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भारत का डिजास्टर मैनेजमेंट: क्या जोशीमठ क्राइसिस सबक सीखने का मामला नहीं है?

डिजास्टर रिस्पॉन्स में भले ही भारत ने प्रगति कर ली है लेकिन इसका डिजास्टर रिस्क मैनेजमेंट अभी भी दूर की कौड़ी है.

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(उत्तराखंड में जोशीमठ संकट का दूसरा भाग यहां पर दिया जा रहा है. दो भागों की इस श्रृंखला के पहले लेख में हमने बताया था कि ऐसे नाजुक क्षेत्रों की रक्षा के लिए क्या किया जा सकता है. पहले भाग के लेख को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

8 जनवरी को जोशीमठ (Joshimath Crisis) में बोलते हुए, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पीएस धामी ने यह बात जोर देकर कही थी कि "जीवन बचाना हमारी पहली प्राथमिकता है." इस बयान से एक अहम सवाल यह उठता है कि उत्तराखंड प्रशासन अब तक क्या कर रहा था? जिस तरह से कई चेतावनियों को वर्षों से नजरअंदाज किया गया है और किसी को जवाबदेह नहीं ठहराया गया है उससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि लोगों के जीवन और आजीविका का कोई मूल्य नहीं है.

जोशीमठ को "एक टाउनशिप के लिए अनुपयुक्त" मानते हुए पहली चेतावनी 1976 में जारी की गई थी और इस बारे में आगाह किया गया था कि जोशीमठ डूब जाएगा, लेकिन इसके बावजूद भी सरकार ने इसके आसपास कई पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी दे दी, जिसकी वजह से यहां भारी मशीनरी लायी गईं, ब्लास्टिंग हुई और बुनियादी ढांचे का निर्माण हुआ.

तपोवन-विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना के लिए सुरंग बनाने वाले उपकरण ने दिसंबर 2009 में जोशीमठ के एक एक्वॉफर (चट्‌टान के नीचे स्थित जलस्रोत) को पंक्चर कर दिया था यानी उसे नुकसान पहुंचाया था, जिसकी वजह से हर दिन बड़े पैमाने पर भूजल निकल रहा है. करंट साइंस नामक पत्रिका में जियोलॉजिस्ट (भूवैज्ञानिक) एमपीएस बिष्ट और पीयूष रौतेला का 2010 में एक रिसर्च पेपर प्रकाशित हुआ था, जिसका टाइटल "Disaster Looms Large Over Joshimath" था. इस पर भी किसी ने गंभीरतापूर्वक ध्यान नहीं दिया था.
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जोशीमठ जैसी अन्य त्रासदी जो पहले आगाह कर चुकी हैं

2004 की सुनामी के बाद भारत में सबसे घातक और खराब प्राकृतिक आपादा जून 2013 में केदानाथ ने देखी थी. एक्सपर्ट्स की राय के अनुसार उस आपदा के प्रमुख कारणों में बुनियादी पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन और वनों की कटाई जैसे कारक थे. लेकिन जितने भी कारण बताए गए उनसे न तो कोई सीख ली गई और न ही उन्हें इंप्लीमेंट किया गया.

इसके बाद जो बड़ी आपदा देखी गई वह फरवरी 2021 में ग्लेशियर के फटने की घटना थी, जिसमें लगभग 200 लोग या तो मारे गए या लापता हो गए. इस आपदा ने ऋषिगंगा और तपोवन जलविद्युत परियोजनाओं, बीआरओ पुल और गांवों के पास मौजूद अन्य बुनियादी संरचनाओं को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाया था. जो प्रोजेक्ट्स चल रहे थे, उसमें से किसी को भी रोकने या ठहराव की सिफारिश वाली कोई रिपोर्ट नहीं आई. यहां तक कि इस घटना पर एनडीएमए (NDMA) की जो डिटेल्ड रिपोर्ट आयी थी उसमें केवल यही उल्लेख था कि "क्षेत्र की पारिस्थितिक संवेदनशीलता और इसके भविष्य के परिणामों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक एचईपी का पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) और प्रोजेक्ट डेवलवमेंट किया जाना चाहिए."

हालांकि,पर्यावरण संबंधी मानदंडों की अनदेखी का यह एकमात्र उदाहरण नहीं है, काफी बड़े पैमाने पर अनदेखी के मामले हैं. मुद्दा यह है कि चूंकि राजनेताओं को हर कुछ वर्षों में फिर से चुने जाने की आवश्यकता होती है, ऐसे में ये राजनेता एक तर्कसंगत या समझदार, भविष्योन्मुख, सतत विकास के विपरीत फंतासी "विकास" दिखाने के चक्कर में वे इस बात को आसानी से नजरअंदाज कर देते हैं कि मध्य से लेकर दीर्घकालिक अवधि में उनके निर्वाचन क्षेत्र के इसका क्या प्रभाव पड़ेगा?

इसके अलावा बिल्डरों के साथ सांठ-गांठ और उससे जुड़े लालच का मुद्दा भी है. जनता- जिनमें वे भी शामिल हैं जो वर्तमान में प्रभावित हैं, उनको भी इस बात के लिए दोषी ठहराया जाता है कि उन्होंने अपनी आकांक्षाओं को अपनी बुनयादी समझ पर हावी होने दिया. ऐसा पुरातन "विकास" और पर्यावरणीय मानदंडों की अवहेलना अक्सर कई मामलों में जहर भरे प्याले की तरह साबित होती है. और वहीं जब आपदा आती है तो सरकार यह प्रदर्शित करती है कि उसे आपकी परवाह है और इसके लिए उसके पास "एक व्यापक समाधान" है. इसके तहत सरकार अपनी दक्षता दिखाने के लिए अंतिम समय में गतिविधियों की झड़ी लगा देती है.

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डिजास्टर रिस्पॉन्स और मैनेजमेंट में भारत का प्रदर्शन कैसा है?

यह अच्छी तरह से ज्ञात है कि भारत, जिसकी आबादी वर्तमान में अनुमानित तौर पर 1.41 अरब से अधिक है, लेकिन क्षेत्रफल के आधार पर यह दुनिया का सातवां सबसे बड़ा देश है. वहीं भारत आपदाओं के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील देशों में से एक है.

वल्नरेबिलिटी एटलस ऑफ इंडिया के इंट्रोडक्शन में बताया गया है कि भारत का 85 फीसदी क्षेत्र एक या एक से अधिक प्रकार के खतरों के प्रति संवेदनशील है. इसमें आप मानव-प्रेरित आपदाएं भी जोड़ दें जैसे कि केमिकल-इंडस्ट्रियल इमरजेंसीज, न्यूक्लियर एंड रेडियोलॉजिकल इमरजेंसीज, बायोलॉजिकल एंड पब्लिक हेल्थ इमरजेंसीज (BPHE) आग (शहरी और जंगल) और महत्वपूर्ण तौर पर ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या ट्रांसफर का प्रभाव. वहीं यह किसी के लिए भी स्पष्ट है कि व्यापक डिजास्टर रिस्पाॅन्स मैनेजमेंट (DRM) (डिजास्टर रिस्क में कमी को शामिल करने के लिए), क्लाइमेट एडाप्टेशन और सस्टेनबल लाइफस्टाइल को एडाप्ट करना राजनीतिक और रणनीतिक अनिवार्यताएं होनी चाहिए, न कि केवल रुटीन प्रशासनिक कार्य.

लेकिन यह एक कटु सत्य है कि जहां एक ओर भारत ने डिजास्टर रिस्पॉन्स में काफी प्रगति की है, वहीं DRM के व्यापक उद्देश्य चार मुख्य कारकों की वजह से दूर की काैड़ी बने हुए हैं :

अस्पष्टता : डिजास्टर मैनेजमेंट (DM) का किसी भी सूची (केंद्रीय, राज्य या समवर्ती) में विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन यह सिर्फ एक 'राज्य की जिम्मेदारी' (‘state responsibility’ ) है और 'राज्य का विषय' ( ‘state subject’) नहीं है. केंद्र सरकार पांच तरीकों से राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के प्रयासों को पूरा करती है, (i) अलर्ट/चेतावनी प्रदान करने के लिए एजेंसियों को बनाए रखती है (ii) प्रमुख आपदाओं में आवश्यक संसाधनों की प्रतिक्रिया (रिस्पॉन्स) और गतिशीलता (mobilisation) के राष्ट्रीय स्तर के समन्वय के लिए आपदा-विशिष्ट जिम्मेदारियों के साथ नोडल केंद्रीय मंत्रालयों को नामित करना (iii) नेशनल डिजास्टर रिस्पॉन्स फोर्स (NDRF) को मेंटेन करना (iv) जरूरत के अनुसार राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को सहायता, फंड, संसाधन उपलब्ध कराना, और (v) दिशानिर्देश और नीतियां बनाना और उन्हें जारी करना; सलाह और तकनीकी सहायता प्रदान करना; और क्षमता निर्माण (कैपिसिटी बिल्डिंग) में सहायता करना. इस प्रकार, भले ही हर चीज के लिए नियम हैं, लेकिन आधिकारिक आदेश में अस्पष्टता और राज्य (राज्यों) पर संवैधानिक रूप से बाध्यकारी दायित्व की कमी की वजह से अक्सर कार्यान्वयन खराब होता है.

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फंड की कमी : कई राज्यों के पास अपने DRM प्रयासों को पूरी तरह से फंड करने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं, लेकिन वे अपनी अधिकांश जरूरतों के लिए केंद्र पर निर्भरता बनाए रखे हुए हैं. यही वजह है कि एनडीआरएफ को अक्सर जिलों द्वारा उन कार्यों के लिए बुलाया जाता है जिन्हें उसकी अपनी टीमों द्वारा हैंडल किया जाना चाहिए.

खराब शहरी प्लानिंग : हमारे अधिकांश प्रमुख शहर आज राजनीतिक लाभ और/या लालच के लिए बनाए गए नियमों के प्रतीक हैं, जिन्होंने पहले से सुनियोजित शहरों को बर्बाद कर दिया है. गुरुग्राम का विकास इसका आदर्श उदाहरण है, क्या हरियाणा सरकार इसका विकास करते समय अपनी राजधानी चंडीगढ़ से प्रेरणा ले सकती थी?.

शहरीकरण की प्रवृत्ति : भारत में सात लाख से अधिक गांव हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश गांव अच्छे स्कूलों, अस्पतालों, रोजगार आदि से वंचित हैं. ऐसे में ग्रामीण आबादी शहरी क्षेत्रों की ओर शिफ्ट हो रही है.

कुछ गांव (शहरी केंद्रों के पास, व्यापार/पर्यटन मार्गों आदि के साथ) भी शहरीकृत क्षेत्रों में परिवर्तित हो रहे हैं, हालांकि वे सुविधाओं के अभाव में परिवर्तित हो रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र की हैबिटेट वर्ल्ड सिटीज रिपोर्ट 2022 के अनुमानों से संकेत मिलता है कि भारत की शहरी आबादी जो 2011 में (जनगणना-2011) 37.7 करोड़ (भारत की कुल आबादी का 31.16%) थी और 2020 में 48.3 करोड़ (भारत की कुल आबादी का 34.9%) थी, उसकी 2025 तक 54.2 करोड़, 2035 तक 67.5 करोड़ और 2050 तक 81.4 से 87 करोड़ लोगों के बीच पहुंचने की उम्मीद है.

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क्या भारत का शहरीकरण महत्वपूर्ण जलवायु जोखिम पैदा कर रहा है?

भारत जिन मुख्य मुद्दों का सामना करता है उनमें से एक शहरीकरण की प्रवृत्ति है, जो सभी देशों में सबसे अधिक जनसांख्यिकीय परिवर्तन है, इसलिए, भारत को सर्वोत्तम शहरी नियोजन की आवश्यकता है.

हमें ऐसे शहरी स्थलों का निर्माण करने की आवश्यकता है जो भविष्य के हिसाब से टिकाऊ (सस्टेनेबल) हों. एक मध्यम आकार के कस्बे को स्थापित होने में 3-6 साल लगते हैं, जबकि शहरों को 5-8 साल लगते हैं. सिर्फ 2020 और 2025 के बीच, 5.9 करोड़ लोग शहरी क्षेत्रों में शिफ्ट हो चुके होंगे. इसलिए, यहां पर सवाल यह है कि क्या हम नए भविष्य के लिए तैयार, जलवायु-अनुकूल, आपदा-प्रतिरोधी कस्बों/शहरों की स्थापना कर रहे हैं या हमारे पास ऐसे कस्बे/शहर हैं? या क्या हम आबादी को मौजूदा लोगों में बहने दे रहे हैं और जहां कहीं भी निर्माण/अतिक्रमण कर सकते हैं, की इजाजत दे रहे हैं?

UN IPCC की विशेष रिपोर्ट (AR6), जो भारतीय उपमहाद्वीप में और उसके आसपास के प्रभावों पर ध्यान केंद्रित करती है. उस रिपोर्ट में विशेष रूप से इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि अपनी जियोलॉजी और जियोग्राफी (7000 किमी से अधिक की तटरेखा, गर्म उष्णकटिबंधीय जलवायु, स्थिर मानसून पर कृषि की गहरी निर्भरता, भारी प्रदूषण, अनियोजित विकास/शहरीकरण, वनों की कटाई और गरीबी का स्तर) के कारण जलवायु परिवर्तन से सबसे गंभीर रूप से प्रभावित देशों में से भारत एक होगा.

इसमें पूर्वानुमान लगाया गया है कि भारत में भारी वर्षा, हीटवेव्स, ऊपरी मिट्टी की शुष्कता और भूजल की कमी देखी जाएगी. इसके अलावा, इसमें कहा गया है कि हिमालय में मौजूद ग्लेशियर "दुनिया की दस सबसे महत्वपूर्ण नदी प्रणालियों का भरण-पोषण करते हैं और लगभग दो अरब लोगों के लिए महत्वपूर्ण जल स्रोत हैं" लेकिन इन ग्लेशियरों में "वैश्विक उत्सर्जन परिदृश्यों के आधार पर 2100 तक लगभग 30 से 100% की मात्रा में कमी होने का अनुमान है."

बाढ़ और भूस्खलन के साथ-साथ ये परिवर्तन बुनियादी ढांचे को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं, स्थानीय लोगों को विस्थापित कर सकते हैं, खाद्य सुरक्षा को बर्बाद कर सकते हैं और गरीबी के नए जाल बुन सकते हैं. मैकेंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से वर्ष 2050 तक दक्षिण एशियाई देशों की जीडीपी में 13% की गिरावट आ सकती है.
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इसलिए, यह अतिआवश्यक है कि राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक विचारों के बजाय, पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के विकास को कम करने पर सबसे ज्यादा प्राथमिकता दी जानी चाहिए और ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए. वहीं जहां पर बुनियादी ढांचे का विकास अत्यंत आवश्यक है वहां पर टिकाऊ (सस्टेनेबल), जलवायु-परिवर्तन-अनुकूलित, आपदा-प्रतिरोधी (disaster-resilient) आवास और ऐसे बुनियादी ढांचे का निर्माण किया जाना चाहिए जो खासतौर पर पर्यावरण संबंधी चिंताओं को ध्यान में रखते हुए किया जा रहा हो.

अगर ऐसा करने में हम विफल रहते हैं तो उस स्थिति में आपदा से हुई क्षति और पुनर्वास, विस्थापितों के पुनर्वास, उनके जीवन के सामाजिक-सांस्कृतिक, आजीविका और आर्थिक पहलुओं की बहाली और आपदा से क्षतिग्रस्त बुनियादी ढांचे की मरम्मत से जुड़ी लागत किसी भी प्रोजेक्ट के फायदे या लाभ से कहीं अधिक होगी.

(कुलदीप सिंह, इंडियन आर्मी के रिटायर्ड ब्रिगेडियर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है, इसमें व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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