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Israel: बिना बहुमत सरकार बचाएंगे PM बेनेट या फिर से होगा नेतन्याहू का कमबैक ?

Israel Political crisis: 120 सदस्यों वाली इजराइली संसद में Naftali Bennett की सरकार के पास केवल 60 सांसदों का समर्थन

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Israel: बिना बहुमत सरकार बचाएंगे PM बेनेट या फिर से होगा नेतन्याहू का कमबैक ?
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इजराइल (Israel) की राजनीति में एक बार फिर से हो रही उथल पुथल ने निकट भविष्य में देश में एक और चुनाव की संभावनाओं को व्यापक रूप से बढ़ा दिया है. 14 जून 2021 को एक ऐतिहासिक संसदीय वोटिंग के द्वारा अस्तित्व में आयी वैचारिक रूप से एकदम अलग आठ दलों की कमजोर मिली-जुली सरकार दस महीने में ही एक कठिन दौर से गुजर रही है.

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इस राजनीतिक उठा-पटक की पठकथा लिखने का श्रेय सांसद इडिट सिलमन को जाता है जिन्होंने 5 अप्रैल 2022 को प्रधानमंत्री नेफ्ताली बेनेट की अध्यक्षता वाली सरकार से इस्तीफा देकर देश को फिर से राजनीतिक अनिश्चितता के एक नए दौर में झोक दिया.

अब 120 कनेसेट सदस्यों वाली इजराइली संसद में बेनेट की अध्यक्षता वाली सरकार के पास केवल 60 संसद सदस्यों का समर्थन रह गया है. परिणामस्वरूप सरकार अब बिना विरोधी दलों के सहयोग के कोई कानून या नीति संसद में पास नहीं कर पाएगी.

यह राजनीतिक संकट, संसद सदस्य मीर ओर्बाख की मांगों को न मानने पर सरकार छोड़ने की धमकी के बाद और गरमा गया था. मीर ओर्बाख ने सरकार के सामने तीन मांगों को रखा था जिसमें पहली थी सरकार के द्वारा येशिवा (Yeshiva) छात्रों को डे-केयर सब्सिडी को फिर से स्थापित करना जिसे सरकार हटाना चाहती है.

दूसरा योजना आयोग के द्वारा वेस्ट बैंक में 4000 नए घरों के निर्माण की अनुमति तथा अवैध बस्तियों को इलेक्ट्रिक ग्रिड से जोड़ना. ओर्बाख की पहली दो मांगों ने घटक दलों में विवाद को जन्म दिया था. हालांकि अविगड़ोर लिबरमैन येशिवा डे-केयर सब्सिडी के मुद्दे पर थोड़े नरम जरूर पड़े और इसे 2024 तक के लिए स्थगित कर दिया.

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राम पार्टी ने बनाया दबाव, एक वोट पर टिकी सरकार

बाद में राम पार्टी प्रमुख मंसूर अब्बास ने 17 अप्रैल को गठबंधन से अपना समर्थन अस्थायी रूप से वापस ले लिया था. एक ऐसे समय में जब संसद अवकाश पर है और इस कदम को अल-अक्सा मजिस्द में रमजान के महीने में हो रही हिंसा के कारण बढ़ रहे राजनीतिक दबाव से प्रेरित देखा गया.

हालांकि बाद में विदेश मंत्री यर लिपिड और मंसूर अब्बास के बीच ये सहमति बन गयी कि राम पार्टी अपना समर्थन वापस नहीं लेगी. यह बात और है कि इसके लिए लिपिड को एक भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है.

राम पार्टी के समर्थन के बदले गठबंधन सरकार गैरकानूनी बेडोइन गांवों को मान्यता देगी. साथ ही सरकार बजट में अरब कम्युनिटी के लिए आधारभूत संरचना के विकास के लिए खास ध्यान देगी.

अभी की राजनीतिक स्थिति देख कर कहा जा सकता है कि इजराइल की गठबंधन सरकार के सामने सरकार को बचा पाना किसी चुनौती से कम नहीं होगा, यदि एक और सांसद गठबंधन छोड़ा तो सरकार का गिरना लगभग तय है.

यदि बेनेट अभी सरकार को बचा भी लेते है तो इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि निकट भविष्य में घटक दलों के बीच इस तरह की स्थिति दोबारा उत्पन्न नहीं हो सकती है. इजराइल के लिए येरुसलम, सेटलमेंट तथा अरब नागरिकों के अधिकारों से जुड़े मुद्दे हमेशा से ही संवेदनशील रहे हैं जो कि पहले भी कई सरकारों के टूटने के कारण बने हैं.
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एक छोटा सा मुद्दा भी घटक दलों को सरकार छोड़ने पर मजबूर कर सकता है. अभी की स्थिति से यह तो साफ है कि वर्तमान सरकार के लिए, जोकि संसद में बहुमत में भी नहीं है, अब आगे का सफर थोड़ा और मुश्किलों भरा हो गया है.

सिलमन के जाने के क्या हैं मायने?

सिलमन का बेनेट की सरकार से समर्थन वापस लेना इस बात का सीधा संकेत है कि गठबंधन सरकार में आंतरिक मनमुटाव है. इस मनमुटाव की व्यापकता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि गठबंधन सरकार के गठन से लेकर अब तक दो सांसद, अमाई चिक्ली तथा इडिट सिलमन, यामिना पार्टी को छोड़ कर जा चुके है.

इतना नहीं यामिना के बाकि सांसदों में भी विद्रोह के आसार कई बार देखने को मिले है. कई अवसरों पर सांसद अयेलेट शाकेड भी सरकार की नीतियों की आलोचना कर चुकी हैं.

इस आंतरिक प्रतिरोध को ध्यान में रखकर, ये साफ दिखता है कि बेनेट सरकार लम्बे समय तक दक्षिणपंथी सांसदों की मांगो को अनदेखा नहीं कर सकती. साथ ही वो उदारवादी तथा वामपंथी दलों को भी नाराज नहीं कर सकती. संसद में बहुमत खोने के बाद सरकार का एक छोटा सा कदम भी गठबंधन के टूटने का कारण बन सकता है.

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9 मई पर सबकी नजर

इस समय सबकी नजर 9 मई पर है, जब इजराइल की संसद अवकाश के बाद अपने कामकाज को पुनः आरंभ करेगी. यह अनुमान लगाया जा रहा है कि उस दिन संसद में विरोधी दल अविश्वास प्रस्ताव भी ला सकते है. यदि 9 मई को कोई और सदस्य गठबंधन को छोड़ देता है तो सरकार का गिरना लगभग तय है.

दूसरी तरफ कुछ राजनीतिक विचारकों का यह भी मानना है कि बेनेट सरकार के बाकी घटक दल यह कोशिश करेंगे कि किसी भी तरह सरकार को गिरने से बचाया जाये, क्योंकि यदि सरकार गिर जाती है और दुबारा चुनाव होते हैं तो उनके वापस सत्ता में आने की गुंजाईश भी काफी कम है.

यदि बेनेट सरकार को बचाने में कामयाब भी हो जाते है तो उनके लिए समस्या कम नहीं होगी. क्योंकि सिलमन के जाने के बाद गठबंधन का बहुमत खत्म हो चुका है. इस अवस्था में बेनेट सरकार को कोई भी कानून पारित करने के लिए विरोधी पार्टी के सहयोग की जरूरत होगी.
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ज्वाइंट लिस्ट एकमात्र ऐसी संभावित पार्टी है जिससे सरकार समर्थन की उम्मीद रख सकती है. लेकिन सिलमन के जाने के बाद, ज्वाइंट लिस्ट के लीडर अयमान ओदे ने ये साफ कर दिया था कि उनकी पार्टी बेनेट की सरकार के लिए “लाइफ लाइन” नहीं होगी.

ऐसी स्थिति में बेनेट के लिए ज्वाइंट लिस्ट से सहयोग की उम्मीद रखना बेमानी ही होगी, बावजूद इसके यह भी एक तथ्य है कि इजराइल की राजनीति अपने त्वरित बदलावों के लिए जानी जाती है. इसलिए कब कहां क्या बदल जाये यह कह पाना थोड़ा सा मुश्किल है.

बेनेट सरकार को बहुमत वापस नहीं मिला तो? क्या नेतन्याहू करेंगे कमबैक?

अगर बेनेट सरकार बहुमत वापस हासिल करने में असफल होती है तो फिर इजराइल में दो परिदृश्य हो सकते है -पहला चुनाव तथा दूसरा वर्तमान संसद ही एक नई सरकार का गठन करे.

सरकार गिरने की सूरत में सबकी नजर बेंजामिन नेतन्याहू की इजराइल की राजनीति में एक बार फिर वापसी पर भी होगी. यह बात और है कि नेतन्याहू के लिए वापसी करना आसान नहीं होगा क्योंकि उनके पास भी 61 सांसदों के समर्थन का आभाव है.

इस समय नेतन्याहू की लिकुड पार्टी के पास संसद में 54 कनेसेट (संसद) सदस्यों का समर्थन है. भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे नेतन्याहू को सांसदों का एक बड़ा समूह देश के प्रधानमंत्री के रूप में नहीं देखना चाहता, इसी वजह से पिछले चुनावो में लिकुड को सरकार बनाने में खास समस्या का सामना करना पड़ा था.

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यदि पोल्स की माने तो यदि चुनाव होते भी हैं तो लिकुड पार्टी के लिए बहुमत हासिल करना बहुत मुश्किल होगा. पोल्स के अनुसार चुनाव होने की सूरत में इजराइल एक बार फिर राजनीतिक गतिरोध के दौर में वापस जा सकता है जहां एक बार फिर से नई सरकार बनाना बहुत मुश्किल होगा.

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इजराइल की राजनीति इस समय एक ऐसे अनिश्चितता के दौर में वापस चली गयी है, जिसने देश में जल्द ही एक और चुनाव होने की संभावनाओं को बहुत बढ़ा दिया है.

(लेखक डॉ. जतिन कुमार मनोहर पर्रिकर रक्षा अध्ययन और विश्लेषण संस्थान में डिफेंस एनालिस्ट हैं. लेखक मिडिल ईस्ट देशों से जुड़े राजनीतिक मुद्दों के विशेषज्ञ हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं ,उनके संस्थान के नहीं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)

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