विरोध
गिरीश कर्नाड ने कई किल्मों में लेखन और अभिनय किया, जो कई भाषाओं में थीं. उन्हें बीवी कारन्त के साथ राष्ट्रीय पुरस्कार और फिल्मफेयर पुरस्कार मिला. 1974 में उन्हें पद्मश्री और 1992 में पद्मभूषण पुरस्कार मिले.
उनके मुखर होने और दिल की बातों को खुल के रख देने के कारण कई विवादों ने भी जन्म लिया. उन्होंने 2012 में कहा था कि रवींद्र नाथ टैगोर एक सेकेंड रेट नाटककार हैं. 2015 में उन्होंने कहा था कि बेंगलुरू के intenational airport का नाम टीपू सुल्तान के नाम पर होना चाहिए. इससे पहले वह बेहद मुखर होकर नरेंद्र मोदी को प्राइम मिनिस्टर कैंडिडेट के रूप में पेश करने का विरोध कर चुके थे .
उन्होंने अपने जीवन को अपने रचे गए किसी किरदार की तरह जिया, जिसमें बेहद रंग थे. बेहद संगीत और बेहद खुशबू. उन्होंने जो महसूस किया वो लिखा और कहा और खुलकर कहा और हर मंच पर कहा. उन्होंने कभी भी मंच के रंग देखकर अपने विचार नहीं बदले. गिरीश कर्नाड के बिना न ‘मालगुडी डेज’ हो सकता था. न उत्सव, निशांत और न मंथन जैसी फिल्में. न ही कभी फिरोजशाह कोटला पर तुगलक जैसा नाटक खेला जा सकता था. गिरीश कर्नाड थे, इसलिए ये सब हो पाया. जाने के बाद भी गिरिश कर्नाड हैं और रहेंगे....
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)