2024 का लोकसभा चुनाव (Election 2024) दिलचस्प होने जा रहा है. बीजेपी (BJP) इस बार कोई भी चूक करना नहीं चाहती है. ‘साम-दाम-दंड-भेद’ और ‘बांटो और राज करो’ की नीति को चुनावी हथियार बनाने के साथ ही धर्म और जाति के भावनात्मक मुद्दों को भुनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ेगी. साथ ही, प्रतीक, प्रतिमा, नारे और बहुजन नायकों को आगे करके अपने राजनीतिक मंसूबों को कामयाब करने में तो यह पार्टी माहिर है ही.
बीजेपी ने ‘राम आ रहे हैं’ की उद्घोषणा करके 22 जनवरी को राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के चुनावी मेगा इवेंट से जन मानस को जोड़ने के एक दिन बाद ही एक और बड़ा धमाका किया. यह धमाका इस बार बिहार की सियासी जमीन पर हुआ.
बिहार की राजनीति में पूर्व मुख्यमंत्री जननायक कर्पूरी ठाकुर एक ऐसा जगमगाता हुआ नाम है, जिनकी चर्चा हर समाजवादी, लोहियावादी, जेपी सेनानी, गांधीवादी समेत अन्य राजनीतिक कार्यकर्ता जरूर करते रहे हैं. लेकिन चुनावी वर्ष 2024 में ‘गुदड़ी के लाल’ कहे जानेवाले कर्पूरी ठाकुर के नाम की चर्चा करना हर पार्टी के नेता के लिए मजबूरी बन गई है, क्योंकि अत्यंत पिछड़ी जाति नाई परिवार में पैदा हुए कर्पूरी ठाकुर का यह जन्मशताब्दी वर्ष है.
मोदी सरकार ने कर्पूरी ठाकुर को ‘भारत रत्न’ देने की घोषणा करके नहले पे दहला मारा
यूं तो नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू पिछले 6 महीने से बिहार के हर जिले में एक अभियान के तौर पर ‘कर्पूरी चर्चा’ का लगातार आयोजन करके 36 फीसदी आबादी वाली अत्यंत पिछड़ी जातियों को जोड़ने में लगी थी.
पटना के वेटनरी काॅलेज मैदान में जेडीयू का 24 जनवरी को कर्पूरी ठाकुर जन्मशताब्दी समारोह मनाने का पहले से प्रोग्राम तय था, जिसमें दो लाख लोगों के आने का दावा किया गया था. कर्पूरी ठाकुर को लेकर जेडीयू के कार्यक्रम से घबराई बीजेपी भी वेटनरी काॅलेज मैदान में ही कार्यक्रम करना चाहती थी, लेकिन उसे वह जगह नहीं मिली. इसको लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेताओं के बीच जुबानी जंग चली. अंततः बीजेपी ने वीरचंद पटेल पथ स्थित पार्टी कार्यालय के सामने बीच सड़क पर ही मंच लगा कर कार्यक्रम किया.
24 जनवरी को पूरे दिन सभी पार्टियां कर्पूरी ठाकुर को हथियाने में लगी रहीं. जेडीयू के समारोह में पूरे सूबे से काफी संख्या में लोग आए थे, जबकि बीजेपी के कार्यक्रम में मामूली भीड़ थी. हालांकि, इससे इतर मोदी सरकार ने कर्पूरी ठाकुर को ‘भारत रत्न’ देने की घोषणा करके नहले पे दहला मारा. ये सीएम नीतीश कुमार की पिछले छह महीनों की मेहनत पर एक तरह से पानी फेरने का प्रयास है. अब मोदी के इस कथित मास्टरस्ट्रोक का चुनाव पर कितना असर पड़ेगा? नायक की इस छीना-झपटी से अत्यंत पिछड़ी जातियों के वोटों में कितनी सेंधमारी बीजेपी कर पाएगी, इसकी पड़ताल करना बाकी है.
मगर हम यहां बात करेंगे कि क्या कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर बीजेपी-संघ अपना पुराना पाप धो पाएंगे? क्या मोदी सरकार के इस फैसले को सवर्ण और सामंती सोच के वोटर पचा पाएंगे, जो कर्पूरी ठाकुर को न जाने कितनी भद्दी-भद्दी गालियां दिया करते थे. सवाल यह भी है कि क्या बीजेपी कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर सिर्फ 36 फीसदी वाली अत्यंत पिछड़ी जातियों पर कब्जा करना चाहती है या फिर कर्पूरी के विचारों को भी आत्मसात करेगी, उनके सपनों को भी पूरा करेगी?
बीजेपी को बताना चाहिए कि कर्पूरी ठाकुर ने सामाजिक समरसता की बात कब की?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक्स पर लिखा कि- ‘‘यह भारत रत्न न केवल उनके योगदान का विनम्र सम्मान है, बल्कि इससे समाज में समरसता को और बढ़ावा मिलेगा.’’ यहां पीएम मोदी ने बड़ी चालाकी से ‘समरसता’ शब्द का प्रयोग किया है. आरएसएस और बीजेपी कभी ‘सामाजिक न्याय’ की पक्षधर नहीं रही है.
‘सामाजिक समरसता’ शब्दावली ‘सामाजिक न्याय’ की विरोधी है. ‘सामाजिक न्याय’ में समानता, स्वतंत्रता, न्याय की भावना निहित होती है. ‘सामाजिक समरसता’ में असमानता, अन्याय और उत्पीड़न को बढ़ाने वाली जाति और वर्ण व्यवस्था को और पुख्ता करने का भाव छुपा है, जिसका आजीवन कर्पूरी ठाकुर विरोध करते रहे.
बिहार बीजेपी ने पार्टी कार्यालय के बाहर एक बड़ा-सा बैनर लगवाया है, जिसपर लिखा है- ‘‘बिहार एवं पिछड़े समाज का सम्मान बढ़ाते हुए सामाजिक समरसता के लिए जीवन अर्पित करने वाले जननेता कर्पूरी ठाकुर जी को भारत रत्न....’’
इस बैनर पर भी बीजेपी ने बड़े महीन तरीके से कर्पूरी ठाकुर को सामाजिक समरसता बढ़ाने वाला बताकर उनके विचारों और दर्शन को ध्वस्त करने की कोशिश की है.
बीजेपी को यह बताना चाहिए कि कर्पूरी ठाकुर ने सामाजिक समरसता की बात कब की? कर्पूरी ठाकुर ताउम्र गरीबों, दलितों-पिछड़ों, शोषित-वंचितों के सम्मान और अधिकारों के लिए लड़ते रहे.
कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर बीजेपी ने जरूर प्रशंसनीय काम किया है, लेकिन यह कदम उसकी राजनीतिक मजबूरी है और यह मजबूरी पैदा की है नीतीश कुमार ने ‘कर्पूरी चर्चा’ करा कर और जाति आधारित गणना को करावाकर.
'कर्पूरी ठाकुर का राजनीतिक दर्शन’ पुस्तक में डाॅ विष्णुदेव रजक ने कर्पूरी ठाकुर के मुजफ्फरपुर में एक गोष्ठी में 1987 में दिए भाषण का जिक्र करते हुए लिखा है- ‘‘कर्पूरी जी ने कहा था कि दक्षिण भारत के रामास्वामी नायकर, पेरियार और डाॅ अंबेडकर को छोड़कर क्या हिंदुस्तान की किसी राष्ट्रीय पार्टी ने, किसी राष्ट्रीय पार्टी के नेता ने क्या यह कहा कि हिंदुस्तान में जो अद्विज हैं, जो सामाजिक दृष्टि से शोषित हैं, पीड़ित हैं, दलित हैं- उनका राजनीतिक शोषण नहीं है? आर्थिक शोषण ही शोषण नहीं बल्कि सामाजिक शोषण भी शोषण है. तो जो सामाजिक दृष्टि से शोषित हैं, उनको अवसर मिलना चाहिए.’’
कर्पूरी समान अवसर की बात करते हैं और बीजेपी उनको समरसता से जोड़कर दिखा रही है.
कर्पूरी ठाकुर ने संभवतः देश में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री रहते हुए पिछड़ी जाति, महिला एवं गरीब अगड़ी जातियों के लिए 26 फीसदी आरक्षण विभिन्न सेवाओं में दिया. इस ऐतिहासिक फैसले के बाद प्रदेशभर में सवर्ण सामंती जातियों और जनसंघ के लोगों ने दंगे-फसाद किए.
कर्पूरी ठाकुर को इन लोगों ने - ‘आरक्षण कहां से आई, करपूरिया के माई बिआई’, ‘करपूरी कर पूरा, न त पकड़ छूरा’ जैसी भद्दी-भद्दी गालियां दीं. याद कीजिए, जब वीपी सिंह की सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को 1990 में लागू करके पिछड़ों को सरकारी सेवाओं में 27 फीसदी आरक्षण दिया, तो कैसे देशभर में बीजेपी ने हंगामा बरपाया था. यही बीजेपी समर्थन वापस लेकर वीपी सिंह की सरकार गिरा दी थी.
मंडल के खिलाफ कमंडल लेकर लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ से रथयात्रा लेकर निकल पड़े थे. और आज यही मोदी सरकार एक तरफ सवर्णों को आर्थिक आधार पर 10 फीसदी कोटा देकर और सशक्त करती है, तो दूसरी तरफ ‘नाॅट फाउंड सूटेबल’, ‘लैटेरल इंट्री’, ‘प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस’ और सरकारी कंपनियों को निजी हाथों में देकर पिछड़ों के आरक्षण को खत्म करते जा रही है.
धर्म और साम्प्रदायिक राजनीति की आड़ में दलित-पिछड़ों को सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से कमजोर करने की राजनीति करके बीजेपी कर्पूरी ठाकुर को वोट के लिए जरूर साध सकती है, लेकिन यह उनके साथ धोखा ही है और कुछ नहीं.
कर्पूरी ठाकुर के नजदीकी रहे मुरौल के डाॅ उमेश कुमार प्रसाद कहते हैं कि जिस सामाजिक न्याय के लिए कर्पूरी ठाकुर ने पूरा जीवन समर्पित कर दिया, उन्हीं कर्पूरी ठाकुर को जनसंघ के बीजेपी-आरएसएस के लोग गाली देते नहीं थकते थे.
भारत रत्न देने के कदम का स्वागत है, लेकिन इससे बीजेपी-संघ के पाप नहीं धुलने वाले हैं. कर्पूरी ठाकुर ने गरीब किसानों का लगान माफ किया था. अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण दलित-पिछड़ों के बच्चे पढ़ाई और परीक्षा में पिछड़ जाते थे. उन बच्चों को आगे बढ़ाने के लिए कर्पूरी ठाकुर ने एक अध्यादेश जारी करके अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म कर दी, जिसे ‘कर्पूरी डिवीजन’ कहा गया, जो अंग्रेजी में फेल वह भी पास.
लेकिन सामंती सोच के लोगों ने कर्पूरी ठाकुर के इस कदम का भारी विरोध किया. यहां तक कि 1967 की संयुक्त विधायक दल/ संविद सरकार ही संकट में आ गई. दस माह में ही वह सरकार गिरा दी गई. इस सरकार में कर्पूरी ठाकुर की पार्टी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी 67 विधायकों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन जनसंघ (आज की बीजेपी) समेत अन्य पार्टियां नहीं चाहती थी कि कोई पिछड़ी जाति का मुख्यमंत्री बने. इसलिए जनसंघ दबाव में सबसे छोटी पार्टी के नेता महामाया प्रसाद मुख्यमंत्री बने. कर्पूरी ठाकुर उपमुख्यमंत्री बने. शिक्षा मंत्री का प्रभार भी इन्हीं के पास था. बतौर शिक्षामंत्री कर्पूरी ठाकुर का अंग्रेजी की अनिवार्यता हटाने का संभवतः भारत के किसी भी राज्य के लिए महत्वपूर्ण घटना थी.
बहरहाल, जो जनसंघ कल तक एक पिछड़ी जाति का मुख्यमंत्री देखना नहीं चाहता था, आज वही बीजेपी कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर वाहवाही लुटना चाहता है. सरदार बल्लवभाई पटले, डाॅ अंबेडकर और अब कर्पूरी ठाकुर को हथिया कर भले दलित-पिछड़ा वोट में बीजेपी सेंधमारी कर ले, लेकिन इतिहास में दर्ज अपराध शायद ही मिट पाएगा.
सीपीआई (एमएल) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य कहते हैं कि उन्हें भारत रत्न मिला है, यह अच्छी बात है. लेकिन वंचितों के आरक्षण और शिक्षा के पक्ष में होने के कारण उन्हें साम्प्रदायिक-सामंती ताकतों का हमेशा अपमान झेलना पड़ा. ये कोई और नहीं, बल्कि बीजेपी के लोग ही थे, जो उन्हें अपमानित कर रहे थे. भारत रत्न मिलने के बाद भी बीजेपी का अपराध कम नहीं होगा.
(डॉ संतोष सारंग वरिष्ठ पत्रकार, लेखक व कवि हैं. उन्हें सिटीजन जर्नलिस्ट अवार्ड से सम्मानित किया गया है. वे साउथ एशिया क्लासमेट चेंज अवार्ड फेलो हैं. महिलाओं द्वारा संचालित वैकल्पिक मीडिया 'अप्पन समाचार' के संस्थापक हैं. बिहार के एक काॅलेज में अध्यापन का कार्य करते हैं. उनका ट्विटर हैंडल @SantoshSarang_ है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं.)
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