कर्नाटक की राजनीति, शतरंज के बिसात पर बिछ चुकी है. मई में होने वाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव Karnataka Assembly Election) में मुख्य मुकाबला बीजेपी और कांग्रेस के बीच है. बीजेपी अपनी चार साल पुरानी सरकार का बचाव कर रही है, जिसका नेतृत्व अब बसवराज बोम्मई कर रहे हैं. लेकिन, जब कर्नाटक के इतिहास के पन्नों को खंगालेंगे तो आपको कई रहस्यों का पता चलेगा. कर्नाटक में जिन दो समुदायों की सबसे बड़ी भूमिका होती है, वह लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय है.
कर्नाटक चुनाव में आप देख सकते हैं कि कैसे दोनों प्रमुख पार्टियां (कांग्रेस-बीजेपी) इन समुदायों से वोट बैंक बनाने या तोड़ने के लिए संघर्ष करती हैं, जो भारत में ऐसे बहुत कम ही नजर आता है.
कर्नाटक में जातीय और समुदाय का मकड़जाल ऐसा है कि यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सत्तावादी गढ़, बीजेपी द्वारा समर्थित हिंदुत्व कारक और गृह मंत्री अमित शाह की संगठनात्मक पहुंच, सभी धाराशायी हो जाते हैं.
कांग्रेस, जो अपने गिने-चुने गुणों में धर्मनिरपेक्षता और आधुनिक मूल्यों की शपथ लेती है, उसे बहुत कुछ गंवाना पड़ता है, क्योंकि वह समुदाय द्वारा मतदाताओं की गिनती भी करती है. इस चुनाव में दोनों पार्टियों के लिए जो सामान्य है, वह यह है कि दोनों को अपनी-अपनी पार्टियों के भीतर नेतृत्व संघर्ष का सामना करना पड़ा रहा है. मुख्यमंत्री बनने की महत्वकांक्षा किसी से छिपी नहीं है.
एक्स फैक्टर: लिंगायत
कर्नाटक के सियासी गलियारों में पिछले हफ्ते चार लिंगायत नेताओं की चर्चा जोरों पर रही, इनमें पूर्व और वर्तमान मुख्यमंत्री के साथ एक पूर्व डिप्टी सीएम भी शामिल थे. बीएस येदियुरप्पा, जगदीश शेट्टार और बसवाराज बोम्मई और पूर्व डिप्टी सीएम लक्ष्मण सावदी. इनकी व्यक्तिगत महत्वकांक्षा और अपने समुदायों के बीच मजबूत पकड़ की भी चर्चा हुई. इनमें से सावदी और शेट्टार ने बीजेपी की नांव से कूदकर चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस का हाथ थाम लिया. हालांकि, पिछले सप्ताह के अंत तक येदियुरप्पा, शेट्टार के लिए बल्लेबाजी कर रहे थे. येदियुरप्पा के बेटे पहले से ही बीजेपी के उम्मीदवार हैं. पीएम मोदी ने खुद मंच पर भ्रष्टाचार-आरोपित येदियुरप्पा को टाइटन के रूप में स्वीकार किया था. इस पर आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
लिंगायतों का एक उतार-चढ़ाव भरा इतिहास रहा है. कभी-कभी उन्हें एक अलग अल्पसंख्यक धर्म (लिंगायतवाद) के अनुयायी के रूप में देखा जाता है, लेकिन वे शिव की पूजा करते हैं, जो उन्हें हिंदू बनाता है. लेकिन, फिर वे पुरानी दुनिया की ब्राह्मणों के नेतृत्व वाली जाति व्यवस्था पर भी सवाल उठाते हैं.
इस प्रभावशाली पंथ के सदस्यों की उत्पत्ति विभिन्न जातियों और समुदायों में हुई है. चुनाव की दृष्टि से हमें केवल यह जानने की जरूरत है कि आधुनिक दुनिया में वे एक शिक्षित, राजनीतिक रूप से जागरूक, महत्वाकांक्षी समूह है.
बीजेपी ने कुल मिलाकर लिंगायतों के साथ अपनी भूमिका निभाई है, जिनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं अक्सर किसी विचारधारा, पार्टी या नेता से ऊपर उठती हैं. धारवाड़ के दक्षिण में मोदी की प्रसिद्ध बाहुबली छवि कमजोर पड़ती दिखाई दे रही है. एकमात्र दक्षिणी राज्य पर बीजेपी की पकड़ जहां वह सत्ता में है, इस चुनाव में गंभीर रूप से सवालों के घेरे में है, क्योंकि कर्नाटक में यह मुश्किल हो जा रहा है, जब एक समुदाय को लुभाने से दूसरे समुदाय नाराज हो गया है.
बीजेपी-कांग्रेस का आधार
जाहिर है, कांग्रेस इस चुनाव में वोक्कालिगा के साथ नजर आ रही है. इसका कारण भी है, क्योंकि खुद कर्नाटक कांग्रेस अध्यक्ष डीके शिवकुमार इसी समाज से आते हैं. हालांकि, वोक्कालिगा समुदाय के बीच पूर्व प्रधान मंत्री एचडी देवेगौड़ा के नेतृत्व में जनता दल (सेक्युलर) का मांड्या बेल्ट में मजबूत प्रभाव है, जो भारत की सिलिकॉन वैली से दूर नहीं है. JD (S) के लिए त्रिशंकु विधानसभा में किंगमेकर की भूमिका निभाने के विकल्प खुले हैं, लेकिन संकेत हैं कि इस मौसम में BJP के साथ उसके संबंध अधिक तनावपूर्ण हैं.
कांग्रेस ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है, उसने सावदी को लुभा लिया है और खुद को लिंगायत और वोक्कालिगा दोनों के लिए स्वीकार्य के रूप में चित्रित करने की कोशिश कर रही है. सावदी को ये महसूस हो गया था कि बीजेपी में लिंगायत समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वालों की भरमार है, इसलिए उन्होंने मौके की तलाश की बीजेपी की नांव से कूदकर कांग्रेस से हाथ मिला लिया.
वहीं, बीजेपी बड़े पैमाने पर विकास के साथ-साथ अपने हिदुत्व के एजेंडे को मिलाने की कोशिश कर रही है, लेकिन कर्नाटक के तटीय हिस्से के अलावा कहीं भी धार्मिक पहचान उतनी अधिक मजबूत नहीं है.
हालांकि, बीजेपी ने शैक्षिक संस्थानों में हिजाब पहनने, विवादास्पद शासक टीपू सुल्तान के खिलाफ मुद्दा बनाने, अल्पसंख्य कोटा समाप्त करने जैसे कई मुद्दे उठाए, लेकिन कामयाब नहीं हो सकी, जैसा की अयोध्या मंदिर को लेकर यूपी में हुई थी.
ऐसे में मोदी ब्रिगेड को उम्मीद होगी कि फैंसी ट्रेनों को हरी झंडी दिखाने और छोटे शहरों के हवाईअड्डों को खोलने की उनकी आकर्षक बोली चाल चलेगी.
कांग्रेस वोक्कालिगा समर्थन और अल्पसंख्यक मुसलमानों और दलितों के समर्थन पर दांव लगा रही है (इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे कर्नाटक के एक दलित हैं) और फिर सत्ता विरोधी लहर की उम्मीदों के साथ इसे मजबूत कर रहे हैं. अंतिम, लेकिन कम नहीं, बीजेपी कर्नाटक में भ्रष्टाचार के घोटालों से हिल गई है, जो भारत के उत्तर और पश्चिम में अपेक्षाकृत स्वच्छ पार्टी के रूप में अपनी छवि के साथ नहीं जाती है.
लेकिन, कांग्रेस में भी एकजुटता नहीं है, ऐसे में जो उसको जीत की उम्मीद है, वह आसान नहीं रहने वाली है. क्योंकि, पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया अपनी ताकत (कुरुबा, अन्य पिछड़ी जाति) दिखा रहे हैं, और उस सीट (मुख्यमंत्री) पर लौटना चाह रहे हैं.
विषम परिस्थितियों में बीजेपी
कर्नाटक की विशाल महत्वाकांक्षाओं की राजनीति के आड़े-तिरछे पैटर्न में एक बात स्पष्ट है: यह विचारधारा या पहचान के आधार पर किसी भी साधारण राजनीति के लिए राज्य नहीं है. सत्ता पर स्थापित होने के लिए बहुत कठोर सौदेबाजी करनी पड़ती है. चाहे वह चुनाव टिकट हो, खिताब हो, खर्च हो या मंत्रालय.
अमित शाह ने वोक्कालिगा किसानों के पैर की उंगलियों पर कदम रखा, जब उन्होंने गुजरात में जन्मे अमूल द्वारा कर्नाटक के डेयरी आंदोलन में मदद करने की बात कही, जिसके बाद स्वदेशी सहकारी ब्रांड नंदिनी के साथ युद्ध छिड़ गया. हालांकि, इससे मदद नहीं मिली क्योंकि बीजेपी भ्रष्टाचार, घोटालों से घिरी हुई है. इस बीच गिरफ्तार बीजेपी विधायक मदल विरुपाक्षप्पा के बेटे प्रशांत के घर से लगभग 6 करोड़ रुपये नकद की बरामदगी एक स्पष्ट झटका था. बची कसर 'Paytm' सरकार ने पूरा कर दी, जिसमें मंत्री भी शामिल थे.
पीएम मोदी की वाकपटुता, स्वच्छ छवि भी राज्य में कुछ खास कमाल नहीं दिखा पा रही है. बीजेपी बैकफुट पर ही दिख रही है. बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या लिंगायत समर्थन, बीजेपी की ग्लैमरस विकास परियोजनाओं की कड़ी बिक्री छवि के नुकसान की भरपाई करती है.
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि बीजेपी के लिए कर्नाटक में कोई भी हार पुराने टैग को वापस दोहराने लगेगी, जिसमें यह कहा जाता रहा है कि बीजेपी उत्तर-प्रभुत्व वाली पार्टी है. अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों में मोदी के तीसरे कार्यकाल और उस पार्टी के लिए भारी नुकसान होगा, जो खुद को एक सभ्यतागत पुनर्जागरण के ध्वजवाहक के रूप में पेश करती है.
(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं, जिन्होंने रॉयटर्स, इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम किया है. उनसे ट्विटर @madversity पर संपर्क किया जा सकता है. ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)