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हे राष्ट्रवादियों! हिंदी और उर्दू के बीच अपनी टांग न फंसाओ

हिन्दी में उर्दू की मिलावट को लेकर शुद्धतावादी हिन्दी समर्थकों की छिटपुट बहसें मैं सुनता-देखता रहा हूं.

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राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति के पैमाने बनाते-तलाशते हिन्दी-उर्दू के बीच खाई खोदने का सिलसिला भी शुरू हो सकता है, इसका अंदाजा लगने लगा है. बीते दो महीने के भीतर दो संवादों ने मुझे थोड़ा बेचैन किया और मैं ये पोस्ट लिखने को मजबूर हो गया. पहला संवाद एक फेसबुक फ्रेंड से हुआ था. दूसरा हमारे एक पत्रकार-लेखक दोस्त से. पहला संवाद तब हुआ, जब मैंने किसी दोस्त को जन्मदिन पर मुबारकबाद दी थी.

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तिवारी सरनेमधारी एक सज्‍जन कमेंट बॉक्स में ये कहते हुए कूद पड़े कि हिन्दी शब्दों का इस्तेमाल करने की बजाय मैंने मुबारक क्यों लिखा, बधाई क्यों नहीं लिखी. मैंने फिर लिखा कि आपकी सोच पर मैं दंग हूं. उन्होंने जवाब दिया कि फिर आप उर्दू शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं. आप आश्चर्य क्यों नहीं लिखते. मैंने लिखा कि गजब आदमी हैं आप! मैं आपसे बहस नहीं करना चाहता, तो उन्होंने लिखा, ‘गजब का भी हिन्दी में विकल्प हो सकता है, लेकिन आप तो ठहरे उर्दू प्रेमी आदमी. जरूर आपकी जड़ें पाकिस्तान में होंगी.'

उन सज्जन को ये नहीं पता होगा कि ‘आदमी‘ और ‘जरूर’ भी उर्दू शब्द है. तीन-चार बार तो मैंने जवाब देकर उन्हें समझाने की कोशिश की कि शब्दों में धर्म क्यों देख रहे हैं आप? उर्दू के सैकड़ों शब्द हम रोज बोलते हैं. हिन्दी और उर्दू शब्दों के मेल-जोल से बनी भाषा में आपको क्या दिक्कत है? लेकिन वो नहीं माने. पिले रहे. फिर मेरे नाम अंजुम पर आ गए. वो बार -बार ये साबित करना चाहते थे कि हिन्दी को बचाने के लिए ऐसे सारे शब्दों को हिन्दी बोलचाल और लेखन की शब्दावली से बाहर करने की जरूरत है, जो उर्दू और दूसरी विदेशी भाषाओं के आकर हिन्दी में घुल-मिल गए हैं.

फिर मैंने उनसे कहा, ‘हम जश्न-ए-आजादी मनाते हैं. आपको पता है कि जश्न उर्दू और आजादी फारसी शब्द है. आजाद भारत, आजाद हिन्दुस्तान, आजाद देश तो आप भी बोलते होंगे? तब उन साहब ने कहा, ‘मैं स्वतंत्र बोलता हूं, आजाद नहीं’. इतने पर मुझे समझ में गया कि मैं पत्थर की दीवार पर सिर मारकर अपने को जख्मी कर रहा हूं. पत्थर को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला.

मैं उनसे चैट बंद करके उनकी फेसबुक प्रोफाइल पर गया, तो देखा कि उन्होंने खुद को ‘गर्व करो हिन्दू हैं हम’ वाले टैग लाइन से सुशोभित कर रखा था. हर दूसरे-तीसरे दिन मुसलमानों को कोसते हुए राष्ट्रवाद की परिभाषाओं वाली पोस्ट लिखा करते थे. मैंने न चाहते हुए भी उन्हें अनफ्रेंड किया और हिन्दी पर उर्दू के जरिए गिरने वाले परमाणु बम के डर से मुक्त हो गया.

उन साहब के हिन्दी प्रेम में 'हिन्दुत्व प्रेम' समाहित था. हिन्दी की बात करते-करते हिन्दुत्व पर पहुंचना ही उनका निहितार्थ था. उर्दू को वो मुसलमानों की भाषा मानते थे, लिहाजा धर्म के हिसाब से उन्हें उर्दू से भी परहेज था. जब उन्हें मुसलमान कबूल नहीं थे, तो उर्दू कैसे कबूल करते. शब्द में उन्हें धर्म दिखता है.

ऐसा ही एक और किस्सा सुनिए...

हिन्दी में उर्दू की मिलावट को लेकर शुद्धतावादी हिन्दी समर्थकों की ऐसी छिटपुट बहसें मैं सुनता-देखता रहा हूं. पिछले हफ्ते दोस्तों की एक महफिल (महफिल भी हिन्दी नहीं है) में फिर एक सज्जन से सामना हो गया. वो पत्रकार हैं. लेखक हैं. बातों-बातों में कहने लगे कि हिन्दी में उर्दू के बहुत से शब्द घुस आए हैं. मैं उन पर काम कर रहा हूं. हिन्दी को बचाए रखने के लिए जरूरी है कि उर्दू शब्दों के हिन्दी विकल्प का ही इस्तेमाल हो.

मुझे याद नहीं कि उन्होंने जरूरी बोला था या आवश्यक, क्योंकि जरूरी भी हिन्दी शब्द नहीं है. फिर हम दोनों न चाहते हुए भी बहस में उलझ गए. रोजाना की बातचीत और लेखन में इस्तेमाल होने वाले कई शब्दों की मिसाल देकर मैंने कहा कि उर्दू के ये शब्द तो हम सबके भीतर रच-बस गए हैं और इससे तो हमारी हिन्दुस्तानी भाषा निखरती है. आप जो कहना चाहते हैं, वो खूबसूरती के साथ संप्रेषित होता है तो फिर विरोध क्यों?

उर्दू तो छोड़िए फारसी और अरबी के न जाने कितने आकर ऐसे घुल-मिल गए हैं कि बड़े-बड़े भाषाविद ही हिन्दी की चलनी में छानकर ऐसे शब्दों को किनारे रख सकते हैं. बोलने वाले आम लोगों को पता ही नहीं होता कि उनकी जुबान से निकलने वाले शब्द का गर्भगृह कहां हैं.

मैं उन ‘राष्ट्रवादी‘ दोस्त से तमीज, सबूत, हकीकत, गवाह, गर्दिश, गर्दन, खामोश, खराब, गुलाम, अदा, खिलाफ, चांदनी, किनारा, कलम, दाखिल, दाम, दाग, नक्शा, नजर, निगाह, नौजवान, किताब, कागज, अहसास, अहसान, इंसान, इंसानियत, आसमान, दारू, आंधी, अमानत, आईना जैसे शब्दों की मिसाल देकर बहस करता रहा कि ऐसे सैकड़ों शब्दों को कैसे बाहर करेंगे, जो हम सबके भीतर तक धंसे हैं, जिनका इस्तेमाल हम हर रोज लिखने-बोलने में करते हैं. तब ये ध्यान नहीं रहता कि ये उर्दू शब्द हैं और हम तो हिन्दी वाले ठहरे.

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मैं सबूत की बात कर रहा था, तो वे प्रमाण का प्रयोग करने की सलाह दे रहे थे. कई शब्दों के विकल्प पर चूके, तो कहने लगे कि यही तो हम करना चाहते हैं. खोजें हिन्दी में ही अपने शब्दों को. उर्दू की शरण में क्यों जाएं? हिन्दी में उर्दू शब्दों की मौजूदगी को लेकर उनकी चिढ़ आखिर तक कायम रही. हाल के दिनों में ऐसी बहसें करने वाले लोग फेसबुक पर भी दिखने लगे हैं. उन सबसे मैं सवाल पूछना चाहता हूं. कैसे और क्यों करना चाहते हैं ये आप? जवाब यही होता है कि हिन्दी को बचाना है, गोया हिन्दी उर्दू के किसी नाव पर सवार होकर सरहद पार होने वाली हो.

कुछ उर्दू शब्दों को हिन्दी में खोजना मुश्किल

इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपतेजंग में हर चीज जायज है, जैसे उन मुहावरों का क्या करिएगा, जो हमारे संप्रेषण को ऊंचाई देते हैं. हिन्दी में उर्दू के बहुत से ऐसे शब्द चलन में हैं, जिनका हिन्दी में विकल्प खोजना मुश्किल है. जैसे अचार और खतरा. इन दोनों शब्दों का कोई विकल्प हिन्दी में नहीं है. खतरा शायद अरबी शब्द है और अचार फारसी. सैकड़ों साल पहले ये दोनों शब्द हमारी भाषा में ऐसे घुल-मिल गए कि हममें से ज्यादातर लोगों को इसकी उत्पत्ति के बारे में पता ही नहीं होगा.

होली में हम अबीर लगाते हैं, ये शब्द अरब ये आया है. खबर, खजाना, कीमत, खरीद, गुस्सा, जान, जुनून, जुर्माना, जश्न, जहाज, जिंदगी.. ऐसे न जाने कितने शब्द हैं, जो हम-आप रोज बोलते-सुनते हैं. क्या उस वक्त हम ये सोचने लगें कि अरे.. अरे ये शब्द तो मुसलमानों की उर्दू से कूदकर हमारी हिन्दी में आ मिला है. इस घुसपैठिए को निकालो. कोई भी भाषा देश, काल, समाज के विभिन्न तबके के बीच संवाद और भाव को व्यक्त करने का माध्यम है. कोई भी भाषा तभी समृद्ध होती है, जब वो अच्छे शब्दों की आमद के लिए खिड़की-दरवाजे खोलकर रखती है.

ऐसा न हो तो कोई भी भाषा ठहर जाएगी, मर जाएगी. हिन्दी और उर्दू को हमजोली मानते हुए मशहूर कवि और शायर दुष्यंत कुमार ने लिखा था, “हिन्दी और उर्दू अपने-अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के पास आती है, तो उनमें फर्क कर पाना बड़ा मुश्किल होता है. मेरी नीयत और कोशिश यह रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज्यादा करीब ला सकूं. इसलिए गजलें मैं उस भाषा में लिखता हूं, जिसमें मैं बोलता हूं."

दुष्यंत ने हिन्दी में ही लिखा, लेकिन उर्दू को साथ लेकर लिखा. ऐसा लिखा कि ऊंची-ऊंची प्राचीरों और मैदानों से हुंकार भरने वाले नेताओं की जुबान से निकलने वाले दुष्यंत के शेर भीड़ में जोश भर देते हैं.

दुष्यंत की 'हो गई है पीर पर्वत सी' वाली चर्चित गजल की लाइनें हैं-

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए,
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए.

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अब छांटिए यहां से उर्दू शब्द और बचाकर दिखाइए हिन्दी को. मकसद, सूरत, आग सब गायब करके वहां हिन्दी शब्द डाल दीजिए. नव राष्ट्रवाद के इस दौर के स्वयंभू खलीफाओं (वैसे पुरोधाओं लिखा जा सकता है) में से ज्यादातर को पता नहीं होगा कि आग भी उर्दू शब्द है.

देश की अपनी हिन्दी से मुसलमानों की उर्दू को खदेड़ने की मुहिम चलाने वाले राष्ट्रवादियों को याद दिला दूं कि देश को आजाद कराने के लिए मर मिटने वाले पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को एक बार पढ़ लें, उनकी बातों से आज भी भुजाएं फड़कने लगती हैं, उसमें उर्दू ही उर्दू है…

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है?
वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आस्मां! हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है?

आजादी के दीवाने उर्दू वाली सरफरोशी की तमन्ना लिए फांसी पर झूल गए थे, आज के राष्ट्रवादी हिन्दी को उर्दू से बचाने में लगे हैं.

हिन्दी में उर्दू की मिलावट को लेकर शुद्धतावादी हिन्दी समर्थकों की छिटपुट बहसें मैं सुनता-देखता रहा हूं.
भारत की आजादी के लिए खुद के जीवन की आहुति देने वाले क्रांतिकारियों में राम प्रसाद बिस्मिल का नाम भी शामिल है
(फोटो: फेसबुक)

तर्क ये है कि हमें अपनी हिन्दी भाषा को बचाना है, तो अपने शब्द गढ़ने और खोजने होंगे. इससे किसी को एतराज नहीं, लेकिन इस खोज के चक्कर में आप उर्दू को हिन्दी के घर से बाहर का दरवाजा दिखाने की साजिश मत रचिए.

अगर 50-100 साल पीछे जाएं तो...

अगर सौ-पचास साल पीछे जाएंगे, तो पता चलेगा कि हिन्दी तमाम साहित्यकार (उर्दू शायरों की बात नहीं कर रहा) और पढ़े-लिखे लोग हिन्दी के साथ उर्दू जानते-पढ़ते थे. उनके लिखने और बोलने में उर्दू का इतना इस्तेमाल होता था कि आज अगर हम बैकडेट से उनके लिखे को नव राष्ट्रवादी विद्वानों के उर्दू विरोधी नजरिए से सुधार दें, तो उनका लिखा ट्रिपल टोंड दूध की तरह हो जाएगा.

प्रेमचंद की कहानी कफन, ईदगाह, नमक का दारोगा, पंच परमेश्वर जैसी चर्चित कहानियां पढ़िए तो समझ में आएगा कि उनके लिखे -गढ़े मुहावरे कैसे उर्दू शब्द के बिना अपने मायने खो देंगे. पंच परमेश्वर कहानी में प्रेमचंद का एक किरदार कहता है- बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे. इन नौ शब्दों में कितना असरदार संप्रषण हैं.

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शिवपूजन सहाय की चर्चित कहानी कहानी का प्लॉट मैंने स्कूली दिनों में पढ़ी थी. इस कहानी की दो लाइनें मैं ताउम्र नहीं भूल पाऊंगा, ‘किस्मत की फटी चादर का कोई रफूगर नहीं है’ और ‘अमीरी की कब्र पर पनपी हुई गरीबी बड़ी जहरीली होती है‘. इन दो लाइनों की सप्रसंग व्याख्या करने का टास्क हमें क्लास में दिया जाता था. इन दो लाइनों में से जरा उर्दू को निकालकर देखिए: की पर , होती है, नहीं है जैसे शब्द ही बच जाएंगे, बाकी सब उर्दू के खाते में चला जाएगा.

मायने ही खत्म. वैसे मायने और खत्म भी हिन्दी शब्द नहीं हैं. इसी कहानी में शिवपूजन सहाय ने कहानी के किरदार दारोगा का जिक्र करते हुए लिखा है, ‘इसी घोड़ी की बदौलत उनकी तरक्की रह गई, लेकिन आखिरी दम तक वह अफसरों के घपले में न आए - न आए. हर तरफ से काबिल, मेहनती, ईमानदार, चालाक, दिलेर और मुस्तैद आदमी होते हुए भी वह दारोगा के दारोगा ही रह गए- सिर्फ घोड़ी की मुहब्बत से‘.

इन दो वाक्यों में तो हिन्दी न के बराबर है. उर्दू शब्दों वाले विशेषणों को जोड़कर दारोगा के चरित्र चित्रण के लिए हिन्दी का इस्तेमाल सिर्फ कड़ी के तौर पर किया गया है. हिन्दी साहित्य के बड़े-बड़े नामों को उठा लीजिए. उनके लिखे से उर्दू, फारसी और अरबी शब्दों को चलनी में छान लीजिए. जो बच जाएगा, वो किसी काम का नहीं होगा.

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क्या उन्हें मुसलमानों से नफरत है?

आदमी और इंसान, ये दोनों शब्द उर्दू के हैं. इंसान की बेहतर पहचान से जुड़ा शब्द इंसानियत भी उर्दू से है. कैसे आदमी हो यार तो सब बोलते हैं, कैसे व्यक्ति हो, बोलते मैंने तो आजतक किसी को नहीं सुना. संस्कृतनिष्ठ हिन्दी ‘शाखाओं’ में जाने वाले स्वयंसेवक बोलते हैं, बोलें. ‘हिन्दी‘ को उर्दू से बचाने कि ये चिंता क्यों और किन लोगों को सता रही है?

उनका कुल-गोत्र जानेंगे, तो आप समझ जाएंगे कि ये वही लोग हैं, जिन्हें मुसलमानों से नफरत है. जो मुसलमानों को आज भी मुगल आक्रांताओं की संतानें मानकर उनके धर्म पर चोट करने के बहाने खोजते हैं. उनकी विरासत को मिटाने और उस पर अपने भगवा फहराने की मुहिम को अपना ‘राष्ट्रधर्म’ समझते हैं.

उन्हें ये भी समझने की जरूरत है कि उर्दू को इस देश में खिलजी, गजनी या बाबर लेकर नहीं आया था. लेकर आया भी होता, तो भाषा अपना प्रवाह खुद खोजती है और नई धाराएं बनाते हुए आगे बढ़ती है. उससे किसी सभ्यता या परंपरा को खतरा नहीं होता, बल्कि समृद्ध होती है.

हम और हमारा राष्ट्रवाद’ की फोबिया से ग्रसित लोगों की चले तो हिन्दी को शुद्ध करने के चक्कर हिन्दी को दरिद्र और कंगाल बनाकर छोड़ देंगे. जिन्हें मेरे कहे से असहमति है, वो पहले उर्दू और दूसरी भाषाओं के हिन्दी में घुले-मिले उन हजारों शब्दों को समझ लें, फिर बात करें तो मैं किसी भी विमर्श के लिए तैयार हूं.

और आखिर में, उर्दू को मुस्लिम आक्रांताओं की भाषा मानकर इतनी दिक्कत है, तो अंग्रेजी वेदों-पुराणों और उपनिषदों से नहीं निकली है. जनरल डायर ने भी अंग्रेजी में बोलते हुए ही जालियांवाला बाग में गोलियां चलवाई थीं. भगत सिंह को फांसी देने वाले और लाला लाजपत राय को मारने वाले भी अंग्रेजी ही बोल रहे थे. देश को गुलाम बोलने वाले गोरे इस देश में अंग्रेजी लेकर आए थे. तो अंग्रेजी से तो आपको मोहब्बत है, फिर परेशानी उर्दू से क्यों?

ये भी पढ़ें- अनवर जलालपुरीः गीता का उर्दू में अनुवाद करने वाले शायर का इंतकाल

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जलेबी, समोसा और गुलाब जामुन चांपने वाले उर्दू विरोधी राष्ट्रवादियों, ये तीनों शब्द भी पर्शियन हैं. अगली बार इन्हें उदरस्थ करने से पहले शुद्ध हिन्दी में इनके नाम सोच लेना. सरदार पटेल और मोदी सरकार को तो बहुत रिझते हो न? तो जान लो सरदार और सरकार दोनों शब्द फारसी के हैं. हिन्दी में आत्मसात हो गई उर्दू को किस छलनी से छानोगे और वहां कौन से शब्द डालोगे? शोले के गब्बर ने भी तो कालिया से सवाल उर्दू शब्द के साथ पूछा था- कितने आदमी थे? कालिया ने जवाब दिया था- दो सरदार. आदमी और सरदार दोनों उर्दू. गब्बर और कालिया को कैसे हिन्दी सिखाओगे?

और अंत में हिन्दी और उर्दू के बहनापे पर शमशेर बहादुर सिंह, मुनव्वर राना और कुमार विश्वास की कुछ लाइनें

‘हिंदी और उर्दू का दोआब हूं मैं वह आईना हूं जिसमें आप हैं.’‘वो अपनों की बातें, वो अपनों की खुशबू,हमारी ही हिन्दी, हमारी ही उर्दू ….’
शमशेर बहादुर सिंह
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“लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है

मैं उर्दू में गजल कहता हूं हिंदी मुस्कुराती है”

मुनव्वर राना

“ये उर्दू बज्म है और मैं तो हिंदी मां का जाया हूं

जबानें मुल्क की बहनें हैं ये पैगाम लाया हूं

मुझे दुगनी मुहब्बत से सुनो उर्दू जबां वालों

मैं हिंदी मां का बेटा हूं, मैं घर मौसी के आया हूं"

जबानें मजहब नहीं, मुहब्बत सिखाती हैं…”

कुमार विश्वास

(अजीत अंजुम सीनियर जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. )

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