(उत्तराखंड में जोशीमठ संकट पर दो भागों की इस श्रृंखला के पहले लेख में हम बता रहे हैं कि ऐसे नाजुक क्षेत्रों की रक्षा के लिए क्या किया जा सकता है. दूसरे भाग के लेख को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
8 जनवरी, 2023 को प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) में एक उच्च स्तरीय बैठक की गई. बैठक का विषय था, जोशीमठ में जमीन धंसने (Joshimath Crisis) से पैदा हुआ संकट.
पीएमओ को बताया गया कि वहां क्या काम चल रहा है. वहां राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल की एक टीम भेजी गई है और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनडीएमए), भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, आईआईटी रुड़की, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी और सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट के एक्सपर्ट्स की एक टीम ने दौरा किया है. उसने उत्तराखंड सरकार को केंद्रीय एजेंसियो के साथ मिलकर, अल्पावधि, मध्यावधि और दीर्घावधि की योजना तैयार करना का काम सौंपा है.
उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित जोशीमठ कूटनीतिक और धार्मिक महत्व का एक सीमावर्ती शहर है. यह भारत-चीन सीमा के मध्य क्षेत्र का प्रवेश द्वार है. बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब जैसी जगहों पर तीर्थाटन करने, और अंतरराष्ट्रीय स्कीइंग के ठिकाने औली जाने के लिए यहीं का रास्ता पकड़ना पड़ता है.
जोशीमठ के पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में क्रमश: ढकनाला, कर्मनासा, अलकनंदा और धौलीगंगा जैसी नदियां हैं और यह पुराने भूस्खलनों पर स्थित है.
जोशीमठ का भूवैज्ञानिक संकट कोई नई बात नहीं
उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (यूएसडीएमए) के कार्यकारी निदेशक पीयूष रौतेला के अनुसार, "जोशीमठ शहर के आसपास का क्षेत्र ओवरबर्डन सामग्री की एक मोटी परत से ढंका हुआ है. यहां स्लेटी रंग के गादवाले-रेतीले मैट्रिक्स में नाइस (gneisses) के बड़े बोल्डर और बेसिक्स और शिस्टोज़ (schistose) के टुकड़े जमाए गए हैं जिसकी वजह से यह शहर कभी भी धसक सकता है.
जोशीमठ की भूवैज्ञानिक समस्या के दो दूसरे कारण भी हैं:
यह सेसिमिक जोन-V पर स्थित है, टेकटोनिक और जियोलॉजिकल फॉल्ट लाइन्स पर पैर पसारे बैठा है और भूकंपीय क्षेत्र है.
इस शहर में सीवेज और अपशिष्ट जल के निपटान की कोई व्यवस्था नहीं है. बढ़ते शहरीकरण ने जल निकासी की प्राकृतिक प्रणाली को खत्म कर दिया है. इन सबने मिलकर, पानी को जबरन अपना नया रास्ता खोजने के लिए मजबूर किया है जिससे मिट्टी की अपरूपण क्षमता यानी शियर स्ट्रेंथ कम होती है जो पहले से ही काफी बोझ सह रही है. शियर स्ट्रेंथ मिट्टी की वह प्रतिरोधक क्षमता होती है जो उसे क्षरण से लड़ने की ताकत देती है.
लेकिन यह समस्या कोई नई नहीं है. जोशीमठ में जमीन धंसने की पहली जानकारी 1976 में एमसी मिश्रा कमीशन की रिपोर्ट से मिली थी जिसमें सिफारिश की गई थी कि इस इलाके में, और उसके आस-पास भारी निर्माण कार्य न किए जाएं. फिर भी वहां अंधाधुंध निर्माण होते गए. ऊंची इमारतें बनीं. एशिया का सबसे लंबा और ऊंचा रोपवे बना. चार धाम प्रॉजेक्ट के तहत सड़कें बनाई गईं. 420 मेगावॉट का विष्णुप्रयाग हाइड्रोपावर प्रॉजेक्ट और एनटीपीसी का 520 मेगावाट का तपोवन प्रॉजेक्ट शुरू किया गया.
पर्यावरणविद और सुप्रीम कोर्ट की तरफ से चार धाम प्रॉजेक्ट पर गठित पावर्ड कमिटी के सदस्य हेमंत ध्यानी के मुताबिक, सरकार वाकिफ थी कि यह इलाका भूवैज्ञानिक रूप से नाजुक है, और जोशीमठ के नीचे से सुरंग खोदने पर जमीन धंसने का खतरा है, फिर भी उसने दोनों हाइड्रोपावर प्रॉजेक्ट्स को मंजूरी दी.
एक्सपर्ट्स का कहना है कि जून 2014 की बाढ़, फरवरी 2021 में ग्लेशियर के फटने और 17 अक्टूबर 2021 में भारी बारिश (24 घंटे में 190 मिलीमीटर) ने इस इलाके को और कमजोर बना दिया.
दिसंबर 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने चार धाम प्रॉजेक्ट की सड़क को चौड़ा करने की इजाज़त दी थी, जब केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा का भी हवाला दिया था. एक्सपर्ट्स ने तभी भी कहा था कि बद्रीनाथ मंदिर की दूरी को 30 किलोमीटर कम करने के लिए जो हेलांग बाइपास बनाया जा रहा है, उससे भूस्खलन का खतरा और बढ़ेगा क्योंकि इसके लिए भारी मशीनों का इस्तेमाल किया जाएगा.
कुछ महीने पहले जोशीमठ के गांधीनगर इलाके में धंसाव शुरू हुआ था, और फिर वह दूसरे इलाकों में भी होने लगा. 3 जनवरी को विष्णुप्रयाग हाइडल प्रॉजेक्ट कालोनी को खाली कराया गया क्योंकि वहां बहुत बड़ी दरारें नजर आने लगी थीं. इस समय जोशीमठ की लगभग 4,500 इमारतों में से करीब 600 मकानों में बहुत बड़ी दरारें आ गई हैं.
जोशीमठ के कुछ हिस्से संवेदनशील घोषित
5 जनवरी को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पीएस धामी ने सभी निर्माण गतिविधियों पर रोक लगा दी थी. इस तरह आपदा प्रबंधन एक्ट के तहत जोशीमठ के नगरपालिका क्षेत्र के भीतर निर्माण, चार धाम के बारहमासी हेलंग-मारवाड़ी सड़क, तपोवन-विष्णुगढ़ प्रॉजेक्ट और जोशीमठ-औली रोपवे के चौड़ीकरण को "अगले आदेश तक" रोक दिया गया है.
दो दिन बाद उन्होंने जोशीमठ से 600 परिवारों को सुरक्षित जगहों पर ले जाने का आदेश दिया. 8 जनवरी को उन्होंने इलाके का दौरा किया और 'युद्धस्तर' पर विस्थापितों के पुनर्वास और राहत का आदेश दिया. उन्होंने यह आदेश भी दिया कि मानसून से पहले सीवेज और जल निकासी के काम को पूरा किया जाए. उन्होंने आगे पुनर्वास के लिए दो जगहों को चुना है, पीपलकोटी और गौचर.
उसी दिन जोशीमठ के नौ नगरपालिका वॉर्ड्स को ‘भूस्खलन धंसाव क्षेत्र’ जिसमें चार क्षेत्रों को रहने के लिए असुरक्षित माना गया.
निर्माण गतिविधियां, जलवायु संकट जोशीमठ के लिए गंभीर जोखिम
आप व्यक्तियों, जगहों और तारीखों को भूल जाइए, सिर्फ घटनाक्रम को देखिए. क्योंकि ये लगातार होते रहते हैं, और हम लगातार भूगर्भीय और पर्यावरणीय चेतावनियों को अनदेखा करते रहते हैं. फिर जब आपदा आती है तो वहां अति विशिष्ट लोगों, यानी वीआईपी लोगों का रेला लग जाता है. खजाने खाली किए जाने लगते हैं. राहत बांटी जाती है. योजनाओं का नामजद किया जाता है. फिर जब जनता का गुस्सा ठंडा हो जाता है तो सब कुछ जस का तस हो जाता है. इस नजरिए की तीन मुख्य वजहें हैं:
1. सबसे पहले चुनाव जीतने की होड़ लगी है, और इसलिए वोटर्स को लुभाना है- इसके लिए धार्मिक उद्देश्य से मुहिम भी चलानी है. इसके चलते गंभीर पर्यावरणीय चेतावनियों को भी नजरंदाज किया जाता है. याद कीजिए कि चार धाम प्रॉजेक्ट, जोकि पहले एक धार्मिक पर्यटन प्रॉजेक्ट था, को सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान कैसे राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे में बदल दिया था.
2. लोगों को गरीबी के गर्त से निकालने के लिए हमेशा इस बात की दुहाई दी जाती है कि जीडीपी और प्रति व्यक्ति जीडीपी को बढ़ाया जाना चाहिए. इसके कारण सरकार पारिस्थितिक रूप से कमजोर इलाकों में इंफ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स- बिजली उत्पादन, जलाशयों, सड़कों के निर्माण पर विचार करती रहती है. जबकि ध्यान सस्टेनेबल विकास पर दिया जाना चाहिए.
3. आपदा जोखिम न्यूनीकरण यानी डीआरआर को लेकर सिर्फ जुबानी जमाखर्च. जबकि घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इसे लेकर इतना हंगामा मचा रहता था, लेकिन फिर भी डीआरआर को महत्व समझा नहीं जाता और न ही नेताओं के बीच इसे लेकर जागरूकता है. चूंकि डीआरआर में निवेश तत्काल करना पड़ता है, पर वह दिखाई नहीं देता.
न ही व्यक्तिगत धूमधड़ाके और मीडिया की चापलूसी हो पाती है जैसा सड़क/बांध/सुरंग के उद्घाटन के दौरान होता है.
जोशीमठ नगरपालिका में निर्माण के स्तर और आस-पास के इंफ्रास्ट्रक्चर (यानी सड़क, बांध), पहले की बाढ़ और ग्लेशियर फटने के हादसों के कारण हुई तबाही- इन सबको देखते हुए जोशीमठ को स्थिर करना मुश्किल हो सकता है.
साथ ही जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम का चरम होना. साफ है कि जोशीमठ के अधिकांश इलाकों को, अगर सभी नहीं- खाली करना ही होगा, और ज्यादातर लोगों को किसी दूसरी जगह स्थानांतरित करना होगा जिसके आर्थिक, मानवीय और सामाजिक नतीजे नजर आएंगे.
(कुलदीप सिंह भारतीय सेना के रिटायर्ड ब्रिगेडियर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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