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भूटान भारत को दे रहा मदद, स्वाभिमान खोकर कैसे पॉजिटिव रहे देश?

महामारी पर सरकार की लापरवाही ने आत्मनिर्भरता का मजाक बनाया है और स्वाभिमान को चूर-चूर कर दिया

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यह वाकया भारत की राष्ट्रवादी किवदंतियों का ही एक हिस्सा है, जब प्रिंस ऑफ वेल्स, भावी एडवर्ड अष्टम, 1921 में भारत आए थे. यहां की भव्य इमारतों, कारों और बिजली से चलने वाले यंत्रों को देखकर उन्होंने एक भारतीय से कहा, “हमने तुम्हें भारत में सब कुछ दिया! आज क्या है, जो तुम्हारे पास नहीं है?” वह भारतीय उनकी सेवा टहल कर रहा था. उसने धीमे से जवाब दिया, “स्वाभिमान सर.”

आजादी के बाद भारतीय राष्ट्रवाद यही था

हम इस वाकये की प्रामाणिकता पर सवाल खड़े कर सकते हैं लेकिन यह भारतीय राष्ट्रवाद का जीता जागता उदाहरण है. आजादी के बाद सत्तर से ज्यादा दशकों के दौरान आजाद भारत में इस गुमान ने अपनी जड़े मजबूत की थीं.

उपनिवेशवाद ने जो भारतीयों से छीना था, उसमें आत्मसम्मान भी शामिल था. जो इस एहसास से जन्म लेता है कि हम अपनी तकदीर खुद लिख सकते हैं. अपनी समस्याओं की जड़ आप खुद हैं और उसे हल करना पूरी तरह से आप पर निर्भर करता है. आप किसी ऐसी कौम के आसरे नहीं हैं, जो सात समुंदर पार बसती है.

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यही वजह रही कि भारत ने ‘कूटनीतिक स्वायत्तता’ और विदेश नीति में गुट निरपेक्षता की राह पकड़ी (पिछली दो शताब्दियों से विश्व में हमारी जगह दूसरों ने तय की थी, इसीलिए हम नहीं चाहते थे कि दूसरे के इशारों पर हमारी नीतियां बनाई जाएं).

अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी हम ‘आत्मनिर्भर’ रहे (आप कहते हैं कि आप हमारे साथ व्यापार करना चाहते हैं, पर ऐसा ही तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी कहा था, और फिर वह हम पर राज करने लगी थी, इसलिए विदेशी पूंजीवादी- हमसे दूर रहो!) हमें हर कीमत पर अपना आत्मसम्मान बरकरार रखना था, क्योंकि ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने हमसे वही छीना था.

आजादी के बाद शुरुआती दिनों में इस नजरिए से मुश्किलें पैदा हुईं. देश अपने लाखों नागरिकों की भूख और गरीबी मिटाने के लिए विदेशी मदद पर निर्भर था. लेकिन साठ के दशक की हरित क्रांति ने कृषि पैदावार को चार गुना बढ़ाया और भारतीयों को ‘शिप टू माउथ’ (यानी विदेशी मदद के देश पहुंचते ही सीधा उसे लोगों तक पहुंचाना) वाली स्थिति से निजात मिली. कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के बाद नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण के चलते देश के उद्योग और सेवा क्षेत्रों में जबरदस्त तेजी आई.

इसका क्या असर हुआ? 2004 में एशियाई सूनामी के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विदेशी सहायता से इनकार करने का फैसला किया. भारत अपने खुद के संसाधनों से इस आपदा के नतीजों को झेल सकता था. साथ ही उसने दूसरे प्रभावित देशों जैसे श्रीलंका और इंडोनेशिया की मानवीय सहायता भी की.

भारत ने विकसित देशों के राहत कार्यों में अपनी कोशिशों के साथ कदमताल की थी. नई सदी के पहले दशक के दौरान भारत की जीडीपी में वृद्धि हुई तो गरीब देशों के लिए उसके सहायता कार्यक्रमों (जिसे कि नई दिल्ली विकास सहयोग कहना पसंद करती है) में भी तेजी से बढ़ोतरी होती गई.

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संकट के दौर में लगातार ‘आत्मनिर्भरता’ पर जोर

फिर, 2018 और 2019 में केरल में बाढ़ आई और वहां के प्रवासी लोगों के मेजबान देशों ने मदद के लिए हाथ बढ़ाया पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उससे इनकार कर दिया. एक के बाद एक वित्त मंत्रियों और विदेश मंत्रियों ने बार बार दोहराया है कि भारत को विदेशी सहायता की दरकार नहीं. विकास और गरीबी उन्मूलन हमारे खुद के दायित्व हैं और उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हम इतने काबिल हैं कि खुद को समेट सकें और अपने संसाधनों से अपनी जिम्मेदारियों को निभा सकें.

जून 2020 तक भारत सरकार ने हर राजनैतिक मोर्चे पर यही रवैया अपनाया था. प्रधानमंत्री ने पिछले साल जून में दावा किया था कि भारत आत्मनिर्भरता की डगर पर चलेगा. उन्होंने कहा था, कोविड ने हमें सिखाया है कि दूसरों पर निर्भरता, जिसमें विदेशी सप्लाई चेन्स भी शामिल हैं, बहुत खतरनाक है. भारत की भावी सफलता और संपन्नता इस पर निर्भर होगी कि हम खुद की देखभाल करें. न सिर्फ अपनी जरूरत के लिए उत्पादन करें, बल्कि दूसरे देशों को भी उसे उपलब्ध करा सकें.

जनवरी 2021 में डावोस में प्रधानमंत्री ने भव्य तरीके से ऐलान किया: “भारत आत्मनिर्भरता की दिशा में आगे बढ़ रहा है. भारत की आत्मनिर्भरता की आकांक्षा ग्लोबलिज्म को नया रूप देगी.” संदेश स्पष्ट था, भारत न सिर्फ कोरोनावायरस महामारी से निपटने के लिए आत्मनिर्भर था, बल्कि दुनिया को बचाने में भी काबिल था.

कोविड संकट से निपटने में नाकामी ने देश के आत्मसम्मान को चूर-चूर किया

लेकिन हुआ इसका उलटा. जैसा कि एक व्हाट्सएप मीम में कुछ इस तरह कहा गया है, “कुछ महीने पहले मोदी समर्थक डींग हांक रहे थे कि भारत 150 देशों की मदद कर रहा है. अब वही लोग इस बात की बड़ाई कर रहे हैं कि 150 देश हमारी मदद कर रहे हैं.” क्या सरकार के घमंड को चकनाचूर करने के लिए यह काफी नहीं.

सरकार हर स्तर पर नाकाम हुई है. न तो उसने किसी संकट की योजना बनाई, न ही उसका प्रबंधन कर पाई, उसका नेतृत्व विफल रहा. उसकी किसी पहल में कोई समन्वय नहीं है. स्वास्थ्य प्रणाली भरभरा कर गिर गई है. मायूस लोग जरूरी चीजों के लिए संघर्ष कर रहे हैं- एंबुलेंस से लेकर अस्पतालों में बेड और वैक्सीन से लेकर ऑक्सीजन.

दवाओं, डॉक्टरों, टेस्ट किट्स और आईसीयू की कमी हो गई है, और सबसे भयावह स्थिति है, वह तिरस्कार और अपमान, कि मरने वालों को श्मशानों और कब्रिस्तानों में भी जगह नहीं मिल रही. ऐसे हालात ने देश के तीन पीढ़ियों के आत्मसम्मान को छलनी करके रख दिया है. कोविड-19 जैसी महामारी पर सरकार ने जो रुख अपनाया है, उसने ‘आत्मनिर्भरता’ को मजाक बना दिया है और ‘आत्मसम्मान’ की धज्जियां उड़ाई हैं.

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प्रधानमंत्री का शेखी बघारना न तो उचित था, और न ही महामारी की दूसरी लहर के बीच टिकने वाला था. अब हम दुनिया भर के देशों के आगे घुटने टेक चुके हैं- भीख का कटोरा हमारे हाथ में है. हमारे एक नन्हें से पड़ोसी देश भूटान जोकि अपनी विकास योजनाओं के लिए भारत पर लंबे समय तक निर्भर रहा है, ने भी नई दिल्ली को दो ऑक्सीजन जनरेटर देने की पेशकश की है.

अब दुनिया को बचाने की बात तो भूल जाइए- जिसका दावा प्रधानमंत्री मोदी ने सीना ठोंककर किया था. घरेलू संकट ने सरकार को अपने वादे से मुकरने पर मजबूर किया है. हमने कई देशों को वचन दिया था कि उन्हें वैक्सीन देंगे. लेकिन अब हमें वैक्सीन पहले अपने लिए चाहिए- निर्यात करना तो दूर की बात है. फिलहाल यह जरूरी है लेकिन इसने विश्व में वैक्सीन के स्रोत के रूप में हमारी विश्वसनीयता को भी तहस नहस किया है.

हमारे पास ‘पॉजिटिव’ होने के लिए बहुत कुछ हो सकता था

इस संकट के बीच सरकार लोगों से कह रही है- ‘बी पॉजिटिव’. जब सब तरफ अंधेरा हो तो खुद को खुश रखने के लिए यह जरूरी है. आध्यात्मिक गुरु और सरकार समर्थक कॉरपोरेट लीडर्स सकारात्मकता का पैगाम दे रहे हैं. लेकिन जब आपका स्वाभिमान खो जाए तो क्या सकारात्मक रहना मुमकिन है. क्या यह सिर्फ छलावा भर नहीं है.

जब ‘पॉजिटिव’ रहने का मतलब यह है कि आप हमारी नाकामी को नजरंदाज करें. जब ‘पॉजिटिव’ रहने का मतलब यह हो कि हम अपनी गलतियों की जिम्मेदारी न लें. जब विपक्ष की ‘नेगेटिविटी’ पर इसलिए हमला किया जाए क्योंकि वह आपके गुनाह के लिए आपकी जवाबदेही तय कर रही है. जब ‘पॉजिटिविटी’ के नाम पर लोगों के गुस्से और कुंठा को शांत किया जाए ताकि लोगों और मीडिया का ध्यान सच्चाई की तरफ से हट जाए- तब ‘पॉजिटिविटी’ के क्या मायने होंगे?

विडंबना यह है कि हमारे पास पॉजिटिव रहने के लिए बहुत कुछ हो सकता था. हमारे देश के डॉक्टर दुनिया में सबसे अच्छे, पढ़े लिखे और प्रशिक्षित हैं. हमारे टीकाकरण कार्यक्रमों ने पोलियो और चेचक का नामो निशान मिटाया है. बीते सालों में भारत विश्व की फार्मेसी बन गया है. यहां सस्ती, आला दर्जे की जेनेरिक दवाएं बनती हैं और विश्व में 60 प्रतिशत वैक्सीन सप्लाई यहीं से होती है. अगर इस पूंजी का सही तरह से इस्तेमाल होता, काबिल नेतृत्व के साथ योजना बनाई जाती, सरकार अक्खड़पने से बाज आती तो हम उस दहशत से बच सकते थे, जिसका फिलहाल सामना कर रहे हैं.

लेकिन भारत- नरेंद्र मोदी की सरकार और भाजपा ने ऐसा नहीं किया. उसने हमारे स्वाभिमान को चूर चूर कर दिया. क्या इसमें पॉजिटिव रहने जैसा कुछ है?

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(डॉ. थरूर तीसरी बार तिरुवनन्तपुरम से सांसद हैं. वह 22 किताबें लिखने वाले पुरस्कार प्राप्त लेखक भी हैं. उनकी हाल की किताब है ‘द बेटल ऑफ बिलॉगिंग्स’ (एल्फ). उनका ट्विटर हैंडल @ShashiTharoor है. यह एक ओपनियन लेख है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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