भारत 15 अगस्त की आधी रात को एक गौरवपूर्ण और पवित्र मौके के रूप में मनाता है, वह मौका जब देश ने 1947 में अपनी स्वतंत्रता हासिल की थी. लेकिन इस साल, उस समय, पश्चिम बंगाल राज्य ने दिखाया कि वह आशा और आदर्शवाद के उस मौके से कितनी दूर चला गया था.
आधी रात के तुरंत बाद, एक उग्र भीड़ कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल (Kolkata's RG Kar Hospital) के कैंपस में घुस गई. यहां उस वक्त डॉक्टर, स्टूडेंट और मेडिकल कर्मचारी पिछले हफ्ते हुए 31 वर्षीय पोस्ट-ग्रेजुएट ट्रेनी डॉक्टर के क्रूर बलात्कार और हत्या के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. लाठियों से लैस गुंडों ने प्रदर्शनकारियों की पिटाई की, उस मंच पर तोड़फोड़ की, जहां से वे न्याय की मांग कर रहे थे और उन्होंने हॉस्पिटल की संपत्ति को नष्ट कर दिया.
जैसा कि सबको अनुमान था, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ-साथ उनके भतीजे और तृणमूल कांग्रेस पार्टी (TMC) नेता अभिषेक बनर्जी ने घटना की निंदा की और हिंसा करने वालों के खिलाफ तुरंत एक्शन लेने की बात कही. और ठीक अनुमान के तर्ज पर ही, सीएम ममता ने इस बर्बरता के लिए अपने राजनीतिक विरोधियों, सीपीआई (एम) और बीजेपी को दोषी ठहराया. लेकिन अब राज्य में अराजकता की संस्कृति ऐसी है कि कुछ ही लोग इस नैरेटिव को स्वीकार कर रहे हैं. कुछ लोग कहेंगे कि अराजकता की इस संस्कृति को सत्तारूढ़ टीएमसी ने बढ़ावा देने के लिए बहुत कुछ किया है.
वहीं इसके विपरीत, कई लोगों का मानना है कि भीड़ को आरजी कर मेडिकल कॉलेज में सबूत मिटाने और प्रदर्शनकारी डॉक्टरों को डराने के लिए भेजा गया था. कई थ्योरी भी सोशल मीडिया में घूम रही हैं, जैसे:
सरकार द्वारा संचालित यह हॉस्पिटल भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का केंद्र था
युवा पोस्ट-ग्रेजुएट ट्रेनी डॉक्टर की पहले हत्या की गई और फिर बॉडी, क्राइम सीन को एक हिंसक यौन हमले की तरह दिखाया गया
आरजी कर मेडिकल कॉलेज के कुछ ट्रेनी भी दिल दहला देने वाले अपराध में शामिल थे.
ये अफवाहें सच हैं या नहीं, इस सवाल से परे हम इस तथ्य से इंकार नहीं कर सकते कि जिस तरह से क्राइम के तुरंत बाद केस को संभाला गया, वह सत्ता की मंशा पर कई परेशान करने वाले सवाल खड़े करता है.
हत्या 9 अगस्त की सुबह हॉस्पिटल के सेमिनार रूम में हुई, लेकिन कई घंटों बाद तक इसकी सूचना पुलिस को क्यों नहीं दी गई? पुलिस ने इसे 'हत्या' न कहकर इसे "अप्राकृतिक मौत" के रूप में दर्ज क्यों किया, जैसे सुसाइड को दर्ज किया जाता है? हॉस्पिटल प्रशासन ने शुरू में मृतका के माता-पिता को क्यों बताया कि उनकी बेटी की मौत सुसाइड से हुई है?
क्या हॉस्पिटल हत्या को छुपाने की कोशिश कर रहा था? और यदि हां, तो यह किसे या किसे बचाने की कोशिश कर रहा था?
इस पहेली में सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि आरजी कर हॉस्पिटल के प्रिंसिपल संदीप घोष अपने पद से हट गए और उन्हें तुरंत नेशनल मेडिकल कॉलेज, कोलकाता का प्रिंसिपल नियुक्त किया गया. उन्हें ही हॉस्पिटल में महिलाओं की सुरक्षा की कमी के साथ-साथ इस क्राइम के प्रति धीमी और जानबूझकर गुमराह करने वाली प्रतिक्रिया के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए.
लेकिन क्यों? संदीप घोष के साथ राज्य सरकार के संबंध कैसे थे? घोष कम से कम, अपराध से पहले और बाद में अपनी जिम्मेदारी के घोर उल्लंघन के दोषी थे, फिर भी उन्हें तुरंत एक दूसरे टीचिंग हॉस्पिटल का प्रिंसिपल बनाने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? घोष को पावर में बनाए रखने की कोशिश से सरकार को क्या हासिल हुआ, जबकि उसे पता होगा कि इस कदम से पहले से ही नाराज जनता और भी नाराज हो जाएगी?
नेशनल मेडिकल कॉलेज के स्टूडेंट और डॉक्टर, जो राज्य भर के अपने साथी डॉक्टरों की तरह इस जघन्य अपराध का विरोध कर रहे हैं, उन्होंने घोष को काम पर नहीं आने दिया. वहीं, कलकत्ता हाई कोर्ट ने भी इस हफ्ते की शुरुआत में केस को सीबीआई को सौंपते हुए कहा था कि घोष को लंबी छुट्टी पर जाना चाहिए. संयोग से, भले ही मुख्यमंत्री बनर्जी ने जोर देकर कहा कि क्राइम की तेज जांच सुनिश्चित करने के लिए सब कुछ किया जा रहा है, लेकिन पश्चिम बंगाल पुलिस ने इस बारे में घोष से पूछताछ करना उचित नहीं समझा.
ममता बनर्जी ने नियमित रूप से राज्य में हुई सबसे जघन्य घटनाओं के लिए विपक्ष को दोषी ठहराया है, और ऐसी घटनाओं को उन्हें और उनके प्रशासन को बदनाम करने का प्रयास बताया है. जब इस साल की शुरुआत में संदेशखाली में कथित तौर पर स्थानीय TMC के बाहुबली नेता के हाथों जमीन हड़पने और महिलाओं के यौन उत्पीड़न की खबरें आईं, तो ममता ने इसी तरह प्रतिक्रिया दी थी. उन्होंने इसे अपनी पार्टी के खिलाफ राजनीतिक साजिश करार दिया. आंदोलन तेज होने के बाद ही मुख्य आरोपी को हिरासत में लिया गया.
इस बार भी, सीएम ममता ने दावा किया है कि विपक्षी दल - बीजेपी, सीपीआई (एम) और कांग्रेस - एक गंभीर अपराध का राजनीतिकरण कर रहे हैं और विरोध प्रदर्शन को बढ़ावा दे रहे हैं. वास्तव में, वह यहां तक कह चुकी हैं कि उनके प्रशासन को गिराने के लिए आंदोलनकारी स्टूडेंट्स और डॉक्टरों का इस्तेमाल किया जा रहा है, जैसा बांग्लादेश में हुआ.
विचित्र है कि मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि वह 16 अगस्त को एक विरोध मार्च का नेतृत्व करेंगी, जिसमें मांग की जाएगी कि सीबीआई उस एकमात्र व्यक्ति के खिलाफ जांच जल्द पूरी करे जिसे अब तक अपराध के लिए उठाया गया है (जबकि हो सकता है मृतका का रैंगरेप हुआ हो) और रविवार, 18 तारीख तक उसे फांसी पर लटका दिया जाए! उनके भतीजे ने तो एक कदम आगे बढ़कर एक ऐसे कानून की मांग की है जो पुलिस को किसी आरोपी को "एनकाउंटर" में मारने की अनुमति दे.
ममता बनर्जी ने सड़क पर विरोध प्रदर्शन करके ही राजनीति में अपनी जड़ें जमाई हैं. वो स्पष्ट रूप से उन लोगों से ज्यादा विरोध-प्रदर्शन करती दिखना चाहती हैं जो अभी आंदोलन कर रहे हैं. लेकिन अब उनके बयानों में लगभग उन्मादी अतार्किकता आ गई है. कह रही हैं कि रविवार तक एक आरोपी को फांसी पर लटका दो? यह बिना किसी सुनवाई के किया जाए? यह शायद जनता के मूड को अपने पक्ष में वापस लाने की उनकी हताशा को दिखाता है.
सवाल है कि क्या यह काम करेगा? 14-15 अगस्त की रात को बंगाल में 'रिक्लेम द नाइट' के बैनर तले विरोध प्रदर्शनों में पुरुषों और महिलाओं दोनों की भारी उपस्थिति थी. यह डॉक्टरों और नागरिक समाज के सदस्यों द्वारा चल रहे विरोध प्रदर्शन, आक्रोश के एक अभूतपूर्व सार्वजनिक प्रदर्शन का संकेत देते हैं. हाल के दिनों में नहीं देखा गया है.
निःसंदेह, सीएम ममता के प्रशासन के खिलाफ असंतोष पनप रहा है - भ्रष्टाचार के खिलाफ, घोटालों के खिलाफ, राजनीति में ढिलाई के खिलाफ. लेकिन ममता आक्रामक कल्याणवाद और चतुर चुनावी सोशल इंजीनियरिंग के मिश्रण से इस सब पर काबू पाने में कामयाब रही हैं.
लेकिन इस बार जनाक्रोश की धार तेज है. और शायद हर खेल में एक महत्वपूर्ण बिंदु होता है, चाहे आप इसे कितनी भी चतुराई से खेलें.
ममता ने अपने नैरेटिव में खुद को महिलाओं का समर्थनक दिखाया है - लक्ष्मीर भंडार जैसी कल्याणकारी योजनाओं को शुरू करने से लेकर संसद में सबसे अधिक संख्या में महिला सांसदों को भेजने तक. लेकिन हो सकता है कि एक युवा डॉक्टर के भयानक बलात्कार और हत्या अंततः जनता को यह कहने पर मजबूर कर देगी: बस! विंडो ड्रेसिंग के साथ बहुत हो गया! सिर्फ बातें बहुत हो गईं! भ्रष्टाचारियों को खुली छूट देना बहुत हो चुका! हम तंग आ चुके हैं. अब हद हो गया.
(शुमा राहा एक पत्रकार और लेखिका हैं. उनका एक्स हैंडल @ShumaRaha है. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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