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Israel-Palestine और कनाडा पर भारत की कूटनीतिक खींचतान

Israel-Palestine Conflict: मध्य पूर्व में कूटनीतिक कौशल वक्त की मांग है, मगर इसमें भारत आंख मूंदकर इजरायल का समर्थन करता नजर आ रहा है.

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G20 शिखर सम्मेलन (G20 Summit 2023) के कामयाब आयोजन के लिए एक राय से सबकी तारीफ बटोरने के थोड़े ही वक्त बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की विश्व गुरु बनने की महत्वाकांक्षा और भारतीय कूटनीति में अड़चन आ गई है. कनाडा (Canada) में एक सिख अलगाववादी नेता की विवादास्पद हत्या के बाद कनाडा के साथ जारी बदनुमा कूटनीतिक तकरार के साथ-साथ फिलिस्तीन (Palestine) के लोगों के संघर्ष में इजरायल के साथ मोदी की शुरुआती निजी एकजुटता के प्रदर्शन के रूप में सामने आया है.

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हमास (Hamas) के हमलों से मध्य पूर्व में लड़ाई फैलने का खतरा पैदा हो गया है. भारत पर संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम (UK) जैसे इसके पश्चिमी रणनीतिक सहयोगियों से कनाडा के साथ राजनयिक विवाद में ज्यादा उदार रुख अपनाने का दबाव बढ़ रहा है. दूसरी तरफ ऐसा लग रहा है कि नरेंद्र मोदी ने इलाके में बढ़ते संघर्ष पर ज्यादा गहराई से विचार किए बिना मध्य पूर्व के ज्यादातर देशों को नाराज कर दिया है, यहां तक कि संयुक्त अरब अमीरात (UAE), सऊदी अरब (Saudi Arabia) और ईरान (Iran) जैसे प्रमुख आर्थिक साझेदारों को भी.

भारत को कनाडा के साथ ज्यादा संवेदनशील रवैया अपनाने की जरूरत

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने आरोप लगाया कि मोदी सरकार एक कनाडाई नागरिक, खालिस्तानी नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में शामिल है. नई दिल्ली ने न केवल इसका खंडन किया, बल्कि पुरजोर तरीके से लड़ाके रवैये के साथ इस पर डटी रही.

अपनी बात को सही ठहराने के लिए सरकार ने दिल्ली में तैनात 41 कनाडाई राजनयिकों की डिप्लोमेटिक इम्यूनिटी छीनने की धमकी देते हुए कई कदम उठाए हैं और यह दलील देकर कनाडा में वीजा सेवाओं को भी निलंबित कर दिया कि वहां भारतीय अधिकारी अब सुरक्षित नहीं हैं.

ट्रूडो सरकार ने भारत पर अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करने का आरोप लगाते हुए 41 राजनयिकों को स्थायी रूप से वापस बुलाकर पलटवार किया, जिसके नतीजे में दोनों देशों के बीच पहले से कड़वे रिश्ते और भी खराब हो गए हैं.

दिल्ली साउथ ब्लॉक (जहां विदेश मंत्रालय है) के लिए इस मामले पर अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम की ओर से बढ़ती आलोचना फिक्र बढ़ाने वाली है. पश्चिम के ये अहम सहयोगी भारत से गुजारिश कर रहे हैं कि सच का पता लगाने के लिए मिलकर जांच कर निज्जर की हत्या पर कनाडा के साथ झगड़े को शांत किया जाए. हकीकत यह है कि एक बड़ा राजनयिक विवाद छिड़ गया है, जिसने वाशिंगटन और लंदन में भारत के समर्थकों को साफ तौर पर परेशान कर दिया है और जिन्होंने समस्या पर पहली बार नई दिल्ली के नजरिए की खुले तौर पर आलोचना करना शुरू कर दिया है.

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पिछले हफ्ते वाशिंगटन डीसी में विदेश विभाग के प्रवक्ता ने कनाडाई राजनयिकों की वापसी पर चिंता जताते हुए भारत से कहा- “मतभेदों को सुलझाने के लिए जमीनी स्तर पर राजनयिकों की जरूरत होती है.”

उन्होंने भारत से आग्रह किया कि वह अपने देश से कनाडाई राजनयिकों को देश छोड़ने के लिए मजबूर करने वाले हालात पैदा न करे और जारी जांच में कनाडा के साथ सहयोग करे.

ध्यान देने वाली बात है कि उन्होंने भारत सरकार से राजनयिक संबंधों के लिए 1961 के वियना कन्वेंशन के तहत अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने की भी अपील की, जिसमें भारत में कनाडाई राजनयिक मिशन के मान्यता प्राप्त सदस्यों को हासिल विशेषाधिकार और छूट भी शामिल है.

UK में विदेश, राष्ट्रमंडल और डेवलपमेंट ऑफिस के एक प्रवक्ता ने इसी तरह की काबिल-ए-गौर सलाह दी थी. उन्होंने कहा था-“हम भारत सरकार की तरफ से लिए गए फैसलों से सहमत नही हैं, जिसके चलते कई कनाडाई राजनयिकों को भारत छोड़ना पड़ा.” अपने अमेरिकी समकक्ष की तरह ब्रिटेन के प्रवक्ता ने भी नई दिल्ली को 1961 के वियना कन्वेंशन के तहत उसकी जिम्मेदारियों की याद दिलाई.

साफ है कि ताकतवर चीन के जवाब के तौर पर कई पश्चिमी देशों के लिए भारत के रणनीतिक महत्व के बावजूद, वे न तो पुराने करीबी पश्चिमी साथी कनाडा को पूरी तरह से छोड़ सकते हैं, और न ही इंटरनेशनल डिप्लोमेटिक कन्वेंशन को पूरी तरह नजरअंदाज कर सकते हैं.

इसलिए, ज्यादा मुमकिन यह है कि भारत पर कनाडा के साथ उलझने में ज्यादा संतुलित रणनीति अपनाने का लगातार दबाव रहेगा, भले ही वह खालिस्तानी नेता की हत्या पर लगाए गए आरोपों का मजबूती से खंडन करता हो.

इजरायल और अरब देशों के साथ मोदी की महारत

मध्य पूर्व में मोदी सरकार की कूटनीतिक व्यवहार कुशलता वक्त की मांग है, जहां ऐसी सोच है कि भारत इजरायल का आंख मूंदकर समर्थन कर रहा है. यह फिलिस्तीनी लोगों के अपनी जमीन के हक के लिए उसके पारंपरिक समर्थन और हाल के सालों में लगातार यहूदी सरकार के करीब आते हुए भी अरब और ईरान दोनों के साथ नाजुक रिश्ते में कायम संतुलन के विपरीत होगा.

सोवियत संघ के खात्मे के बाद, और तीन दशक पहले तेल अवीव और नई दिल्ली के बीच पूर्ण राजनयिक संबंधों की बहाली के बाद से, भारत में अलग-अलग दलों और गठबंधनों से जुड़े अलग-अलग प्रधानमंत्रियों की अगुवाई वाली सरकारें इजरायल के करीब से ज्यादा करीब आती गई हैं.

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एक दशक पहले मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद, भारत-इजरायल संबंध एक नए स्तर पर पहुंच गए हैं. इसमें कुछ योगदान मोदी और इजरायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू के बीच निजी संबंधों का है और कुछ दोनों देशों के बीच बढ़ते सैन्य संबंधों का, जिससे इजरायल रूस के बाद इस देश में दूसरा सबसे बड़ा सैन्य सामग्री सप्लायर बन गया है.

फिर भी इसके साथ मोदी इजरायल से बढ़ते संबंधों के बीच संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के साथ तालमेल बिठाने में कामयाब रहे, जो न सिर्फ मध्य पूर्व में भारत के सबसे बड़े ट्रेड पार्टनर हैं, बल्कि इजरायल और जॉर्डन के साथ भारत-मध्य पूर्व की पूर्वी-यूरोप आर्थिक गलियारा (IMEC) जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं में प्रमुख हिस्सेदार होंगे.

इसके साथ ही, भारत सस्ते तेल की बेहद जरूरी सप्लाई सुनिश्चित करने के लिए ईरान के साथ करीबी नहीं, तो कम से कम कामकाजी रिश्ते बनाए रखने में कामयाब रहा.

कई शक्ति केंद्रों वाले विश्व में भारत का कूटनीतिक दबदबा

हमास के हमले और इजरायली सेना की फिलिस्तीनी लोगों पर जवाबी कार्रवाई के साथ-साथ अस्थिर और अलोकप्रिय नेतन्याहू के गाजा पर हमले और कब्जे की खुली धमकी के बाद मोदी सरकार के लिए बदकिस्मती से मध्य पूर्व में हालात काफी हद तक बदल गए हैं.

UAE और सऊदी अरब जैसे देश जो इजरायल के साथ रिश्ते बनाने की तैयारी कर रहे थे, वे अब ऐसा करने की हालत में नही हैं, क्योंकि सभी देशों में लड़ाई से बाहर के मुस्लिम बच्चों, महिलाओं और आम जनता पर अंधाधुंध बमबारी से पूरी दुनिया में मुस्लिम समुदाय में भारी नाराजगी है. हिज्बुल्लाह (Hezbollah) लड़ाकों की अगुवाई वाले ईरान के भी युद्ध में शामिल होने का खतरा बढ़ रहा है.

अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पश्चिमी देशों के उलट, जिनका खुले तौर पर इजरायल समर्थक रुख रखने का इतिहास है, भारत शायद ही खुद को पूरी तरह इजरायल के पाले में डाल देने का जोखिम उठा सकता है.

भारतीय राजनयिकों ने हालात को समझा और उन्होंने हमास के हमले के बाद नरेंद्र मोदी के पोस्ट के असर को कम करने के लिए देरी से ही सही फिलिस्तीन के लिए भारत के समर्थन को दोहराते हुए एक औपचारिक बयान जारी किया. बदकिस्मती से RSS और BJP दोनों का घरेलू एजेंडा मुसलमानों को खलनायक बनाने का रहा है और भारत में मोदी सरकार के समर्थक इजरायली सेना के हाथों फिलिस्तीनियों की तबाही का सोशल मीडिया पर जश्न मना रहे हैं.
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बहुध्रुवीय दुनिया में भारत के कूटनीतिक दबदबे के लिए इसके गंभीर नतीजे हो सकते हैं, जहां अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और निश्चित रूप से मुस्लिम विश्व के ज्यादातर देशों के लोग पश्चिम के समर्थन से फिलिस्तीन पर इजरायल के उपनिवेशीकरण के बारे में असहज महसूस करते हैं.

भारत के कनाडा की बांह मरोड़ने के रवैये के साथ-साथ मध्य पूर्व में खुले तौर पर एकतरफा नजरिया भी मोदी के ग्लोबल साउथ का नेता बनने के सपने के लिए अच्छा नहीं है, जबकि पश्चिम भी चीन और रूस में नजदीकी से चीन की बढ़ती ताकत से बुरी तरह डरा हुआ है. प्रधानमंत्री और उनके राजनयिकों को जटिल होते विश्व ताने-बाने में कठोर और रेडीमेड तौर-तरीकों से परहेज करने की जरूरत है और आज दुनिया के संकटग्रस्त हालात से निपटने के लिए ज्यादा संतुलित रणनीति अपनाने की जरूरत है.

(लेखक एक सीनियर पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं. वो ‘बहनजी: ए पॉलिटिकल बायोग्राफी ऑफ मायावती’ (Behenji: A Political Biography of Mayawati) के लेखक हैं. इस आर्टिकल में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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