वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के अंतरिम केंद्रीय बजट 2024 (Interim Budget) में एक क्षेत्र की तरफ सबसे कम ध्यान दिया गया है. यह क्षेत्र शिक्षा है, जिसे बहुत कम आवंटन किया गया है. उल्लेखनीय है कि स्कूली शिक्षा के लिए बजट परिव्यय में 500 करोड़ रुपए से ज्यादा की बढ़ोतरी की गई है, लेकिन उच्च शिक्षा के लिए अनुदान पिछले वित्तीय वर्ष के संशोधित अनुमान से 9600 करोड़ रुपए से भी कम कर दिया गया है.
पिछले वर्ष शिक्षा मंत्रालय का बजट आवंटन 1.12 लाख करोड़ रुपए था, जिसमें 2022-23 की तुलना में 8% की वृद्धि थी, जब यह 1.04 लाख करोड़ रुपए था.
वित्त मंत्री ने उच्च शिक्षा में महिलाओं के दाखिलों में 28% की बढ़ोतरी की जानकारी दी और कहा कि कैसे विज्ञान, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और गणित (S.T.E.M) पाठ्यक्रमों में महिलाओं की संख्या बढ़ी है और कुल दाखिलों में उनका हिस्सा 43% है. विश्व स्तर पर यह दर काफी अधिक है. लेकिन वित्त मंत्री इसमें यह जोड़ना भूल गईं कि श्रम बाजार के ताजा आंकड़ों के अनुसार, शहरी कामकाजी यानी इंप्लॉयड नौजवानों में शिक्षित महिलाओं का अनुपात सबसे अधिक है.
हालांकि अगर हम पूरे भारत में शिक्षा क्षेत्र की स्थिति को देखें, तो पाएंगे कि मोदी सरकार ने साल-दर-साल शिक्षा के लिए पर्याप्त परिव्यय नहीं किया. जबकि उन्हीं की सरकार ने एक महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) की घोषणा की थी. इस नीति के लिए अधिक धनराशि की जरूरत है (सरकार की तरफ से) ताकि शिक्षा संस्थान इस नीति को लागू कर सकें.
बियॉन्ड बेसिक्स नाम की एक रिपोर्ट में चार मुख्य संकेतकों के बारे में खुलासा किया गया है-
शिक्षा और करियर का मार्ग
आधारभूत कुशलता की व्यावहारिक उपयोगिता
डिजिटल पहुंच
भविष्य की आकांक्षाएं
2023 में इस सर्वेक्षण में 26 राज्यों के 28 जिलों को शामिल किया गया. इसमें 14-18 वर्ष की आयु के कुल 34,745 नौजवानों को सैंपल साइज बनाया गया. इंटरव्यू में विद्यार्थी काफी बड़ी संख्या में थे, यानी इनमें से 86.8% शिक्षा संस्थानों में पढ़ते थे. हालांकि सर्वेक्षण से पता चलता था कि बालिग होते नौजवानों में दाखिला दर कम होती जा रही है.
अब इसका क्या कारण था कि बालिग होते नौजवान स्कूल-कॉलेज छोड़ते जा रहे थे. ग्रामीण भारत में नौजवानों में असंतोष की स्थिति है, जो आम तौर पर जीवन को बेहतर बनाने के लिए उच्च शिक्षा हासिल करना चाहते हैं.
नौजवानों में बढ़ती बेरोजगारी (ज्यादातर पढ़े-लिखे नौजवानों) के कारण उच्च शिक्षा से स्कूली विद्यार्थियों का मोहभंग हुआ है, जोकि बेहतर नौकरियों का जरिया माना जाता है.
यह अवधारणा गलत है और इसे दूर करने की जरूरत है. इसके अलावा राज्य और सरकार के लिए यह भी अहम है कि वह उन शिक्षण संस्थानों को वित्तीय मदद दें जोकि बच्चों को स्कूल छोड़ने से रोक नहीं पा रहे, और शिक्षा को अधिक दक्ष, रोजगारपरक बनाने का प्रयास करें- खासकर ग्रामीण इलाकों में, जहां साक्षरता के निम्न स्तर के कारण जीवन और आजीविका का स्तर भी निम्न होता है.
बजट 2024 में शिक्षा के लिए आवंटन नाकाफी है
ASER 2023 रिपोर्ट में राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर शिक्षा विभागों को मिलने वाली धनराशि का विवरण दिया गया है. इससे पता चलता है कि राज्यों और उच्च शिक्षा संस्थानों को वित्तीय सहयोग की प्रकृति कैसी है.
राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा पर कुल व्यय में 2014-15 के बाद से काफी गिरावट देखी गई है. तब यह व्यय 16% के करीब था, और 2023-24 में यह 13.3% रह गया है. कोविड-19 महामारी के दौरान स्थितियां बुरी थीं, और इस दौरान शिक्षा पर कम खर्च लाजमी था, लेकिन इसके बाद भी इस मद में वृद्धि नहीं की गई.
पिछले वर्ष भी यह कम ही बना रहा. एनडीए सरकार के चुनावी घोषणापत्र में शिक्षा पर काफी जोर दिया गया था. इसके अलावा 2020 में नई शिक्षा नीति भी लाई गई थी. लेकिन इस क्षेत्र के लिए किया गया आवंटन, उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता.
ASER 2023 रिपोर्ट में शुद्ध दाखिलों से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण करने पर, कुल व्यय के प्रतिशत के रूप में शिक्षा पर व्यय का तीन साल का औसत और सामाजिक व्यय का तीन साल का औसत, हमें शिक्षा पर खर्च, शुद्ध दाखिलों और भारत के विभिन्न राज्यों में सामाजिक व्यय की जानकारी देता है (ऊपर ग्राफ देखें).
कर्नाटक, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल में शुद्ध दाखिले का प्रतिशत अधिक है (क्रमशः 66.8%, 68.1%, और 69.4%) और कुल व्यय के प्रतिशत के रूप में शिक्षा पर अपेक्षाकृत उच्च व्यय (क्रमशः 11.5%, 13.7%, और 15.5%) किया जाता है. यह इन राज्यों में शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है, जिसके परिणामस्वरूप दाखिला दर में वृद्धि हुई है. जबकि केरल और तेलंगाना जैसे राज्यों में संतुलित प्रवृत्ति है.
केरल में उच्च शुद्ध दाखिला दर (59.5%) के साथ-साथ शिक्षा पर उचित व्यय किया जाता है (12.9%).
दूसरी ओर तेलंगाना में शुद्ध दाखिला दर (59.8%) सबसे अधिक है, लेकिन शिक्षा पर व्यय कम है (6.9%) है. बिहार में शुद्ध दाखिला दर (34.6%) कम है और शिक्षा पर काफी खर्च किया जाता है (17.6%). उत्तर प्रदेश भी शुद्ध नामांकन दर कम है (33.8%) और अपेक्षाकृत उच्च शिक्षा व्यय है (12.9%).
सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि किस प्रकार कुछ राज्यों ने बेहतर शिक्षा परिणाम हासिल करने के लिए शिक्षा पर अपने सीमित संसाधनों का बेहतर उपयोग किया है जबकि दूसरे राज्य ऐसा नहीं कर पाए. इन राज्यों के संस्थानों में नीतियों में व्यापक बदलाव और समीक्षा की जरूरत है. इस तरह वे अपनी दाखिला दर सुधार पाएंगे और शिक्षा पर अधिक खर्च कर पाएंगे.
हालांकि अगर किसी राज्य में उच्च शुद्ध दाखिला दर है, और वह शिक्षा पर अधिक खर्च भी करता है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह सामाजिक व्यय भी अधिक करता है. उदाहरण के लिए कर्नाटक में शिक्षा संबंधी संकेतक बहुत बेहतरीन हैं लेकिन सामाजिक व्यय में उसकी रैंकिंग सामान्य है (11.5%). दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल, शिक्षा पर अपनी मजबूत प्रतिबद्धता के साथ-साथ, सामाजिक व्यय के लिए काफी आवंटन करता है (15.5%).
दाखिले से जुड़े आंकड़े अधिक (या कम) कैसे हैं?
रिपोर्ट बताती है कि शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेने वाले 14-18 वर्ष के 86.8% बच्चों के बीच आयु का अंतर काफी है. जैसा कि निम्नलिखित रेखाचित्र में देखा जा सकता है, उम्र बढ़ने के साथ-साथ दाखिले में धीरे-धीरे गिरावट आई है. यह देखा गया है कि 16-17 आयु वर्ग के बीच के किशोर निजी संस्थानों की तुलना में सरकारी संस्थानों में अधिक दाखिला लेते हैं और लड़कों के मुकाबले लड़कियां अधिक संख्या में दाखिला लेती हैं.
हालांकि, दाखिले में छोटा लैंगिक अंतर है, लेकिन उम्र के हिसाब से उल्लेखनीय अंतर दिखाई देता है. रिपोर्ट से पता चलता है कि अधिक उम्र के लोगों के स्कूल या कॉलेज में दाखिला लेने की संभावना कम है.
सर्वेक्षण में कुल 24.4% किशोरों और 23.6% किशोरियों ने 17-18 वर्ष की आयु के दौरान शिक्षा रोक दी थी. सर्वेक्षण से यह भी पता चलता है कि बारहवीं तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद 17 से 18 वर्ष के बीच के लोगों में ड्रॉपआउट दर सबसे अधिक है यानी इस उम्र के लोग बड़ी संख्या में पढ़ाई छोड़ देते हैं. यह आंकड़ा 24.6% है. निम्नलिखित ग्राफ में बालिग होते किशोरों के बीच पढ़ाई छोड़ने के कारणों के बारे में बताया गया है.
शिक्षण संस्थानों को छोड़ने का एक कारण यह है कि व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में दाखिला लिया जा रहा है लेकिन इसमें भी विषमता है. सर्वेक्षण में शामिल 5.6% किशोरों ने व्यावसायिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों या अन्य पाठ्यक्रमों में दाखिला लिया था लेकिन जिन लोगों ने ग्रैजुएट स्तर की पढ़ाई के दौरान बारहवीं कक्षा के बाद ऐसा किया था, वे 16.2% लोग थे. यानी उन्होंने ग्रैजुएशन की पढ़ाई बीच में छोड़ दी. इन पाठ्यक्रमों में दाखिला वाले ज्यादा विद्यार्थियों ने अल्पावधि के पाठ्यक्रमों को चुना था, जैसा कि निम्नलिखित ग्राफ में दर्शाया गया है.
स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद आगे की पढ़ाई को बीच में छोड़ना चिंता की बात है. यह बताता है कि भारत में उच्च शिक्षा के मानक और पहुंच बहुत अच्छे नहीं हैं. इससे यह भी पता चलता है कि राष्ट्रीय और राज्य सरकारें शिक्षा को कितना कम महत्व देती हैं.
2022-23 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, पिछले आठ से नौ वर्षों के दौरान मोदी सरकार के कुल व्यय में शिक्षा के लिए आवंटन 10.4% से गिरकर 9.5% हो गया है.
यहां तक कि कोविड-19 के वर्षों के दौरान भी, जिनके असर का आकलन ASER 2022-21 के अध्ययन में किया गया था, कुल व्यय में शिक्षा का समग्र हिस्सा 2019-2020 में 10.7% से घटकर पहले कोविड-19 वर्ष में 9.1% हो गया, और अगले वर्ष स्थिर रहा. बस 2022-2023 के बजटीय अनुमान में इसमें मामूली बढ़ोतरी हुई (तब यह व्यय 9.5% था).
शिक्षा पर व्यय का निम्न स्तर (सभी स्तरों पर) परेशानी का सबब है. शिक्षा के लिए अधिक खर्च करने से सरकार नई तकनीक और नीतिगत उपायों पर काम कर सकती है. बच्चे पढ़ाई जारी रख सकते हैं- ड्रॉपआउट दर कम हो सकती है और उनकी रोजगार क्षमता में सुधार हो सकता है (उच्च शिक्षा संस्थानों के संदर्भ में).
राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने के लिए राज्य और केंद्र सरकार, दोनों को शिक्षा संस्थानों को वित्तीय सहायता देनी होगी. यह देखते हुए कि राज्य का बजट कितनी बुरी तरह प्रभावित हुआ है, केंद्र सरकार को इस सिलसिले में अधिक कोशिश (वित्तीय रूप से) करनी होगी.
जो बच्चे उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर सकते, या करना नहीं चाहते, उन्हें अच्छी क्वालिटी के व्यावसायिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम के जरिए बेहतर विकल्प देने की जरूरत है, और इसके लिए अधिक धनराशि आवंटित की जानी चाहिए.
कौशल विकास पर अधिक व्यय करना महत्वपूर्ण है जिससे बच्चे बुनियादी जीवन कौशल से लैस हों और यह उनके लिए रोजगार के अवसरों की तलाश में उपयोगी साबित हो (दिल्ली एनसीआर क्षेत्र में नरेला में हमने काम किया है और इसकी माइक्रो केस स्टडी यहां पढ़ी जा सकती है).
अलग-अलग डिग्री और अवधि के व्यावसायिक और कौशल कार्यक्रमों को स्कूल पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जा सकता है. इससे ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों की रोजगार क्षमता बढ़ाने में मदद मिलेगी.
उच्च शिक्षा और केंद्र सरकार राज्यों को शिक्षा के लिए जो धनराशि हस्तांतरित करती है, उससे राज्यों के सरकारी संस्थानों को अधिक स्कॉलरशिप देने में मदद मिल सकती है, और मेरिट कम मीन्स के आधार पर विद्यार्थी अवसरों का लाभ उठा सकते हैं. इससे वे आर्थिक परेशानियों के चलते माध्यमिक स्कूलों और उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ाई बीच में छोड़ने को मजबूर नहीं होंगे. इसके अलावा शिक्षा पर अधिक व्यय से विद्यार्थियों को निजी संस्थानों के मुकाबले सरकारी स्कूलों में बेहतर अवसर मिलेंगे.
विभिन्न क्षेत्रों और शिक्षा के व्यावहारिक विषयों में अधिक कुशल विशेषज्ञों के सहयोग से समग्र विकास कार्यक्रम और प्रशिक्षण शुरू किया जा सकेगा. उम्मीद की जा सकती है कि जुलाई में पूर्ण केंद्रीय बजट में इस पर ध्यान दिया जाएगा और सरकार इस क्षेत्र को प्राथमिकता देगी.
(दीपांशु मोहन अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज (सीएनईएस), जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में निदेशक हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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