प्रधानमंत्री मोदी के राष्ट्र के नाम संदेश में कई सकारात्मक बातें शामिल थीं. लेकिन, चिंता इस बात की है कि उनके इस संबोधन का सार ध्यान उस, ‘आयोजन’ पर न केंद्रित हो जाए, जिसे प्रधानमंत्री मोदी ने ‘जनता कर्फ्यू’ का नाम दिया है. और, कहीं ऐसा न हो कि ये प्रयास भी तालियों की गड़गड़ाहट और चापलूसी की घंटियों के शोर में ही गुम हो जाए.
पहले ही बहुत से सेलेब्रिटी और राजनीतिक वफादारों से लेकर आम जनता तक बहुत से लोगों ने इसे एक शानदार प्रयास बता कर एक दूसरे की तारीफों के पुल बांध दिए.
पूरे देश को ये पहले ही कह दिया गया है कि वो हाथ जोड़ कर बाहर निकले और डॉक्टरों, स्वास्थ्य कर्मियों, सफाई करने वालों और कोरोना वायरस से इस लड़ाई के योद्धाओं का शुक्रिया अदा करे. जबकि, वायरस के खिलाफ उनकी जंग तो बस अभी शुरू ही हुई है.
हालांकि, हम ये उम्मीद कर सकते हैं कि रविवार को अगर ‘जनता कर्फ्यू’ कामयाब रहता है तो प्रधानमंत्री मोदी अपना रणनीति बदल सकते हैं. कोरोनवायरस से लड़ाई के लिए लोगों को लंबे समय तक अकेले रहने के लिए मानसिक रूप से तैयार करना आखिरी लक्ष्य होना चाहिए. और हम उम्मीद कर सकते हैं कि जनता कर्फ्यू से ऐसा हो पाएगा.
ये लंबे सफर का पहला कदम हो सकता है
चूंकि ऐसे ‘भव्य आयोजन’ ही प्रधानमंत्री मोदी के राजनीतिक और प्रशासनिक किरदार के प्रमुख स्तंभ रहे हैं. तो ऐसे में चिंता इस बात की है कि अगर, आम लोग ख़ुद से दिन भर घरों में कैद रहने के इस कर्फ्यू का सफलतापूर्वक पालन करते हैं, तो कहीं ये एलान न कर दिया जाए कि हम ने तबाही लाने वाले कोरोना वायरस के खिलाफ जंग जीत ली है.
फिर भी, ये सामाजिक अलगाव, वायरस से लंबे संघर्ष की दिशा में एक पहला कदम ही हो सकता है. इसका इशारा खुद प्रधानमंत्री मोदी ने ही अपने संदेश में कर दिया था. हालांकि उन्होंने ये बात स्पष्ट रूप से नहीं कही, क्योंकि कामकाजी लोगों के घरों में खाली बैठने का हर्जाना देने की घोषणा किए बिना ऐसा करना उल्टा असर दिखा सकता था
पीएम मोदी के राष्ट्र के नाम इस संदेश में नागरिकों के लिए एक चेतावनी भी छुपी थी. जिसमें उन्होंने जनता को उसके कर्तव्यों की याद दिलाई. मगर, ये बात समझ से परे है कि पीएम मोदी ने लोगों के सामने उस योजना का खाका स्पष्ट रूप से क्यों नहीं रखा, जिसके तहत सरकार ये सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही है कि लोगों को सुरक्षित जीवन जीने का अधिकार मिले.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी का राष्ट्र के नाम ये संदेश हमें 1961 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ. कैनेडी के उस भाषण की याद दिलाता है, जो कैनेडी ने राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद दिया था. तब कैनेडी ने ये यादगार लाइनें कहीं थीं, ‘ये मत पूछो कि तुम्हारा देश तुम्हारे लिए क्या कर सकता है.ये बताओ कि तुम देश के लिए क्या कर सकते हो?’
मोदी का देश की जनता से ये सीधा संवाद उस नेता का था, जो ये जानता है कि उसके शब्दों में कितनी ताकत है और वो किस तरह अपनी एक अपील से लोगों को अपने कार्यक्रम में साझीदार बना सकता है.
जनता कर्फ्यू को सामाजिक निगरानी का बहाना न बनने दें-
अभी इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल है कि कोरोना वायरस भारत के इतिहास पर कितना गहरा असर छोड़ेगा. और, भारत सरकार और इसके नेताओं को इससे कितनी चोट पहुंचेगी. लेकिन, एक नए विचार के तौर पर जनता कर्फ्यू को लंबे समय तक याद रखा जाएगा.
हालांकि इस बारे में सावधानी बरतनी होगी. इस काम में बीजेपी के जमीनी कार्यकर्ताओं की भूमिका अहम हो जाती है. मोदी की ये अपील लागू करने के लिए सामाजिक निगरानी के नाम पर जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए. क्योंकि, ऐसे स्वयंभू चौकीदारों की वजह से हाल के दिनों में भारत की छवि को काफी नुकसान पहुंचा है.
प्रधानमंत्री मोदी ने जनता से अपने ऊपर खुद से कर्फ्यू लगाने की अपील कर के लोगों का सहयोग मांगा है. लेकिन, अगर कोई खुद को इससे अलग रखना चाहता है, तो उससे कोई जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए.
हालांकि इस बात में कोई बुराई नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी, जनता को एक ऐसे अभियान में भागीदार बनाना चाहते हैं, जिसे फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रों ने ‘युद्ध’ करार दिया है. प्रधानमंत्री मोदी ने उन लोगों को भी बेपरवाही के ख्वाब से जगाने का काम किया है, जो पिछले दिनों हम देश की सड़कों और बाजारों में देख रहे हैं. अपने खास नाटकीय अंदाजा में उन्होंने लोगों से कहा कि वो अपनी जिंदगी के कुछ हफ्ते घर पर रहें. सामाजिक मेल जोल से दूर रह कर वो ये वक्त अपने घर के लोगों को दें. अनुप्रास अलंकार में अपनी विशेष दिलचस्पी एक बार फिर दिखाते हुए मोदी ने लोगों से दो ‘स’ का पालन विशेष तौर पर करने को कहा-संकल्प और संयम. निश्चित रूप से लोग अब कोरोना वायरस के खिलाफ इस युद्ध में और उत्साह से भाग लेंगे.
फिर भी, जैसे ही मोदी के राष्ट्र के नाम इस संबोधन का उत्साह ठंडा होगा, तो जनता ये जान कर हैरान रह जाएगी कि प्रधानमंत्री ने कोरोना वायरस के प्रकोप से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए उनसे कोई खास वादा नहीं किया. पीएम मोदी ने अपने संबोधन में बस यही एलान किया कि वायरस के प्रकोप से जो आर्थिक नुकसान होने की आशंका है, उसका हिसाब-किताब लगाने के लिए एक विशेष आर्थिक टास्क फोर्स बनाई जाएगी.
क्या इस संबोधन की सूचना पहले देने की जरूरत थी?
प्रधानमंत्री मोदी का राष्ट्र के नाम ये संबोधन खत्म होने के बाद, लोगों के जहन में ये सवाल भी था कि क्या इस संबोधन के लिए लोगों को 22 घंटे पहले से ही आगाह करना जरूरी था? इसका नतीजा तो यही हुआ कि दिन भर अफवाहें फैलती रहीं. अटकलों का बाजार गर्म रहा. इस वजह से राष्ट्र के नाम मोदी के संबोधन को लेकर लोगों में इतनी आशंकाएं फैल गईं कि सरकार को ये स्पष्टीकरण देने को मजबूर होना पड़ा कि पूरे देश में लॉकडाउन का एलान नहीं होने जा रहा है.
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हाल के दिनों में भारत की जनता में दहशत ही देखने को मिली है. इसकी एक मिसाल बाजार से हैंड सैनिटाइजर का गायब होना है.
जब भी ऐसी कोई चुनौती सामने आई है, तो लोग बस जरूरी सामान की जमाखोरी करने लगते हैं. खास तौर से खाने-पीने के सामान की. प्रधानमंत्री मोदी ने जनता को बिल्कुल ठीक सलाह दी कि वो सामान की जमाखोरी से बचे. लेकिन, अच्छा होता कि संभावित जमाखोरों को सख्त संदेश दिया जाता. उन्हें चेतावनी दी जाती कि ऐसा करेंगे तो पकड़े जाने पर उनके खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई होगी. लोगों को सामान्य रूप से खरीदारी की सलाह के साथ-साथ इस बात का निर्देश भी जारी होना चाहिए था कि बेचने में भी इसी सामान्य प्रक्रिया का पालन हो.
जब से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, तब से वो खुद को देश के ताऊ या बड़े-बुज़ुर्ग के रोल में देखना पसंद करते हैं. अपने पहले स्वतंत्रता दिवस संबोधन में मोदी ने लोगों को याद दिलाया था कि चूंकि बलात्कारी भी किसी न किसी के बेटे होते हैं, तो समाज को भी कहीं न कहीं ऐसे अपराधों की ज़िम्मदारी लेनी होगी और अपने अंदर सुधार लाना होगा.
इस बार के संबोधन में भी पीएम मोदी अपने शानदार फॉर्म में थे और उन्होंने लोगों से कहा कि इस संकट से निपटने में उन्हें जनता की मदद चाहिए.
पीएम ने लोगों का सहयोग मांग कर तो बड़ी उदारता का परिचय दिया. लेकिन, वो इस बात पर वो चुप्पी साध गए कि उनकी सरकार ने अब तक इस संकट से निपटने के लिए क्या-क्या किया है और आने वाले हफ्तों में क्या करने वाले हैं.
आर्थिक नुकसान का आकलन करने के लिए टास्क फोर्स बनाना और मालिकों से ये कहना कि वो छोटे कर्मचारियों की तनख्वाहें न काटें, उन लोगों के लिए मामूली राहत भी नहीं है, जिन्हें रातों-रात भागकर कहीं और पनाह लेनी पड़ी क्योंकि उनके पास नियमित रोजगार और मजदूरी का साधन नहीं है.
भारत में ज्यादातर कामकाजी लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. और, उन्हें काम देने वालों से ये अपील करना कोई खास मायने नहीं रखता कि वो अपने कामगारों को वेतन देते रहें. इनमें से बहुत से तो वो लोग हैं जिन्हें हाल के वर्षों में मोदी खुद, ‘नौकरी देने वाले’ कहते आए हैं. इनमें से बहुत से ऐसे हैं, जो कुछ दिनों पहले तक खुद नौकरी करते थे. इसके अलावा, मोदी के संबोधन से इस बात का कोई इशारा नहीं मिला कि असंगठित क्षेत्र में भी हाशिए पर पड़े उन लोगों का क्या होगा, जिनके पास आने वाले समय में काम नहीं होगा? उनके आर्थिक नुकसान की भरपाई कैसे होगी?
अपना भाषण खत्म करते हुए मोदी ने दैवीय शक्ति का भी जिक्र कर दिया. उन्होंने कुछ दिनों बाद शुरू हो रहे नवरात्र का हवाला दिया, जब हिंदू देवी के शक्ति रूप की पूजा होती है. एक सरकारी प्रसारण में निजी आस्था और यकीन का जिक्र उस वक्त करना जब विज्ञान और वैज्ञानि संस्थाओं के हर संसाधनों को इकट्ठा करने की जरूरत है, निश्चित रूप से एक बेसुरा राग था.
ये और बात है कि इस मोर्चे पर भी मोदी ने करोड़ों भारतीयों की आस्था और श्रद्धा को मजबूत किया होगा, ताकि वो इस चुनौती का सामना कर सकें. ऐसे में मोदी ने अपने वफादारों को उनके प्रति विश्वासपात्र बने रहने के कई और कारण मुहैया करा दिए हैं. खास तौर से तब जब इस समय हमारी सामाजिक सुरक्षा का ताना-बाना काफी कमजोर हो गया है.
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(नीलांजन मुखोपाध्याय दिल्ली स्थित एक लेखक और पत्रकार हैं. उन्होंने ‘द डिमॉलिशन:इंडिया ऐट क्रॉसरोड्स’ और ‘नरेंद्र मोदी:द मैन, द टाइम्स’ नाम की किताबें लिखी हैं. उनसे @NilanjanUdwin पर संपर्क किया जा सकता है. ये एक व्यक्तिगत विचार वाला लेख है. इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इनका समर्थन करता है और न ही इन विचारों की ज़िम्मेदारी लेता है.)
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