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कस्तूरबा गांधी, एक सशक्त महिला: उनकी अनकही कहानी के कुछ पहलू 

सशक्तिकरण की मिसाल थी कस्तूरबा गांधी 

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इतिहास ने कस्तूरबा गांधी को उनके पति मोहनदास करमचंद गांधी के जीवन के एक हिस्से के रूप में ही पेश किया है. जबकि एक तरफ ‘राष्ट्रपिता’ को स्वतंत्रता संघर्ष में सबसे आगे रहने के लिए सम्मान दिया जाता है वहीं दूसरी तरफ कस्तूरबा ने स्वतंत्रता के लिए अपने योगदानों से भारतीय इतिहास पर अमिट छाप छोड़ी, हालांकि उनके योगदानों को बहुत ज्यादा पहचान नहीं मिल पायी.

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उन्हें पढ़ना-लिखना नहीं सिखाया गया था लेकिन एक युवा और भ्रमित उम्र में उनसे एक जागरूक फैसला लेने के लिए कहा गया कि वह अपनी जिंदगी को ‘पारंपरिक’ पारिवारिक जिंदगी के बजाय देश की आजादी की लड़ाई के लिए समर्पित करें.

और उन्होंने ऐसा किया भी.

वह एक ऐसी नेता थीं जो लोगों की नजर में नहीं आ सकीं लेकिन उनकी पहचान उनके पति से बहुत अलग थी. यहां उनके बारे में कुछ तथ्य हैं.

कस्तूरबा, एक युवा और विनम्र महिला

पोरबंदर के एक प्रतिष्ठित और आर्थिक रूप से मजबूत परिवार से आने वाली 13 साल की कस्तूरबा की शादी मोहनदास करमचंद गांधी से 1883 में हुई थी, जैसा कि गांधी की आत्मकथा ‘द स्टोरी ऑफ माय एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रूथ' में दर्ज है – जो 1927 और 1929 में दो भागों में प्रकाशित हुई थी.

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  • उनकी शादी के शुरुआती साल उनके पारिवारिक बंधनों को दर्शाते थे. गांधी लम्बे समय के लिए अपने काम के चलते बाहर रहते थे जबकि कस्तूरबा अपने चार बच्चों की देखभाल के लिए घर पर रहती थीं.
  • उन्हें औपचारिक शिक्षा तो नहीं मिली लेकिन वह अपने पूरे जीवन में सीखने के लिए लालायित रहीं. जैसा कि अपर्णा बसु ने अपनी किताब ‘कस्तूरबा गांधी’ में लिखा कि गांधी ने एक बार कस्तूरबा से कहा था कि वह उन्हें तब तक कोई नोटबुक नहीं देंगे जब तक कि वह अपनी बच्चों जैसी हैण्डराइटिंग अच्छी नहीं कर लेतीं.
  • अपनी आत्मकथा में गांधी उनके लचीलेपन का सम्मान करते हैं और स्वीकार करते हैं कि उन्होंने अक्सर उनकी इच्छाओं को नजरंदाज करते हुए अपनी ही इच्छाओं को बल दिया.
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‘द स्टोरी ऑफ माय एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रूथ' में महात्मा गांधी के मुताबिक,

मेरे शुरुआती अनुभव के मुताबिक वह बहुत जिद्दी थीं. मेरे दबाव के बावजूद वह अपनी इच्छा के मुताबिक ही काम करतीं. इसके चलते कभी-कभी लम्बे समय के लिए और कभी-कभी थोड़े-बहुत समय के लिए हमारे बीच मनमुटाव रहा. लेकिन जैसे-जैसे मेरी सार्वजनिक जिंदगी आगे बढ़ी, मेरी पत्नी में बदलाव आया और जानबूझकर उन्होंने खुद को मेरे काम में तल्लीन कर लिया.

सशक्तिकरण की मिसाल, कस्तूरबा

कस्तूरबा को लम्बे समय तक अकेलेपन का सामना करना पड़ा क्योंकि गांधी दक्षिण अफ्रीका में राजनीति और न्याय की अपनी लड़ाई में कूद चुके थे और इस अकेलेपन को उन्होंने अपने नेतृत्व कौशल को धारदार बनाने के लिए इस्तेमाल किया.

एक तरफ वह अपने आदेशों में नम्र थीं वहीं दूसरी तरफ दृढ भी थीं. उनके आस-पास के लोग उनके आदेशों को सर आंखों पर रखते थे.

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  • जब गांधी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन और भारत छोड़ो आन्दोलन जैसे आंदोलनों की शुरुआत की तब कस्तूरबा इन आंदोलनों में पहली पंक्ति में थीं. जब-जब गांधी जेल में होते थे तब वह अक्सर इन आंदोलनों में अगुवाकर की भूमिका में होती थीं.
  • अपर्णा बसु कहती हैं कि भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान एक बार उन्होंने देश को संबोधित करते हुए एक ताकतवर भाषण लिखा था.
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कस्तूरबा गांधी के शब्द थे,

भारत की महिलाओं को अपनी ताकत साबित करनी होगी. जाति या पंथ की परवाह किये बिना उन सबको इस संघर्ष में शामिल होना चाहिए. सत्य और अहिंसा हमारा नारा होना चाहिए.
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  • साबरमती आश्रम को ज्यादातर उन्होंने ही चलाया जिसका श्रेय गांधी को दिया गया.
  • 1906 में जब गांधी ने ‘संयम’ की शपथ ली तब उन्होंने गांधी के निर्णय का पूरा साथ दिया. उनके आपने आदर्श थे और वह उन पर कायम भी रहीं लेकिन अपनी इच्छा के लिए उन्होंने कभी दूसरों के आदर्शों पर हावी होने की कोशिश नहीं की.
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स्वतंत्रता सेनानी कस्तूरबा

सामाजिक न्याय के लिए कस्तूरबा की लड़ाई भारत की आजादी की लड़ाई से बहुत पहले दक्षिण अफ्रीका में ही शुरू हो गयी थी.

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  • 1913 में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की अमानवीय कार्य स्थिति के खिलाफ प्रदर्शन किया जिसके लिए उन्हें तीन महीने की जेल भी हुई.
  • असहयोग आन्दोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलन में उनकी सक्रिय उपस्थिति थी और अपनी उम्र को नजरंदाज करते हुए वह लोगों को कोलोनियल मास्टर्स के खिलाफ अहिंसक आन्दोलन में ले गयीं.
  • वह खादी का चेहरा बनीं और अपने देश के लिए उत्पादन हेतु स्वदेशी श्रमिकों को प्रेरणा देने में सफल रहीं.
  • भारत छोड़ो आन्दोलन में अपनी भूमिका के दौरान वह आखिरी बार जेल गयी थीं.
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पुलिस द्वारा बुरे वर्ताव और आन्दोलन में उनके शरीर पड़े तनाव के चलते, भारत के स्वतंत्र राष्ट्र बनने से तीन साल पहले कस्तूरबा ने सन् 1944 में इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

....लेकिन हम उन्हें कभी भूल नहीं पाएंगे.

(इस स्टोरी को पहले 22 फरवरी 2018 को प्रकाशित किया गया था और कस्तूरबा गांधी की जन्म जयंती पर इसे फिर से पोस्ट किया गया है.)

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