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‘डिजिटल डकैती’ पर हमारे PM की नजरे-इनायत कब होगी?

भारत में डिजिटल माध्यमों पर जितना विज्ञापन दिया जाता है, उसका 90 फीसदी अमेरिकी कंपनियों को मिल रहा है.

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हमारे प्यारे प्रधानमंत्री को एक्रोनिम बहुत पसंद हैं. यहां मैं एक ऐसे एक्रोनिम का जिक्र कर रहा हूं, जो उन्हें शायद पसंद ना आए. यह है- DACOIT (डकैत) यानी डिजिटल, अमेरिका/चाइना (आर) कॉलोनाइजिंग एंड ऑब्लिटरेटिंग इंडियन टेक! इसका मोटे तौर पर यह मतलब है कि डिजिटल अमेरिका और चीन भारतीय टेक्नोलॉजी को अपने अधीन करके उसका नामोनिशान मिटा रहे हैं.

भारत का हश्र यूरोप जैसा नहीं होना चाहिए, जो अमेरिका की डिजिटल कॉलोनी बन चुका है.

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प्रधानमंत्री ने बड़े जोशोखरोश से भारत को डिजिटल सुपरपावर बनाने का वादा किया था. उन्होंने स्टार्ट-अप इंडिया का सपना दिखाया था, जो स्मार्ट टेक्नोलॉजी से दुनिया में बदलाव लाएगा. इस मामले में कड़वी सच्चाई क्या है, इसे नैस्पर्स के सीईओ बॉब वान के सीना छलनी वाले शब्दों से समझा जा सकता है.

उन्होंने इकनॉमिक टाइम्स को 26 फरवरी 2018 को दिए इंटरव्यू में कहा था:

भारत को ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए, जिससे लोकल बिजनेस सफल हो सकें. अगर मैं बिना लाग-लपेट के कहूं, तो यूरोप अमेरिका की डिजिटल कॉलोनी है. यूरोप के पास कुछ नहीं है. सर्च, कंटेंट, सोशल या वीडियो को लेकर नीतियां नहीं बनाई जा रही हैं. इसका मतलब यह है कि सफल इंटरनेट उद्यमियों या प्रोफेशनल्स के लिए कोई ईकोसिस्टम नहीं है. अगर मैं आपका प्रधानमंत्री होता, तो मेरे दिमाग में यह बात जरूर होती. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप विदेशी निवेश को रोकिए. आपको विदेशी निवेश के साथ स्किल की भी जरूरत है. लेकिन इस प्रोसेस में आपका हश्र यूरोप की तरह नहीं होना चाहिए. भारत में ऐसे फैसले नहीं लिए जा रहे हैं. मुझे लगता है कि इसका अंजाम बुरा होगा.

नैस्पर्स अफ्रीका की बड़ी कंपनियों में से एक है, जो चीन की टेनसेंट में सबसे बड़ी इनवेस्टर भी है.

1970 के चंबल के डकैतों की जगह डिजिटल डकैतों ने ले ली

जिस तरह से 1970 और 1980 के दशक में चंबल के डकैत मध्य भारत में लूटपाट करते थे, उसी तरह से शेनझेन और सिलिकॉन वैली के डकैत 21वीं सदी की डिजिटल दुनिया पर धावा बोल रहे हैं. गूगल और फेसबुक के दबदबे के सामने हमने पहले ही हथियार डाल दिए हैं. इसका मामूली विरोध भी नहीं हुआ.

भारत में डिजिटल माध्यमों पर जितना विज्ञापन दिया जाता है, उसका 90 फीसदी दोनों अमेरिकी कंपनियों को मिल रहा है. उनके पास एक अरब भारतीयों की डिजिटल आइडेंटिटी है. उन्हें पता है कि हम क्या सर्च करते हैं, क्या खरीदते हैं, किसके साथ डेट पर जाते हैं, हमारी राजनीतिक सोच क्या है, हम क्या सोचते हैं. हम जो भी करते हैं, उन्हें पता होता है.

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खुद को ‘राष्ट्रवादी’ बताने वाली सरकार की नाक के नीचे ऐसा होना शर्म की बात

सर्च और सोशल मीडिया को छोड़ दें, तो क्या दूसरे बिजनेस में विदेशी कंपनी को जवाब देने के लिए भारतीय कंपनी नहीं है? अगर यहां एमेजॉन है, तो क्या फ्लिपकार्ट नहीं है, जिसे सचिन और बिन्नी बंसल ने शुरू किया था. सच तो यह है कि दूसरे विदेशी निवेशकों के साथ फ्लिपकार्ट में चीन की टेनसेंट की 70 फीसदी हिस्सेदारी है.

सचिन और बिन्नी बंसल के पास तो कंपनी के 10 फीसदी शेयर ही बचे हैं. अब खबर आई है कि वॉलमार्ट भी फ्लिपकार्ट में हिस्सेदारी लेने जा रही है.

भारत में डिजिटल माध्यमों पर जितना विज्ञापन दिया जाता है, उसका 90 फीसदी अमेरिकी कंपनियों को मिल रहा है.
खबर है कि वॉलमार्ट फ्लिपकार्ट में हिस्सेदारी लेने जा रही है.
(फोटो: iStock)
आप यह भी तर्क दे सकते हैं कि अमेरिकी उबर को टक्कर देने के लिए हमारे पास भावीश अग्रवाल और अंकित भाटी की ओला है. हालांकि, ओला के 60 फीसदी शेयर भी कुछ विदेशी निवेशकों के पास हैं. उसमें एक निवेशक जापान कासॉफ्टबैंक ग्रुप है, जिसके पास चीन की अलीबाबा के सबसे अधिक शेयर हैं.

अच्छा, तो अब आप पेटीएम का नाम गिनाएंगे. क्या आपको पता है कि पेटीएम पर मालिकाना हक रखने वाली वन97 कम्युनिकेशंस के 60 फीसदी शेयर अलीबाबा के पास हैं. विजय शेखर शर्मा के पास तो इसके 20 फीसदी से भी कम शेयर हैं? इसका मतलब यह है कि पेटीएम में अलीबाबा के संस्थापक जैक मा की चलेगी.

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ऐसा डिजिटल ईकोसिस्टम, जहां डकैतों का राज है

भारत की डिजिटल इकनॉमी पर डकैत पूरी तरह काबिज हो चुके हैं. इंफोसिस के संस्थापकों में से एक मोहनदास पाई के शब्दों में:

1 अरब डॉलर से अधिक वैल्यू वाली 8 भारतीय स्टार्टअप में से सात विदेशी हैं. इनमें बड़ी हिस्सेदारी विदेशी निवेशकों की है और इन कंपनियों के संस्थापक ‘मैनेजर’ बनकर रह गए हैं.

आधा लाख करोड़ डॉलर के मार्केट कैप वाली टेनसेंट की नजर हाइक, प्रैक्टो, बायजू और मेकमायट्रिप पर भी है, जबकि 450 अरब डॉलर के मार्केट कैप वाली अलीबाबा के निशाने पर जोमाटो और टिकटन्यू भी आ गई हैं.

भारतीय डिजिटल कंपनियों की आत्मा को शांति मिले, हमारी सरकार ने उनकी दिनदहाड़े लूट की छूट दे रखी है.

मुझे पता है कि कुछ लोग यह कह सकते हैं कि आखिर अलीबाबा में भी जैक मा की हिस्सेदारी सिर्फ 8 फीसदी है. टेनसेंट के पोनी मा का भी यही हाल है. यहां तक कि फेसबुक के संस्थापक मार्क जकरबर्ग के पास भी कंपनी के 20 फीसदी शेयर ही हैं. फिर आप प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों पर क्यों सवाल उठा रहे हैं. हमारे प्यारे प्रधानमंत्री तो कोई गलती कर ही नहीं सकते.
भारत में डिजिटल माध्यमों पर जितना विज्ञापन दिया जाता है, उसका 90 फीसदी अमेरिकी कंपनियों को मिल रहा है.
अलीबाबा में जैक मा की हिस्सेदारी सिर्फ 8 फीसदी है
(फोटो: फेसबुक)

ऐसी दलील देने से अच्छा यह होगा कि प्रैक्टिकल सॉल्यूशंस की तलाश की जाए. जैक मा भले ही अलीबाबा में 8 फीसदी इकनॉमिक इंटरेस्ट रखते हों, लेकिन वेरिएबल इंटरेस्ट एंटिटी के जरिये उनका कंपनी पर 100 पर्सेंट कंट्रोल है. जकरबर्ग का भी डिफरेंशियल वोटिंग राइट्स के जरिये अपनी कंपनी पर कंट्रोल है.

कहने का मतलब यह है कि अमेरिका और चीन अपने आइकॉनिक फाउंडर्स को विशाल रकम जुटाने में मदद कर रहे हैं. दिलचस्प बात यह है कि चीन की कंपनियां अमेरिकी शेयर बाजार में लिस्टिंग के जरिये डॉलर में पैसा जुटा रही हैं और उन पर चीन के लोगों का कंट्रोल बना हुआ है.

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भारतीय उद्यमियों को उलझा दिया गया है

दूसरी तरफ भारतीय उद्यमी पुराने कानून में फंसे हैं. उन्हें डिफरेंशियल वोटिंग राइट्स वाले शेयर इश्यू करने की इजाजत नहीं है. वे बिना वोटिंग राइट्स वाले शेयर जारी नहीं कर सकते. विदेशी निवेशकों को क्वॉसि-इक्विटी/डेट प्रॉडक्ट्स,परपेचुअल बॉन्ड, वॉरंट, कन्वर्टिबल, पुट्स, कॉल्स, ट्रैकिंग स्टॉक्स या ऑप्शंस बेचने और उनकी प्राइसिंग को लेकर कई तरह की पाबंदियां लगी हैं.

अगर कोई कंपनी भारतीय शेयर बाजार में लिस्टेड नहीं है, तो उसे विदेशी स्टॉक एक्सचेंजों पर भी लिस्ट नहीं कराया जा सकता. हालांकि, इस मामले में इधर कुछ ढील दी गई है. भारत में ऐसा लीगल फ्रेमवर्क नहीं है, जिससे एक ही कंपनी में डिफरेंशियल वोटिंग राइट्स जैसे जरियों से मालिकाना हक और कंट्रोल को अलग किया जा सके.

कंपनियों को आजादी मिलनी चाहिए

मैंने जब भी आरबीआई, सेबी, नीति आयोग और वित्त मंत्रालय के अधिकारियों को मालिकाना हक और कंट्रोल का फर्क समझाने की कोशिश की, मुझे हार माननी पड़ी. उन्हें यह बात समझ में नहीं आती कि विजय शेखर या भावीश या सचिन बंसल जैसे उद्यमी विदेशी निवेशकों से अरबों की रकम जुटाने के बाद भी छोटी हिस्सेदारी के साथ कंपनियों पर अपना कंट्रोल बनाए रख सकते थे. तभी असल डिजिटल इंडिया दिखेगा. तभी फेसबुक, गूगल, अलीबाबा, एमेजॉन और टेनसेंट को टक्कर देने वाली कंपनियां हमारे पास होंगी.

अभी भी बहुत देर नहीं हुई है. अगले 10 साल में भारतीय ई-कॉमर्स मार्केट 13 गुना, डिजिटल पेमेंट 4 गुना, स्मार्ट इंटरनेट यूजर्स का बाजार 4 गुना बढ़ेगा. इस तूफानी ग्रोथ का फायदा भारतीय उद्यमी उठा सकते हैं, बशर्ते उन्हें एम्पावर किया जाए. अगर ऐसा नहीं होता है, तो प्रधानमंत्री और नौकरशाहों की उनकी टीम मौजूदा डकैती जारी रहने देगी.

ये भी पढ़ें- राघव बहल: देश में ‘डिजिटल डिवाइड’ की कहानी

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(लड़कियों, वो कौन सी चीज है जो तुम्हें हंसाती है? क्या तुम लड़कियों को लेकर हो रहे भेदभाव पर हंसती हो, पुरुषों के दबदबे वाले समाज पर, महिलाओं को लेकर हो रहे खराब व्यवहार पर या वही घिसी-पिटी 'संस्कारी' सोच पर. इस महिला दिवस पर जुड़िए क्विंट के 'अब नारी हंसेगी' कैंपेन से. खाइए, पीजिए, खिलखिलाइए, मुस्कुराइए, कुल मिलाकर खूब मौज करिए और ऐसी ही हंसती हुई तस्वीरें हमें भेज दीजिए buriladki@thequint.com पर.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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