गुजरात का हाई वोल्टेज चुनाव अब अपने अंतिम राउंड में है. पूरे देश की निगाहें 18 दिसंबर को आने वाले चुनाव नतीजों पर टिक गई हैं. दिल्ली के पावर कॉरीडोर में इन दिनों एक ही सवाल सबके पास है कि गुजरात में कौन जीत रहा है?
नतीजा चाहे जो भी हो, लेकिन प्रचार अभियान में 22 सालों से सत्ता पर काबिज बीजेपी की नर्वसनेस साफ दिख रही है. चाहे अहमद पटेल को मुख्यमंत्री बनाने का पाकिस्तानी कनेक्शन हो या गुलाम निजामी के बहाने धुव्रीकरण की कोशिश.
अकेले पहले चरण के मतदान वाले दिन के घटनाक्रम को ही देखें, तो साफ दिखेगा. कभी गुजरात मॉडल पर चुनाव जीतने वाली बीजेपी को पाकिस्तान, अफजल गुरु, कश्मीर सुपारी, औरंगजेब के बहाने हिन्दू वोट का धुव्रीकरण करने के लिए अंतिम समय पर मजबूर होना पड़ा. वैसे पाकिस्तान गुजरात के हर विधानसभा चुनाव का स्थायी भाव है.
सवाल सिर्फ ये नहीं है कि बीजेपी गुजरात जीत रही है या हार रही है, बल्कि उससे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि बीजेपी मैच जितने के लिए जिस तरह के शॉट्स लगा कर रन ले रही है, वह टीम की आने वाले मैचों में जीतने की उसकी क्षमता और उसकी कमजोरियों को खुलकर उजागर कर रही है.
प्रचार में धुव्रीकरण का सहारा
विकास के एजेंडे के साथ अक्टूबर में शुरू हुए बीजेपी के कैंपेन को महीनेभर नहीं लगे कि वह अपने जिताऊ हिन्दू धुव्रीकरण के फॉर्मूले पर लौट आई. पहले चरण का प्रचार खत्म होते-होते प्रधानमंत्री मोदी को गुजरात के चुनाव को गुजराती अस्मिता से ज्यादा खुद की अस्मिता का चुनाव बनाना पड़ा.
याद कीजिए प्रचार अभियान के शुरुआती दिनों में दिए गए प्रधानमंत्री के भाषणों को. 17 सितंबर को अपने जन्मदिन के मौके पर नर्मदा सरोवर बांध के उद्धाटन समारोह में प्रधानमंत्री ने कहा, 'नर्मदा परियोजना पूरा करने का सरदार पटेल और अंबेडकर का सपना आज पूरा हो रहा है. सरदार पटेल के साथ अन्याय हुआ है. मेरे पास पूरी लिस्ट है, जिन्होंने नर्मदा परियोजना के रास्ते में रुकावट डाली. लेकिन मैं उनका नाम लेकर राजनीति नहीं करना चाहता.''
एक महीने के बाद ही बीजेपी ने रणनीति बदल ली और प्रधानमंत्री खुलकर विकास की कहानी बताने की जगह गांधी परिवार पर आक्रामक हमले करने लगे. 15 अक्टूबर को गांधीनगर में बीजेपी के गुजरात गौरव यात्रा का समापन करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा:
गुजरात और गुजराती शुरू से नेहरू-गांधी फैमली की आंखों में खटकते रहे हैं. पहले गांधी परिवार ने पटेल को बेइज्जत किया. फिर मोरारजीभाई देसाई, चिमनभाई पटेल, माधव सिंह सोलंकी को अपमानित किया. जब मैं गुजरात का मुख्यमंत्री बना, तो मुझे जेल में डालने की कोशिश हुई.
प्रधानमंत्री ने विस्तार से बताया कि कैसे गांधी परिवार ने इन गुजरातियों को अपमानित किया है.
‘कांग्रेस विकास के नाम पर चुनाव लड़कर दिखाए’
प्रधानमंत्री ने कहा, ''मुझे लगा था कि कांग्रेस विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ेगी, लेकिन वो अब विकास का मजाक बनाने में लग गई है. ये चुनाव विकासवाद और वंशवाद के बीच का चुनाव है. मैं कांग्रेस को चुनौती देता हूं कि वो विकास के नाम पर चुनाव लड़कर दिखाए.''
लेकिन महीना बीतते-बीतते बीजेपी विकास का एजेंडा भी भूल गई और तीन गुजरात चुनाव में जीत दिलाने वाले गुजरात मॉडल को भी.
इसी बीच राहुल गांधी आक्रामक होकर 22 सालों के बीजेपी सरकार के विकास का हिसाब मांग रहे थे. बीजेपी को लगने लगा कि पाटीदार आंदोलन, जीएसटी, किसानों की बढ़ती नाराजगी के बीच विकास की कहानी का खरीदार कोई नहीं है. उल्टे गुजरात मॉडल का जिक्र बीजेपी को नुकसान पहुंचा सकता है, इसलिए बीजेपी ने फिर एजेंडा बदला और हिदुत्व का छौंक लगाने का फैसला हुआ.
चुनाव प्रचार में पहले खिलजी, औरंगजेब, टोपीधारी की एंट्री हुई, फिर राम मंदिर. राहुल के कांग्रेस अध्यक्ष पर होने वाली ताजपोशी की तुलना औरंगजेब राज से की गई और कपिल सिब्बल की बाबरी मस्जिद मामले की सुनवाई टालने वाली दलील गुजरात के चुनावी अखाड़े में पहुंच गई.
प्रधानमंत्री मोदी ने जमकर राम मंदिर के मुद्दे को प्रचार कैंपेन में उछाला. पहले चरण के मतदान से पहले पीएम ने लगातार सवाल पूछा कि कांग्रेस बताए, वो राम मंदिर बनाना चाहती है या मस्जिद? मंदिर के बहाने एंटी इनकंबेंसी और जातीय विभाजन पाटने के लिए लिए दिल्ली से लेकर अहमदाबाद तक सारे घोड़े खोल दिए गए, चाहे अमित शाह की प्रेस कॉन्फ्रेस हो या योगी और मोदी की ताबड़तोड़ सभाएं.
कभी कैंपेन का एजेंडा सेट करने वाली बीजेपी इस चुनाव में इतनी डरी हुई है कि बीजेपी हर दिन एक नए मुद्दे को उछालकर टेस्ट कर रही है कि कौन सा मुद्दा उसके पक्ष में काम करने लगे.
अंतिम दिनों में हुए धुव्रीकरण से बीजेपी भले चुनाव जीत जाए, पर जीत के बाद बीजेपी हाईकमान को यह चिंतन करने की जरूरत जरूर पड़ेगी कि अपमान अस्मिता की कहानी से गुजरात में तो धुव्रीकरण हो सकता है, पर शायद पूरे देश में नहीं. राष्ट्रवाद के आख्यान की अपनी सीमाएं हैं और खतरे भी.
विकास के एजेंडे का न चलना
पहले फेज के मतदान से पहले वडोदरा और अहमदाबाद में पीएम ने जिस तरह अपने व्यक्तिगत अपमान के नाम पर वोट मांगे, वह चुनाव बाद बीजेपी को चिंतिंत होने के लिए काफी है. गुजरात जीतने के लिए सरकार के शासन की पूंजी की जगह पीएम को व्यक्तिगत पूंजी को दांव पर लगाना पड़ा.
पीएम चुन-चुनकर वो संज्ञाएं वोटर को याद दिला रहे हैं, ताकि विकास पर सवाल पूछ रही जनता एकजुट गुजरात की धरती के लाल के अपमान का बदला ले सके. पर बीजेपी को पता है कि गुजरात पूरा देश नहीं है और विकास के एजेंडे के जिताऊ न होने पर बाकी राज्यों में होने वाले विधानसभा के चुनाव में पीएम के अपमान और अस्मिता का कैंपेन वोट नहीं दिला सकता. इसलिए विकास पिटा, तो बीजेपी को हर राज्य में हिंदुत्व धुव्रीकरण के मुद्दे खोजने होंगे.
कमजोर नेतृत्व का खामियाजा
नैरेटिव की कमी इंटी इनकंबेंसी के अलावा गुजरात में बीजेपी को मजबूत स्थानीय नेतृत्व की कमी से भी जूझना पड़ रहा है. दो दशकों से मोदी के हाथ में गुजरात की कमान होने और पीएम बनने के बाद परोक्ष रूप से बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के हाथ में कमान आने से गुजरात में स्थानीय नेतृत्व बौना बना रहा.
नतीजा ये हुआ कि गुजरात का पूरा चुनाव पीएम मोदी और अमित शाह को लड़ना पड़ रहा है. शायद ही इतनी ऊर्जा पीएम को किसी दूसरे राज्य में लगाना पड़ा हो. बीजेपी को मजबूत छत्रप की कमी उन राज्यों में भी झेलनी पड़ेगी, जहां हाईकमान ने कमजोर नेतृत्व के हाथ में राज्यों की कमान दे रखी है.
वेकअप कॉल
यदि कमजोर संगठन और कमजोर स्थानीय नेतृत्व के बाद भी गुजरात में कांग्रेस ताकतवर बीजेपी को अपने गवर्नेंस के एजेंडे से भागने पर मजबूर कर सकती है, तो बीजेपी के लिए यह चुनाव वेकअप कॉल है.
विकास के एजेंडे पर 2014 में बड़ा जनादेश हासिल करने वाली मोदी सरकार से आने वाले दिनों में विकास के सवालों की फेहरिस्त लंबी होती जाएगी.
(शंकर अर्निमेष सीनियर जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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