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OPINION | क्या हिन्दू युवा वाहिनी की नाराजगी से BJP हारी गोरखपुर? 

कम समय में मजबूत हुई हिंदू युवा वाहिनी

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सीएम योगी की सीट समाजवादी पार्टी उड़ा ले गई. ऐसा लगता है कि जैसे पूरा देश जीत कर भी बीजेपी सब कुछ हार गई. बीजेपी ने शायद ही देश की किसी दूसरी सीट पर जीत का इतना हक रखा होगा, जितना गोरखपुर पर था. फिर भी गोरखपुर सीट कैसे हार गई ?

कहीं हार की वजहों में योगी की 'हिन्दू युवा वाहिनी' तो नहीं, जिस पर कुछ महीनों पहले अघोषित बैन लगाया गया था, या फिर खुद बीजेपी उम्मीदवार, जो गोरखनाथ पीठ से बगावत कर चुके हैं?

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हिंदू युवा वाहिनी का जलवा

28 सालों से गोरखपुर सीट पर गोरखनाथ पीठ का कब्जा रहा है. मठ से बाहर का कोई भी यहां से सांसद नहीं बन सका. गोरखपुर की राजनीति में मठ का वर्चस्व काफी पुराना है. 1967 में पीठ के महंत दिग्विजयनाथ संसद पहुंचे थे. बाद में मठ बीजेपी के साथ जुड़ गया.

1998 में पहली बार सांसद बने 28 वर्ष के योगी आदित्य नाथ 1999 के लोकसभा चुनाव में बड़े ही मशक्कत से महज 7 हजार वोट से जीते. जिसके बाद उन्होंने हिंदू युवा वाहिनी नाम की अपनी सेना बनाई.

हिंदू युवा वाहिनी यानी एक ऐसा संगठन जो सिर्फ जोशीले नौजवानों की फौज थी. और नेतृत्व 28 साल के गेरुआधारी योगी के हाथ में था. कट्टर हिंदूवादी बोल वाले योगी के पास वो सब कुछ था जो किसी भी नौजवान को आसानी से प्रभावित कर सके.
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कम समय में मजबूत हुई हिंदू युवा वाहिनी

योगी बड़ी पीठ के महंत थे जिनके पास न तो पैसे और न ही प्रभाव की कमी थी. लिहाजा आस्था और दबदबे के मेल ने उन्हें इतनी ताकत दे दी कि गोरखपुर में उनका राज सा हो गया. ताकि वो गोरखपुर पर राज कर सकें.

हिंदू युवा वाहिनी कुछ ही समय में काफी मजबूत बन कर उभरी. योगी का सपना साकार होने लगा, युवा वाहिनी की ताकत और बूथ मैनेजमेंट से योगी 2002 में 1.42 लाख वोटों से जीते. और जीत का आंकड़ा 2014 तक लगातार बढ़ता ही रहा.

साथ ही युवा वाहिनी भी मठ से निकल कर गोरखपुर होते हुए पूरे पुर्वांचल में छा गई. आजमगढ़, मऊ, गाजीपुर, बस्ती. पडरौना, सिद्धार्थ नगर, देवरिया में हिंदु युवा वाहिनी को अच्छी ताकत मिली. और योगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद तो पूरे प्रदेश में हिंदू युवा वाहिनी का सदस्य बनने की होड़ लग गयी.

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बीजेपी से ज्यादा हिंदू युवा वाहिनी में जोश

यूपी में सरकार बनी तो बीजेपी से ज्यादा विजय जुलूस में हिंदू युवा वाहिनी के झंडे दिखे. जिसे पचा पाना बीजेपी के लिए मुश्किल हो गया.

ऐसे में मुख्यमंत्री बनने से चूके केशव प्रसाद मौर्या ने योगी सेना के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. जो योगी और मौर्या के बीच खटास का भी बड़ा कारण बना. सूत्रों के मुताबिक, दोनों के बीच संघ के एक बड़े पदाधिकारी ने पंचायत भी की और हिंदू युवा वाहिनी की पाबंदी पर रजामंदी हुई. करीब 17 साल की हिंदू युवा वाहिनी पर योगी ने अघोषित बैन लगा दिया.

अराजकता और राजनैतिक लाभ लेने जैसे तमाम आरोप लगा सदस्यों और पदाधिकारियों का हटाया गया. निकाय चुनाव में सालों से उम्मीद पाले हिंदू युवा वाहिनी को दरकिनार कर दिया गया. जिससे बाद में युवा वाहिनी में निराशा बढ़ने लगी. जिसका नुकसान गोरखपुर में साफ तौर पर दिखा.

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गोरखपुर उपचुनाव में हिंदू युवा वाहिनी ने लिया बदला

1999 के बाद से गोरखपुर में योगी के चुनाव का संचालन हिन्दू युवा वाहिनी करती चली आ रही थी. मंच से लेकर पोस्टर तक सब कुछ युवा वाहिनी ही संभालती थी. योगी की सभा में भीड़ जुटानी हो या फिर बूथों का मैनेजमेंट. योगी सेना पूरी तरह से मास्टरमाइंड हो चुकी थी.

चुनाव के दौरान पूरे प्रदेश से युवा वाहिनी के सदस्य गोरखपुर पहुंचते थे और मठ में ही कैम्प करते थे. जो हिंदुत्व के नाम पर मजबूत ताकत बनते थे. और इनकी संख्या भी हजारों में होती थी.

पार्टी और प्रत्याशी चाहे जितना भी प्रभावशाली हो, बिना बुलाये और बगैर पैसा खर्च किये इतने लोगों की भीड़, वो भी निष्ठावान, एक साथ इकट्ठा कर पाना बहुत ही मुश्किल है. योगी की युवा वाहिनी भाजपा के बिना किसी मदद के ही अच्छे वोटों से जिताती थी.

इस उपचुनाव में योगी तो थे लेकिन उनकी सेना हिंदू युवा वाहिनी लगभग गायब रही. बाहरी जिलों से एक भी कार्यकर्ता गोरखपुर नहीं पहुंचा और स्थानीय युवा वाहिनी के नेता दूर से बीजेपी की बर्बादी देख रहे थे. जिसका एहसास भी बीजेपी को नहीं था.
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पहली बार पीठ से बाहर निकला चुनाव संचालन

शुरू से ही गोरखपुर में बीजेपी का चुनावी वॉररुम गोरखनाथ पीठ के परिसर में बनता था. यहीं से विपक्षियों पर चुनावी हथकंडों की वार होती थी. और सबसे बड़ा अस्त्र तो यहां की आस्था थी. जो पीठ से निकलने वाले हर संदेश को आस्था के कारण गंभीर बना देती थी. जिसके हमले से जातीय समीकरण हर बार तार-तार हुआ करता था.

3 लाख से ज्यादा निषाद वोटर होने के बावजूद योगी को कभी हार नहीं मिली. लेकिन बीजेपी शायद पीठ की इस ताकत को या तो समझ नहीं पाई या फिर खुद को पीठ से अलग स्थापित करने के लिए ऐसा जोखिम भरा कदम उठाया. और पहली बार चुनाव कार्यालय पीठ से बाहर बना. जो यह संदेश देने के लिये काफी था कि इस बार पीठ नहीं बल्कि बीजेपी चुनाव लड़ रही है.

योगी को काफी संख्या में आस्था के कारण दलितों और पिछड़ों का भी वोट मिलता था. वह इस बार पीठ के इस बंधन से मुक्त होकर जातीय समीकरण की मजबूती का कारण बना.

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कौड़ीराम उपचुनाव में बगावत की थी उपेंद्र शुक्ला ने

योगी आदित्य नाथ और गोरखपुर से बीजेपी प्रत्याशी बने उपेंद्र दत्त शुक्ला में सालों से 36 का आंकड़ा रहा है. शुक्ला कौड़ीराम विधानसभा से बीजेपी से चुनाव लड़ते थे.लेकिन 2005 उपचुनाव में उपेंद्र का टिकट काट कर बीजेपी ने योगी के चहेते शीतला पांडेय को दिया. जिससे नाराज शुक्ला बगावत कर निर्दलीय के रूप में योगी के सामने मैदान में उतर आये. जिससे एसपी के राम भुआल निषाद जीत गये.

इतना ही नही, उपेंद्र शुक्ला शुरू से ही योगी के विरोधी खेमे के नेता शिवप्रताप शुक्ला के करीबी रहे. शिवप्रताप शुक्ला केंद्र में पिछले मंत्रिमंडल विस्तार में मंत्री बने. 2002 में योगी ने बीजेपी के टिकट से लड़ रहे शिवप्रताप शुक्ला के खिलाफ हिंदू महासभा से राधे मोहन दास अग्रवाल को लड़ाया. लिहाजा पांच बार से लगातार विधायक रहे शिवप्रताप हार गए थे.

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योगी अपने पुजारी को लड़ाना चाहते थे

बताया जा रहा है कि गोरखपुर उपचुनाव में योगी आदित्य नाथ गोरखनाथ पीठ के पुजारी कमलनाथ को लड़ाना चाहते थे, लेकिन पार्टी को किसी ब्राह्मण चेहरे की तलाश थी. ऐसे में योगी ने ब्राह्मण प्रत्याशी के तौर पर पार्षद रहे हरिप्रकाश मिश्र के नाम को आगे बढ़ाया. लेकिन हाईकमान ने शिवप्रताप शुक्ला के करीबी उपेंद्र को टिकट दिया. जिसका मलाल योगी को तो होगा ही. लेकिन ज्यादा नाराज योगी के करीबी हुए.

गोरखनाथ पीठ में भी नाराजगी फैली. जो इसे योगी की तौहीन मान रही थी. हालांकि योगी इन सब छोटी पंचायतों से काफी ऊपर जा चुके हैं और उन्होंने यह दिखाया भी, गोरखपुर की पांचों विधानसभा में सभाएं भी की और जीत के लिए वो सब किया, जो एक बड़े नेता को करना चाहिए. वैसे भी पार्टी के अंदर अतंर्कलह या फिर चाहे जितनी भी खेमेबंदी हो. योगी अपनी सीट किसी कीमत पर हारने तो नहीं देते, लेकिन ये बात उनकी सेना और करीबियों को समझ में आती तब तो.

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