हममें से कइयों को ऐसा महसूस हो रहा है कि लद्दाख के साथ मानो बुरा बर्ताव किया गया हो. इस हफ्ते जिस अधिकारी पर सार्वजनिक गुस्सा बरसा है, उसका एकाएक वहां तबादला कर दिया गया. इसलिए नहीं क्योंकि वह अधिकारी हमारे प्यारे देश की उस दुलारी और संवेदनशील जगह के लिए मुफीद था, जिस पर पड़ोसी देश की बुरी नजर है, बल्कि इसलिए क्योंकि उस जगह को ‘पनिशमेंट पोस्टिंग’ माना जाता है.
बृहस्पतिवार को मीडिया इस अधिकारी को लेकर विकल था, जिसके बारे में यह कहा गया था कि वह हर शाम एक पब्लिक स्टेडियम को इसलिए खाली करवाता था ताकि वहां अपने कुत्ते को टहला सके.
इसलिए सत्तासीनों ने उसे लद्दाख भेज दिया और यह संकेत दिया कि सार्वजनिक संपत्ति को अपनी जागीर समझने की उसकी भूल माफ नहीं की जाएगी. इसके अलावा उनकी बीवी को भी अरुणाचल प्रदेश में तैनात कर दिया गया, जो लद्दाख की ही तरह संवेदनशील इलाका है और उसकी सरहद पर भी खतरा है जिस पर खास ध्यान दिए जाने की जरूरत है.
चीनी घुसपैठ का सामना करने वाली लद्दाख और अरुणाचल जैसी जगहों को ‘पनिशमेंट पोस्टिंग’ के तौर पर लिया जाता है जोकि इस बात को दर्शाता है कि सत्तासीन लोग इन जगहों की अहमियत नहीं समझते.
दुखद यह है कि जब 2019 में लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था, तब यह माना गया था कि अब यह भारतीय गणराज्य से ज्यादा मजबूती से जुड़ेगा.
इन जगहों पर ऐसे अधिकारियों को तैनात करने की जरूरत है जोकि वहां के लोगों का दिल जीत सकें, उनसे सहयोग करें, जिससे वे मिलकर सरहदों की हिफाजत में अहम भूमिका निभा सकें.
दिल्ली से दूर इनपर मीडिया की भी नजर नहीं रहेगी
चूंकि ये अपेक्षाकृत वरिष्ठ अधिकारी हैं, इसलिए वे दिल्ली के मुकाबले नई जगह पर अपने दबदबे का कहीं ज्यादा इस्तेमाल करेंगे. दिल्ली में तो ऐसे वरिष्ठ अधिकारी बहुतेरे हैं. अगर सच में ताकत आजमाइश उनकी फितरत में है, तो उस जगह पर वे कहीं आसानी से उसका दुरुपयोग कर सकते हैं, क्योंकि वहां शायद ही कोई 'राष्ट्रीय' मीडिया का संवाददाता सामान्य रूप से मौजूद होता हो.
लेकिन हमारे यहां ऐसे इम्तिहान पास करने वालों को इतना पुचकारा जाता है कि कम पसंद वाली जगहों पर तबादला ही अपने आप में एक सजा महसूस होने लगती है.
लद्दाख और अरुणाचल को समर्पित अधिकारियों की जरूरत है
इस स्तर पर जो बात इन तबादलों को विशेष रूप से अप्रिय बनाती है, वह यह है कि इन दोनों क्षेत्रों ने पिछले दो वर्षों में - और इससे पहले भी चीनी सेना के हमलों को झेला है. लिहाजा, वहां ऐसे अधिकारियों को तैनात किया जाना चाहिए जो वहां के लोगों का दिल जीत सकें, उनसे सहयोग करें ताकि वे लोग मिलकर सरहद को महफूज रखने में अहम भूमिका निभाएं.
बेशक, इन जगहों पर ऐसे अधिकारियों की तो कतई जरूरत नहीं जो आम लोगों से दूरी बनाते हों, जैसे अपने कुत्ते को शाम को टहलाने के लिए उन लोगों को सार्वजनिक केंद्रों से दूर करना जिनके लिए इन केंद्रों को बनाया जाता है. अब सरकार यह दलील दे सकती है कि इन तैनातियों का उस आलोचना से कोई लेना-देना नहीं जो मीडिया ने आईएएस दंपत्ति की शाम की टहल को लेकर की थी. लेकिन जिस क्रम में यह घटनाएं घटीं, उसे देखते हुए यह काफी स्पष्ट है.
जिन लोगों ने इन तैनातियों का आदेश दिया है, उन्हें सोचना चाहिए कि इससे क्या संदेश गया है, भले ही अनजाने में: कि इन जगहों पर ऐसे अधिकारियों की तैनाती की जाती है, जिन्हें या तो सजा देनी हो या किसी बात के लिए जिम्मेदार ठहराया गया हो.
पसंद की पोस्टिंग्स पर अक्सर सोचा जाता है
लद्दाख और अरुणाचल जैसी जगहों को अक्सर ‘पनिशमेंट’ पोस्टिंग के तौर पर लिया जाता है. और इसी से यह साबित साबित होती है कि सरकारें इन जगहों का महत्व नहीं समझतीं, और यह भी नहीं समझतीं कि देश और उससे बढ़कर राष्ट्रीय और सुरक्षा के लिहाज से इन जगहों के क्या मायने हैं. अक्सर यह अधिकारियों की पसंद पर निर्भर करता है कि उनकी तैनाती कहां होगी.
और इन तबादलों की खबर मिलते ही ज्यादातर अधिकारी परेशान हो जाते हैं. उनमें से कइयों का कहना था कि इसकी जांच होनी चाहिए और यह कि “ऐसी सुर्खियों का जवाब इस तरह नहीं देना चाहिए.” एक अधिकारी ने यह भी कहा कि संभव है, इस अधिकारी ने स्टेडियम खाली कराने का आदेश न दिया हो, और कोई कनिष्ठ अधिकारी उन्हें खुश करने के लिए ऐसा करता हो, और उन्हें इस बात का इल्म ही न हो. हां, ऐसा कोई लिखित आदेश तो था नहीं. लेकिन जो किया जाना है, कई बार उसका सिर्फ एक इशारा भर काफी होता है.
एक अहम केंद्रीय मंत्रालय से सचिव के रूप में रिटायर होने वाले एक अधिकारी ने कहा कि उन्होंने हमेशा देखा कि लद्दाख में तैनात किए जाने वाले अधिकारी बहुत अच्छे और विनम्र होते हैं. यह अच्छा है, लेकिन उन्होंने यह भी देखा है कि अपने से कम ताकतवर को धमकाने वाले, अक्सर अपने से ज्यादा ताकतवर की खुशामद करते हैं.
इस बात से एक और बात निकलती है. एक और समस्या नजर आती है जो धीमे-धीमे, गुपचुप तरीके से बढ़ती जा रही है. जो लोग कुछ तैनातियों से बचना चाहते हैं, या कुछ शानदार तैनातियों को पसंद करते हैं, या रिटायरमेंट के बाद आराम वाला पद पक्का करना चाहते हैं, वे अक्सर अपने राजनैतिक आकाओं पर कृपा बरसाते हैं, संदेहास्पद निर्देशों का पालन करते हैं और यह इस बात का ख्याल रखते हैं कि उनकी किसी भी हरकत से सत्तासीन नाराज़ न हो जाएं.
इसके मद्देनजर, जो कुछ भी हुआ, उससे इस बात का संकेत मिलता है कि पति-पत्नी की इस जोड़ी, जिनका तबादला किया गया है, के प्रभावशाली लोगों से बहुत अच्छे संबंध नहीं थे
लद्दाखी लोगों को ऐसा लगा कि वे सौतेले हैं
जब लद्दाख को 2019 में केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था, तो ऐसा महसूस हुआ था कि भारतीय गणराज्य से उनका रिश्ता मजबूत होगा. अगस्त 2019 में जम्मू एवं कश्मीर और लद्दाख को अलग-अलग दो केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था. उससे पहले लद्दाख जम्मू एवं कश्मीर का ही हिस्सा था, और वहां के लोगों को ऐसा लगता था कि वे ‘सौतेले’ हैं. यह वह मौका था, जब लद्दाख के लोगों की इस शिकायत को दूर किया जाए. उन्हें बताया जाए कि देश के लिए उनका कितना महत्व है.
उन लोगों की पहले की नाराजगी की कुछ वजहें थीं. एक वजह तो यह थी कि अक्सर अधिकारी वहां की तैनातियों को पसंद नहीं करते थे. इसलिए अगर अधिकारियों को वहां जबरन जाना पड़ता था तो लद्दाखी लोगों के काम सही तरीके से नहीं हो पाते थे, और इसका खामियाजा स्थानीय लोगों को उठाना पड़ता था. बेशक अपवाद मौजूद थे. लगभग 60 साल पहले जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन 'प्रधानमंत्री' बख्शी गुलाम मोहम्मद ने राज्य के एक अच्छे युवा पुलिस अधिकारी को लद्दाख का एसपी बनकर जाने को कहा था.
वह पद कुछ समय के लिए खाली था, और कई दूसरे अधिकारियों ने इस तैनाती से बचने के तरीके खोज लिए थे. उस अधिकारी मनमोहन वजीर ने बेहतरीन काम किया था- वह और उनकी बीवी (अपनी छोटी सी, दुधमुंही बच्ची को अपनी बांहों में उठाए) टट्टू, याक और पैदल चलकर लेह पहुंचे. उन्होंने अपने दो कार्यकाल वहां गुजारे. लेकिन वजीर के बाद दूसरे अधिकारियों ने इस तैनाती से बचने के लिए कई पैंतरे किए.
बदकिस्मती से कुछ अधिकारियों के पास ही ड्यूटी को लेकर ऐसा समर्पण भाव और देशभक्ति होती है. ज्यादातर लोगों के दिमाग में लद्दाख ‘पनिशमेंट’ पोस्टिंग वाली जगह है, इसके बावजूद कि वहां सिर्फ सड़क ही नहीं, हवाई कनेक्टिविटी भी हो चुकी है.
अक्खड़पने पर काबू जरूरी है
अगर किसी अधिकारी को सचमुच उसके अक्खड़पन की वजह से सजा दी जाती है तो उसका घमंड भी तोड़ा जाना चाहिए- जगह चाहे कोई भी हो. ऐसे इंसान को किसी ऐसी जगह भेजना, जहां कोई वरिष्ठ अधिकारी, राजनैतिक आका या और ऐसा कोई भी मौजूद न हो जो उस पर नजर रख सके, तो इसका नतीजा क्या होगा? उसे अपनी हेकड़ी दिखाने का और मौका मिलेगा.
असल में ऐसा इसलिए किया गया है ताकि राष्ट्रीय मीडिया की नजरें उन पर और न पड़ें, और ये लोग प्रशासन की और बेइज्जती न कराएं. यानी सोच यह थी कि उन्हें लोगों की नजरों से दूर कर दिया जाए. लेकिन किसी ने सोशल मीडिया पर सही ही कहा था: लद्दाख और अरुणाचल को सजा क्यों दी जा रही है?
दुखद विडंबना यह है कि सोशल मीडिया पर ऐसे कमेंट करने वाले ज्यादातर लोग अपेक्षाकृत उपेक्षित इलाकों से ही हैं. देश में ‘मुख्यधारा’ के लोग इन तैनातियों की विडंबनाओं से अनजान ही रहते हैं. ज्यादातर ने ‘पनिशमेंट’ पोस्टिंग्स का स्वागत किया. कइयों ने तो इस बात पर भी ध्यान दिया कि कुत्ते के पास अब च्वॉइस है.
(डेविड देवदास ‘द स्टोरी ऑफ कश्मीर’ और ‘द जनरेशन ऑफ रेज इन कश्मीर’ (ओयूपी, 2018) के लेखक हैं. उनका ट्विटर हैंडिल है, @david_devadas. यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)