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Gyanvapi: बंटे हुए समाज का नुकसान उठा चुका भारत, अब इसे आगे और न बांटो

Nuclear हमले के बाद भी जापान ने भविष्य की ओर देखना उचित समझा, न कि इतिहास पर रोना

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बाबरी मस्जिद विवाद (Babri Masjid Case) के निपटारे के बाद ऐसा लगा था कि अब विकास की राजनीति होगी. देश के लोग भी थक गए थे, हिंदू-मुस्लिम झंझट से. इसी कारण सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया उसे मान लिया गया और कोई टीका टिप्पणी नहीं हुई. मुस्लिम पक्ष मौन सहमति देते हुए चुप हो गया और सोचा कि फसाद से निकल जाना ही उचित होगा. जिन्हें ध्रुवीकरण का फायदा मिल गया वे कहां रुकने वाले थे? कभी गाय, तो कभी रोहिंग्या मुसलमान, तो कभी सीएए-एनआरसी, इस तरह से साम्प्रदायिकता बढ़ती ही गई.

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उम्मीद थी की देश की जनता आगे मुंहतोड़ जवाब देगी लेकिन वो भी न हो सका. जिन्होंने विकास, सद्भाव और शांति की बात की उनको ही देश द्रोही कहने लगे. आम हिंदू चुप रहा. मर्ज बढ़ता ही जा रहा है और कहां और कब थमेगा, कुछ कह पाना मुश्किल हो गया है.

ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वे करने का निचली अदालत का आदेश एक बड़ा झटका था. अदालत को संवैधानिक आधिकार नहीं था लेकिन जिसकी लाठी उसकी भैंस का युग चल रहा है. 1991 में पूजा-स्थल अधिनियम लाया गया जिसमें प्रावधान था कि 1947 के पहले के बने पूजा-स्थल दूसरे धर्म के पूजा-स्थल में बदले नहीं जा सकते अर्थात ऐसे मामलों में यथास्थिति बनी रहेगी.

बाबरी मस्जिद के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट का भी यही मत रहा. जिस तरह से ज्ञानवापी का विवाद पैदा हुआ है, ऐसे मामलों का कोई अंत नहीं है. इस तरह सौ-पचास वर्ष तक देश में बवंडर खड़ा किया जा सकता है. ऐसी स्थिति में देश का क्या हाल होगा अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है.

पहले जाति के आधार पर समाज इतना बंटा हुआ था कि रक्षा की जिम्मेदारी एक विषेश जाति पर थी और शेष तमाशबीन बने रहते थे. समाज, जाति या धर्म पर बंटे लोगों के कारण दूसरों को हमला करने का अवसर देता रहा और हम गुलाम बने. वर्तमान में आर्थिक रूप से कमजोर होना एक तरह से गुलामी है. 2.5 ट्रिलियन डॉलर की हमारी अर्थव्यवस्था है जिसमें 1 ट्रिलियन और 30 लाख का विदेशी कर्ज है और यह बढ़ता ही जा रहा है.

आर्थिक और सामरिक संकट

आर्थिक रूप से देश कमजोर हुआ है. चीन लद्दाख और अरुणाचल में कब्जा करके बैठा है लेकिन हिम्मत नहीं है कि उसके खिलाफ बोल सकें, हटाने की बात तो दूर. जो अनजान और नासमझ मुसलमानों को प्रताड़ित या बहिष्कार करने पर खुश हैं, वे ये नहीं समझ पा रहे हैं की खुद की क्षति कर रहे हैं.

यक्ष प्रश्न है कि कितने पीछे तक विवादित मामलों को उखाड़ा जाएगा. आज बौद्ध धर्म के मानने वाले कम हैं और कल स्थिति बदलती है, तो वो भी मांग करेंगे कि पुष्यमित्र शुंग ने जो हजारों बौद्ध-विहार तोड़कर मंदिर बनवाए थे, उनकी भी खुदाई हो और बौद्धों को सौंपा जाए. ऐसी मांगें उठने भी लगीं हैं. प्रसिद्ध इतिहासकार डीएन झा कहते है कि चीनी यात्री ह्वेनसांग ने लिखा है कि शिव भक्त मिहिरकुल ने 1,600 बौद्ध स्तूपों व विहार को नष्ट किया और हजारों बौद्धों को मार दिया.

क्या बौद्धों को वही करना चाहिए जैसा ज्ञानवापी मस्जिद के साथ हो रहा है? इसका क्या कोई अंत है? स्वामी विवेकानंद और बंकिम चंद्र चटर्जी दोनों ने कहा था कि जगन्नाथ मंदिर पहले बौद्ध मंदिर था. क्या इनके सर्वे नहीं होने चाहिए? क्या ऐसे विवादों का कोई अंत है?
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पीछे नहीं आगे देखने की जरूरत

द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका ने नागासाकी और हिरोसिमा पर एटम बम गिराए, जापान को अमेरिका को कोसते हुए क्या किसी ने सुना? उनका दृष्टिकोण भविष्य को संवारने में है, न कि नफरत फैला कर वोट की खेती करते जाना. करीब 3 हजार साल का इतिहास हमारे सामने है और कालांतर में देश पर हमला हुआ और एक भी बार हम जीत न सके, उसका एक ही करण था कि समाज जातियों में बंटा था. क्या एक जाति देश की रक्षा कर सकती थी? आज भी हम जाति के आधार पर बंटे हैं और अगर धर्म के नाम पर एक और बड़ी खाईं बढ़ी तो आने वाली पीढ़ी जरूर कीमत अदा करेगी.

कुतुब मीनार के निर्माण में मंदिर की मूर्ति और अवशेष की सामग्री का उपयोग हुआ है और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है. पूर्व में मशीनें नहीं थीं और वस्तुओं का उत्पादन बहुत कम हुआ करता था. तो ऐसे में पुरानी सामग्री इस्तेमाल की जाती थी. तमाम मंदिर हैं जिसमें बौद्ध, जैन और इस्लाम के अवशेष मिल जाएंगे तो क्या सबको तोड़ा जाए? अगर यह शूरू हो गया तो सबसे बड़ा उद्योग यही हो जाएगा और सीमेंट, कपड़ा , लोहा आदि निर्माण पीछे छूट जाएंगे.

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सत्ता के बजाय विपक्ष से सवाल

सबसे बड़ा सवाल आज का यह है कि लोग कहते हैं कि हो तो गलत रहा है लेकिन विपक्ष में कौन है? जनता भी सवाल विपक्ष से करती है कि क्यों कुछ करते नहीं. राहुल गांधी के नाम की विकल्प के रूप में चर्चा होती है लेकिन अगर-मगर के साथ.

आरएसएस और बीजेपी ने छवि खराब कर रखी है लेकिन सोचना तो चाहिए कि आज तक जितनी बातें राहुल गांधी ने कही उनमें क्या कमी है? उन्होंने कहा कि कोरोना की सुनामी आएगी, इनका मजाक उड़ाया गया. नमस्ते ट्रंप और मध्य प्रदेश में सरकार बनाने के चक्कर में लॉकडाउन पहले न करके अचानक किया गया. राहुल गांधी ने कहा कि कोविड से लड़ने के लिए टेस्टिंग बढ़ाई जाए तो इसका भी विरोध हुआ.

अर्थव्यव्स्था चौपट न हो, इसके लिए सुझाव दिया कि लोगों को नकदी दी जाए लेकिन वह भी न हुआ. दुनिया के दूसरे देशों में जनता उठ खड़ी होती है. अभी ताजा उदाहरण श्रीलंका का है. हमारे यहां व्यक्ति-पूजा की मानसिकता है और चाहते हैं कि उनके हिस्से की लड़ाई कोई और लड़े. धर्म जनता के लिए अफीम है, जाति कुछ कम अफीम नहीं है. इस दोहरे नशे में जनता को फंसा दिया गया है, इसलिए असंभव है कि वह सड़कों पर आकर लड़ेगी.

पहले आंदोलन हो भी जाया करते थे, सरकारें झुकती भी थीं और सुनती भी थीं. जनता खुद से भी संवाद करे कि कोई नेता या दल क्या जादूगर होता है? संविधान को बचाना होगा. अब नहीं जागे तो आगे अवसर भी नहीं मिलेगा. बहुत हुई बर्बादी अब बस करो. न इतिहास मिटेगा और न बनेगा लेकिन मानवता नष्ट होती रहेगी.

(डॉ. उदित राज पूर्व सांसद और असंगठित कामगार एवं कर्मचारी कांग्रेस (KKC) के राष्ट्रीय चेयरमैन हैं. यहां लिखे विचार लेखक के हैं और इनसे क्विंट का सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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