कपिल सिब्बल जैसे वरिष्ठ नेता की 31 साल बाद कांग्रेस से रवानगी (Kapil Sibal’s Congress Exit), सिर्फ एक हाई प्रोफाइल नेता की विदाई नहीं है. हाल ही में उन्होंने समाजवादी पार्टी की मदद से राज्यसभा की सीट के लिए निर्दलीय लड़ने का फैसला किया है. उनके इस कदम से वह G-23 ग्रुप कमजोर हो सकता है, जो लगातार कांग्रेस के अंदरूनी बदलाव की कोशिश कर रहा था और कपिल उस ग्रुप की रूह थे.
उदयपुर में कांग्रेस के चिंतन शिविर के एक दिन बाद सिब्बल ने 16 मई को अपना इस्तीफा दिया था. उस समय यह साफ हो गया था कि एक खूबसूरत रिसॉर्ट में तीन दिन की इस कवायद का मकसद राहुल गांधी की छवि को चमकाना है, इस बात पर गंभीर चिंतन करना नहीं कि हाल के सालों में पार्टी की ऐसी गत क्यों बनी है.
बेशक, कपिल सिब्बल ने जब दो महीने पहले सार्वजनिक मंच से इस बात की मांग की थी कि पार्टी को गांधी परिवार से बाहर का नेता तलाशना चाहिए, तभी से उनके लिए उल्टी गिनती शुरू हो गई थी.
G-23 के स्रोतों का कहना है कि इसीलिए सिब्बल ने उदयपुर कॉन्क्लेव में हिस्सा नहीं लिया. वह नहीं चाहते थे कि वहां उनकी ‘बेइज्जती’ हो. वैसे पार्टी में यह बात सभी जानते हैं कि गांधी परिवार पर सीधा हमला करने वाले को बख्शा नहीं जाता.
दो महीने पहले जब कपिल सिब्बल ने सार्वजनिक मंच से इस बात की मांग की थी कि पार्टी को गांधी परिवार से बाहर का नेता तलाशना चाहिए, तभी से उनके लिए उलटी गिनती शुरू हो गई थी. पार्टी में यह बात सभी जानते हैं कि गांधी परिवार पर सीधा हमला करने वाले को बख्शा नहीं जाता.
कपिल सिब्बल को उम्मीद है कि राजनीति में पिछले तीन दशकों में उन्होंने जो दोस्त बनाए हैं, वे विपक्ष को एकजुट करने में उनकी मदद करेंगे.
लेकिन कांग्रेस के लिए बहुत कुछ बदला नहीं है, क्योंकि वह असंतुष्ट नेताओं को अपने पाले में खींचने की कोशिश कर रही है. जबकि पार्टी को नेतृत्व के संकट पर गंभीरता से सोचना चाहिए, पार्टी में संरचनात्मक बदलाव करने चाहिए और विपक्ष के साथ मिलकर काम करना चाहिए.
मिलिंद देवड़ा को याद कीजिए
जैसे 2014 में लोकसभा में अपमानजनक हार के बाद राहुल गांधी के विश्वासी और खास दोस्त मिलिंद देवड़ा ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए गए एक इंटरव्यू में कहा था कि राहुल गांधी के सलाहकार के पास तर्जुबा नहीं है.
उन्होंने कहा था कि ‘राहुल के सलाहकार ऐसे लोग हैं, जिन्हें चुनावों का कोई अनुभव नहीं.. पार्टी में कोई कद, प्रतिष्ठा, सम्मान और विश्वसनीयता भी नहीं है." इसके बाद उन्होंने आगे कहा: "हम में से बहुत से लोगों ने महसूस किया कि हमारी बात कभी नहीं सुनी गई. हमें लगा कि हमारी आवाज मायने नहीं रखती. ये बदलना होगा. सांसदों और मंत्रियों को यह महसूस नहीं करना चाहिए कि हमारी बात नहीं सुनी जा रही है.” और आखिरी बात यह कही थी कि “सिर्फ सलाहकार ही नहीं, सलाह लेने वालों को भी जिम्मेदारी उठानी पड़ती है."
उस समय कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने इस पत्रकार से कहा था, “मेरी इच्छा थी कि मिलिंद सार्वजनिक मंच पर यह आलोचना करते. मैं गांधी परिवार से वाकिफ हूं- वे कभी माफ नहीं करते.” और इस तरह मिलिंद जो कभी कांग्रेस के होनहार नेता नजर आते थे, इस इंटरव्यू के बाद आठ साल से शीत युद्ध का सामना कर रहे हैं.
चिंतन शिविर सिर्फ छवि चमकाने की कवायद थी
चिंतन शिविर एक निराशाजनक कार्यक्रम था. इस दौरान पार्टी ने आत्मनिरीक्षण नहीं किया कि उसका प्रदर्शन इतना खराब कैसे था और आगामी विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का मुकाबला करने के लिए अपनी जमीन कैसे मजबूत की जाए.
इसकी बजाय इस कार्यक्रम के दौरान मोदी सरकार पर हमले किए गए. यह ऐलान करने की बजाय कि विपक्षी पार्टियों के साथ मिलकर काम किया जाएगा, यह कहा गया कि क्षेत्रीय संगठन कैसे विचारधारा विहीन हैं. यानी भविष्य में किसी भी प्रकार के सहयोग की उम्मीद नहीं जताई जानी चाहिए.
साफ है, मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व दीवार पर लिखी इबारत को न पढ़ पा रहा है, और न ही पढ़ने को तैयार है. इससे पहले कि वह किसी और से मुकाबला करे, उसे खुद से ही मुकाबला करने की जरूरत है. दूसरों को दुरुस्त करने से पहले खुद को दुरुस्त करने की जरूरत है.
जब कांग्रेस ने सिब्बल या जी-23 में से किसी की बात नहीं सुनी तो सिब्बल ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में अपना नामांकन दाखिल करने के तुरंत बाद कहा, "मैं हमेशा से देश में एक स्वतंत्र आवाज बनना चाहता था...स्वतंत्र आवाज होना जरूरी है. विपक्ष में रहकर हम गठबंधन बनाना चाहते हैं ताकि हम मोदी सरकार का विरोध कर सकें.”
सिब्बल को उम्मीद है कि राजनीति और वकालत की दुनिया में तीन दशकों में उन्होंने जो दोस्त बनाए हैं- खासकर समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल वाले- वे उनकी मदद करेंगे ताकि वे परदे के पीछे से विपक्ष को लामबंद कर सकें और उन्हें एक मंच पर साथ ला सकें.
G-23 नेताओं को अपने पाले में शामिल करने की कोशिश
इस बीच, जैसा कि हमने पहले भी कहा है, कांग्रेस के कामकाज के तरीके में कोई खास फर्क नहीं आया है. उसने G-23 नेताओं की यह सलाह बिल्कुल नहीं सुनी कि पार्टी के पुनर्गठन और पुनरुद्धार की जरूरत है. न ही इस बात पर ध्यान दिया कि पार्टी को एक असरदार और पूर्णकालिक अध्यक्ष की जरूरत है. जैसा कि प्रशांत किशोर ने भी अपनी योजना में कहा था.
इन सबकी बजाय, कांग्रेस G-23 के नेताओं को अपने पाले में खींचने में लगी है.
चिंतन शिविर के दौरान G-23 के नेताओं को छह चर्चा समूहों में शामिल कर लिया गया. भूपिंदर हुड्डा को कृषि समूह की, गुलाम नबी आजाद और पृथ्वीराज चव्हाण को राजनीतिक समूह की, और आनंद शर्मा और मनीष तिवारी को अर्थव्यवस्था समूह की कमान दी गई. चूंकि चर्चा की योजना पहले से तैयार की गई थी, इसलिए खुद पर टीका टिप्पणी करने की गुंजाइश बहुत कम थी.
वैसे हुड्डा तभी से चुपचाप हैं, जब से उनके एक विश्वासी को हरियाणा कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, और वह सीएलपी के नेता बने रहे. यानी एक राज्य में पार्टी का नियंत्रण उनके हाथ में है. गुलाम नबी आजाद (जो पार्टी से निकलने और जम्मू-कश्मीर में अपनी पार्टी बनाने की सोच रहे हैं) और आनंद शर्मा को आठ सदस्यीय राजनीतिक मामलों के समूह में शामिल किया गया है जिसे सोनिया गांधी ने खुद को सलाह देने के लिए बनाया है.
अब देखना यह होगा कि क्या राज्यसभा के लिए इन दोनों पर विचार किया जाता है, और ऐसा नहीं होता तो क्या ये दोनों पार्टी में बने रहते हैं.
कांग्रेस की असली समस्याएं कुछ और ही हैं
सोनिया गांधी ने 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए एक टास्क फोर्स की घोषणा की थी जिसमें मुकुल वासनिक को जगह दी गई है. मुकुल वासनिक भी G-23 की चिट्ठी लिखने वालों में से एक थे. G-23 के एक और नेता शशि थरूर को 2 अक्टूबर से शुरू होने वाली भारत यात्रा के समन्वय के लिए केंद्रीय योजना समूह में शामिल किया गया है.
इसके अलावा लोकसभा सांसद के तौर पर मनीष तिवारी, G-23 के एक और नेता, इस स्तर पर पार्टी छोड़ने का जोखिम नहीं उठा सकते. हालांकि चर्चा है कि मनीष 2024 के चुनावों से ऐन पहले आम आदमी पार्टी (आप) में शामिल हो सकते हैं, जब तक कि कांग्रेस में सब कुछ नाटकीय रूप से नहीं बदल जाता.
लेकिन जो विरोध में बोले, असहमत हो, आलोचना करे, उसे अपने पाले में शामिल कर लिया जाए- यह कांग्रेस की बड़ी समस्याओं का हल नहीं. अगर वह 2024 में बीजेपी की जगह कब्जाना चाहती है तो उसे अपनी नेतृत्व की समस्या को गंभीरता से हल करना होगा, पार्टी में संरचनात्मक बदलाव करने होंगे और विपक्ष के साथ मिलकर काम करना होगा.
(स्मिता गुप्ता एक सीनियर जर्नलिस्ट हैं और द हिंदू, आउटलुक, इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स के साथ काम कर चुकी हैं. वो ऑक्सफोर्ड रॉयटर्स इंस्टीट्यूट की पूर्व फेलो हैं. उनका ट्विटर हैंडल @g_smita हैं यह एक ओपनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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