कठुआ मामले के लिए बनी स्पेशल इनवेस्टिगेशन टीम (एसआईटी) की इकलौती महिला सदस्य श्वेतांबरी शर्मा ने द क्विंट को जो जानकारी दी, वह आपको अंदर तक हिला देगी, सोचने पर मजबूर भी करेगी. उन्होंने बताया कि उनकी जाति (ब्राह्मण) और धार्मिक पहचान की दुहाई देकर आरोपियों की तरफ से उन पर दबाव बनाने की कोशिश की गई.
श्वेतांबरी ने यह भी बताया कि स्थानीय पुलिस ताकतवर लोगों के इशारों पर आरोपियों के हक में काम कर रही थी. कठुआ मामले में इंसाफ अदालत को करना है, लेकिन जिस तरह से हिंदू एकता मंच के कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर कई वकीलों ने चार्जशीट फाइल होने से रोकने की कोशिश की और मंत्रियों, नेताओं, पत्रकारों और खास विचारधारा से जुड़े बुद्धिजीवियों ने उनका बचाव किया, उससे लगता है कि कुछ तो गड़बड़ है.
श्वेतांबरी ने बताया-
अधिकतर आरोपी ब्राह्मण हैं. उन्होंने अपनी जाति पर काफी जोर दिया. इसके साथ धर्म की दुहाई दी गई. मुझसे कहा गया है कि मेरी और उनकी जाति और धर्म एक है, इसलिए मुझे उन्हें मुस्लिम लड़की के रेप और मर्डर का दोषी नहीं करार देना चाहिए. इस पर मैंने कहा कि मैं जम्मू-कश्मीर पुलिस की अधिकारी हूं और पुलिस यूनिफॉर्म के अलावा मेरा कोई धर्म नहीं है.
पुलिस अधिकारी होने के नाते श्वेतांबरी का शायद ‘कोई धर्म ना हो’ और जिन लोगों ने उन्हें जाति और धर्म की दुहाई देकर जांच को प्रभावित करने की कोशिश की, उन्हें श्वेतांबरी ने सही जवाब दिया. श्वेतांबरी ने इसके साथ यह भी कहा-
‘मां दुर्गा के आशीर्वाद से’ पवित्र नवरात्र के दौरान एसआईटी इस मामले को सुलझा सकी.
खुद को हिंदुत्व का रक्षक बतानेवालों को और धर्म-निरपेक्षता के कुछ समर्थकों को भी श्वेतांबरी का यह बयान हैरान कर सकता है, लेकिन यह ऐसे धार्मिक हिंदू का बयान है, जिसने अपनी आस्था और आदर्शों से समझौता नहीं किया है. दूसरी तरफ ऐसे लोग खड़े हैं, जिन्होंने धर्म और पेशेवर नैतिकता को हिंसक राजनीति का हथियार बना दिया है. श्वेतांबरी ने इस मामले में अपने ‘धर्म’ का सच्चे अर्थों में पालन किया. उन्होंने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि किसी धर्मग्रंथ में लिखी बातों से क्या अर्थ लिया गया, यह उसका पालन करने का दावा करने वालों के मन की नैतिक बुनावट पर निर्भर करता है.
यह तथ्य सबसे नाटकीय रूप में सामने आया था जब कट्टर हिंदू’ नाथूराम गोडसे ने सनातनी हिंदू गांधी (स्वयं को सनातनी हिंदू बताने वाले) की हत्या की. दूसरी धार्मिक परंपराओं में भी खान अब्दुल गफ्फार खान उसी कुरान शरीफ से प्रेरित थे, जिसे मानने का दावा ओसामा बिन लादेन जैसे लोग भी करते हैं. दोनों कुरान से जो सीखते हैं, उसमें जमीन-आसमान का फर्क है. ठीक यही बात , बाइबिल के प्रसंग में एक तरफ मार्टिन लूथर किंग, दूसरी तरफ श्वेत नस्लवादियों के होने से सामने आती है.
धर्मग्रंथों का वास्तविक अर्थ उस नैतिकता ( सार्वभौम मानवीय मूल्यों की व्यवस्था) में ही खुलता है, जो मनुष्य ने इतिहास के विकास में गढ़ी है. किसी व्यक्ति का मोल इसी सवाल पर निर्भर करता है कि उसने नैतिक उलझन की, यानि “धर्म-संकट” की स्थिति में क्या फैसला किया, कैसा व्यवहार किया.
‘धर्म’ शब्द के आशय की कई परतें हैं. महाभारत में यक्ष के सवाल करने पर युधिष्ठिर कहते हैं, ‘धर्म का तत्व बहुत गूढ़ है, व्याख्याएं विविध हैं, इसलिए रास्ता वही है, जिसे महत्वपूर्ण, सम्मानित लोग अपनाएं. ( महाजनो येन गता: स पंथ:). युधिष्ठिर के इस कथन में धर्म के बहुस्तरीय आशय की जटिलता का संकेत स्पष्ट है, और एक धर्म के एक खास आशय पर उनका बल भी जाहिर है.
धर्म का मतलब प्राकृतिक, सामाजिक व्यवस्था का बने रहना है
लेकिन ,यह भी स्पष्ट है कि सामान्य लोग और स्वयं ‘महाजन’ जब ‘धर्म-संकट’ का सामना करते हैं. जब उन्हें धर्म के किसी प्रचलित अर्थ और अंतरात्मा की आवाज के बीच चुनाव करना होता है, तब बात और हो जाती है. हिंदू, बुद्ध और जैन धर्मों में ऐसी परिस्थितियों पर विचार किया गया है. ऐसे मामलों में ‘धर्म’ शब्द का मतलब फैसला करने वाले शख्स की नैतिक बनावट से तय होता है.
इन धार्मिक परंपराओं में कहीं-कहीं धर्म का वही मतलब माना गया है, जो आज माना जाता है. आज हम इसे आस्था, उससे जुड़ी प्रथाओं और पूर्वजों के तौर-तरीकों से जोड़कर देखते हैं. इससे कहीं ज्यादा धर्म का मतलब प्राकृतिक, सामाजिक व्यवस्था का बने रहना है, जैसे- पानी का धर्म बहते रहना है और अग्नि का धर्म जलना है. इसी तरह शासक का धर्म (राजधर्म) प्रजा की देखभाल करना है. भारतीय राजनीति में राजधर्म शब्द उस समय बहुत चर्चित हुआ था, जब एक पूर्व प्रधानमंत्री ने एक पूर्व मुख्यमंत्री को इसकी याद दिलाई थी.
श्वेतांबरी शर्मा ने इसी तरह हमें एक सरकारी अधिकारी के धर्म की याद दिलाई है. महाभारत में लिखा गया है, ‘धर्म सूक्ष्म होता है.’ इसीलिए कहा गया है कि धर्म की रक्षा की जाती है तो वह इंसान और समाज की रक्षा करता है. इसी वजह से हिंदू परंपरा में कानून की किताबों को धर्मशास्त्र का नाम दिया गया है.
धर्म के विरोधाभासी विश्लेषण के जाल से युधिष्ठिर ने बाहर निकलने के लिए महापुरुषों के बताए रास्ते पर चलने की बात कही थी. आपको यह भी समझना चाहिए कि इसमें जवाबदेही उन लोगों पर डाली गई है, जो अपने कर्मों या विचारों से लोगों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं. गीता में भी इसे स्पष्ट किया गया है. भगवान कृष्ण श्रेष्ठ जनों को उनके आचरण की याद दिलाते हैं क्योंकि आम लोग कमोबेश ‘महापुरुषों’ के बताए रास्ते पर चलते हैं. ( यद् यद् आचरति श्रेष्ठ जन: तद् तद् एव इतर:)
आज की हालत में यह बात विडंबनापूर्ण भी लगती है और प्रेरणादायी भी कि कश्मीर के ही इतिहासकार कल्हण ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘राजतरंगिणी’ में , धर्म और अभय की स्थापना और रक्षा करना राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य बताया है. जिस समाज में धर्म का अर्थ सत्तालोलुप, नैतिकताविहीन राजनैतिक दांवपेंच और हिंसक मनोवृत्ति तक सीमित हो जाए, उस समाज में जनता को अभय का बोध भला कैसे हो सकता है?
मुक्तिकारी और प्रबुद्ध व्यवस्था को बनाए रखना प्राथमिक रूप से राजसत्ता की जिम्मेवारी है, साथ ही यह हर नागरिक की भी जिम्मेदारी है कि वह तथाकथित धार्मिक भावनाओं में बहने से बचकर नैतिक मूल्यों पर टिका रहे और अपने पेशे के आदर्शों का पालन करे.
जो लोग एक अबोध बच्ची के बलात्कार और कत्ल पर धार्मिक पहचान के नाम पर लीपापोती कर रहे हैं, यहां तक कि उसके हुआ होने तक को नकार रहे हैं, ( जैसा कि एक ‘राष्ट्रीय और राष्ट्रवादी’ अखबार ने किया), वो इस युवा महिला अधिकारी से बहुत कुछ सीख सकते हैं, जिसने सच्चे धर्म का पालन करने का साहस दिखाया.
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(लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल क्विंट हिंदी के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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