दिनकर एक ऐसे कवि थे, जिनके लिए राष्ट्र का मतलब सिर्फ भूगोल नहीं, उसमें बसने वाली आम जनता थी. उनकी इसी प्रतिबद्धता ने उन्हें लोकतंत्र की मशाल उठाने वाला जन कवि बना दिया.26 जनवरी 1950 को देश के पहले गणतंत्र दिवस के मौके पर उन्होंने लिखा :
“सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.”
लोकतंत्र का अलख जगाने वाली दिनकर की इस कालजयी कविता ने 25 साल बाद 1975 में एक बार फिर से पूरे देश को झकझोरने का काम किया. ये कविता इमरजेंसी के खिलाफ हुए आंदोलन का एंथम बन गई. आंदोलन के नेता जयप्रकाश नारायण ने खुद दिल्ली के रामलीला मैदान में दिनकर की ये कविता सुनाकर लोकतंत्र की रक्षा का आह्वान किया था.
दिनकर इससे कुछ ही वक्त पहले 24 अप्रैल 1974 को ये दुनिया छोड़कर जा चुके थे, वरना वो खुद भी लोकतंत्र को बचाने के लिए इस आंदोलन में कूदने को बेताब थे. अपने प्रिय कवि भवानी प्रसाद मिश्र से उन्होंने कहा था:
“भवानी मुझे लगता है कि शरीर खटिया पर पड़े-पड़े न छूटे. जयप्रकाश ने आवाज लगाई है, मैं उनकी आवाज पर उनके साथ हो जाऊं और अगर अंतिम दिन जेल में बीते तो सार्थकता लगे.”
लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए मर मिटने की इस तैयारी ने ही उन्हें एक सच्चा जनकवि बनाया.
‘संस्कृति के चार अध्याय’ में है नफरत का जवाब
दिनकर की सबसे ज्यादा चर्चा कवि के तौर पर होती है. लेकिन उनका गद्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. 1959 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित "संस्कृति के चार अध्याय" में दिनकर ने भारत की सांस्कृतिक बुनियाद को ऐतिहासिक संदर्भों में रखकर समझाने की कोशिश की है. राष्ट्रवाद की आड़ में सांप्रदायिक नफरत को बढ़ावा देने के मौजूदा दौर में इस किताब की अहमियत और भी बढ़ जाती है.
दिलचस्प बात ये है कि नफरत की विचारधारा से जुड़े लोग भी कई बार दिनकर की इस किताब का ढोल पीटते नजर आते हैं. वो शायद इस बात से अनजान हैं कि दिनकर ने अपनी इस किताब में "सामासिक" यानी सबको साथ लेकर चलने वाली संस्कृति को भारतीय राष्ट्र की पहचान बताया है. जिसमें नफरत और अलगाव की संस्कृति के लिए जगह नहीं है.
दिनकर की किताब : नेहरू ने लिखी प्रस्तावना
इस लिहाज से संस्कृति के चार अध्याय, जवाहरलाल नेहरू की किताब डिस्कवरी ऑफ इंडिया की पूरक भी कही जा सकती है. ये महज संयोग नहीं है कि दिनकर की इस किताब की भूमिका खुद नेहरू ने ही लिखी है, जिसमें उन्होंने दिनकर के साथ अपनी वैचारिक समानता का जिक्र भी किया है :
“मेरे मित्र और साथी दिनकर ने अपनी पुस्तक के लिए जो विषय चुना है, वह बहुत ही मोहक और दिलचस्प है. यह ऐसा विषय है, जिससे अक्सर मेरा अपना मन भी ओतप्रोत रहा है और मैंने जो कुछ लिखा है, उस पर इस विषय की छाप आप-से-आप पड़ गयी है.”
नेहरू आगे लिखते हैं:
"संस्कृति क्या है?... भारत की ओर देखने पर मुझे लगता है, जैसा कि दिनकर ने भी जोर देकर दिखलाया है कि भारतीय जनता की संस्कृति का रूप सामासिक है और उसका विकास धीरे-धीरे हुआ है."
सबको साथ लेकर चलने की संस्कृति में ही है भारत की बुनियाद
भारतीय संस्कृति के इसी सामासिक रूप पर दिनकर ने भी जोर दिया है:
“सारा भारत, आरंभ से ही, संसार के सभी धर्मों की सम्मिलित भूमि रहा है....भारत ने विभिन्न विचारों, मतों, धर्मों और संस्कृतियों के बीच पूरा सामंजस्य बिठा दिया और इन्हीं विभिन्नताओं का समन्वित रूप हमारा सबसे बड़ा उत्तराधिकार है.”
दिनकर ने ये भी बताया कि हमारी इस सामासिक संस्कृति का आधार है भारत का अनेकांतवादी दर्शन :
“अनेकांतवादी वह है जो दूसरों के मतों को आदर से देखना और समझना चाहता है....अशोक और हर्ष अनेकांतवादी थे, जिन्होंने एक धर्म में दीक्षित होते हुए भी सभी धर्मों की सेवा की. अकबर अनेकांतवादी था, क्योंकि सत्य के सारे रूप उसे किसी एक धर्म में दिखाई नहीं दिए और संपूर्ण सत्य की खोज में वह आजीवन सभी धर्मों को टटोलता रहा. परमहंस रामकृष्ण अनेकांतवादी थे, क्योंकि हिंदू होते हुए भी उन्होंने इस्लाम और ईसाइयत की साधना की थी. और गांधी जी का तो सारा जीवन ही अनेकांतवाद का मुक्त अध्याय था.”
इतिहास की कड़वाहट से बाहर निकलना जरूरी
दिनकर इस सामासिक संस्कृति को भारत की एकता के लिए भी जरूरी मानते हैं. वो चाहते हैं कि लोग इतिहास की घटनाओं को सही संदर्भों में समझें और उनसे उपजी कड़वाहट से बाहर निकलें :
“अमीर खुसरो, जायसी, अकबर, रहीम, दाराशिकोह मुसलमान भी थे और भारत-भक्त भी...इस्लाम का भी अर्थ शांति-धर्म ही है....जिन लोगों ने इस्लाम की ओर से भारत पर अत्याचार किए, वे शुद्ध इस्लाम के प्रतिनिधि नहीं थे. इन अत्याचारों को हमें इसलिए भूलना है कि उनका कारण ऐतिहासिक परिस्थितियां थीं...और इसलिए भी कि उन्हें भूले बिना हम देश में एकता स्थापित नहीं कर सकते.”
आजादी की लड़ाई को याद करें
राष्ट्रीय एकता की इस भावना को आगे बढ़ाने के लिए दिनकर आजादी की लड़ाई में मुसलमानों की भूमिका की याद भी दिलाते हैं :
“भारत का विभाजन हो जाने के कारण ऐसा दिखता है, मानो, सारे के सारे हिंदू और मुसलमान उन दिनों आपस में बंट गए थे तथा मुसलमानों में राष्ट्रीयता थी ही नहीं. किंतु यह निष्कर्ष ठीक नहीं है. भारत का विभाजन क्षणस्थाई आवेगों के कारण हुआ और उससे यह सिद्ध नहीं होता कि मुसलमानों में राष्ट्रीयता नहीं है.”
दिनकर ने अकबर इलाहाबादी, चकबस्त, जोश मलीहाबादी, जमील मजहरी, सागर निजामी और सीमाब अकबराबादी के उदाहरण देकर समझाया कि भारतीय मुसलमान देशभक्ति के मामले में दूसरों से पीछे नहीं हैं.
क्या थी दिनकर की विचारधारा ?
दिनकर के राष्ट्रवाद को जो लोग नफरत आधारित दक्षिणपंथी अंध-राष्ट्रवाद से जोड़कर देखते हैं, उन्हें ये जानना चाहिए कि खुद दिनकर ने अपनी विचारधारा के बारे में क्या कहा है. 1972 में “उर्वशी” के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के मौके पर दिए भाषण में उन्होंने कहा था :
“जिस तरह मैं जवानी भर इकबाल और रवीन्द्र के बीच झटके खाता रहा, उसी प्रकार मैं जीवन-भर, गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं. इसीलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का रंग है. मेरा विश्वास है कि अन्ततोगत्वा यही रंग भारतवर्ष के व्यक्तित्व का भी होगा.”
दिनकर ने अपने इस भाषण में रवींद्र नाथ टैगोर के साथ अल्लामा इकबाल का जिक्र यूं ही नहीं कर दिया. वो टैगोर के साथ ही साथ इकबाल को भी कविता में अपना गुरु और आदर्श मानते थे.
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गांधी हत्या पर फूटा दिनकर का क्रोध
दिनकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के कितने बड़े मुरीद थे, ये बात किसी से छिपी नहीं है. बापू की हत्या पर उनका दुख और सात्विक क्रोध कविता बनकर फूट पड़ा था :
जल रही आग दुर्गन्ध लिये,
छा रहा चतुर्दिक विकट धूम,
विष के मतवाले, कुटिल नाग,
निर्भय फण जोड़े रहे घूम.
द्वेषों का भीषण तिमिर-व्यूह*,
पग-पग प्रहरी हैं अविश्वास,
है चमू* सजी दानवता की,
खिलखिला रहा है सर्वनाश.
(*धूम = धुआं, *द्वेषों का भीषण तिमिर-व्यूह = नफरत भरी साजिशों का अंधेरा, *चमू = सेना)
बापू की हत्या के बाद लिखी कविताओं में दिनकर ने हत्यारे के हिंदू होने का जिक्र भी बड़े क्षोभ के साथ किया है.
कहने में जीभ सिहरती है,
मूर्च्छित हो जाती कलम,
हाय, हिन्दू ही था वह हत्यारा.
और ये भी....
लिखता हूं कुंभीपाक नरक के
पीव कुंड में कलम बोर,
बापू का हत्यारा पापी,
था कोई हिन्दू ही कठोर.
राष्ट्रवाद के सबसे प्रखर उद्घोषक दिनकर की ये लाइनें पढ़कर महात्मा गांधी के हत्यारे को सच्चा हिंदू और उसकी नफरत भरी सोच को राष्ट्रभक्ति समझने वाले कुछ गुमराह लोगों की आंखें खुलेंगी, क्या ऐसी उम्मीद की जा सकती है?
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