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तालिबानी नफरत के बूट्स तले कुचलता अफगानी LGBTQ+ समुदाय लगा रहा मदद की गुहार

चीख-चीख कर कह रहे- ‘दुनिया को हमारा वजूद बताओ, नहीं तो हम सब बेरहमी से मार दिए जाएंगे

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(आर्टिकल के मध्य छपे कुछ चित्र परेशान करने वाले हो सकते हैं, पर तालिबानी क्रूरता दिखाने इन्हें छापना जरूरी है. पाठक अपने विवेक से काम लें.)

“अक्टूबर 2021 की एक शाम, जब मैं अपने दोस्तों के साथ था, तालिबान (Taliban) का एक हथियारबंद दस्ता मेरे घर में घुस गया. आधी रात को उन्होंने मुझे और एक अन्य व्यक्ति को जबरदस्ती हिरासत में ले लिया. ग्रुप के बाकी लोग किसी तरह पिछले दरवाजे से भाग पाए.

तालिबान ने मुझे एक बाथरूम में बंद कर दिया और अगली सुबह प्रताड़ित करने से पहले तक मुझे वहीं बंद रखा. अगली सुबह उन्होंने रबर के चाबुक से मेरे हाथ बांध दिए, मुझे पेट के बल लिटाकर तब तक मेरी पीठ पर मारते रहे जब तक खून नहीं बहने लगा.

उन्होंने मुझे बिजली के तारों से पीटा और मुझ पर ठंडा पानी फेंका और फिर करंट के झटके दिए. ये जलने के जो निशान आप देख रहे हैं, वह इसी वजह से हैं. मैं तो जैसे दर्द से मर ही गया था. मुझे लगता है कि मेरे किसी अपने ने ही मेरे बारे में उन्हें बताया था? ”

यह अफगानिस्तान (Afghanistan) के एक गे पुरुष बिलाल की कहानी है, जिससे हम तालिबानी प्रताड़ना की इस रिपोर्ट की शुरुआत कर रहे हैं.

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पिछले साल 15 अगस्त को अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे ने देश को मानवीय तबाही की ओर धकेल दिया है.

छह महीने से ज्यादा समय बीतने के बाद भी महिलाओं के नौकरी करने पर अभी भी पाबंदी है, कक्षा 7 से 12 की पढ़ाई लड़कियां स्कूल में नहीं कर सकतीं. विश्व खाद्य कार्यक्रम के अनुसार, 8.7 मिलियन लोग अकाल की चपेट में हैं.

हाल के हफ्तों में, तालिबान ने घर-घर तलाशी अभियान चलाया है और एक्टिविस्टों को जबरन पकड़ लिया है। LGBTQ + समुदाय एक ऐसा ग्रुप है जिन्हें ज्यादा धमकियां और प्रताड़नाएं दी जा रही हैं.

काबुल पर तालिबानी कब्जे से पहले भी अशरफ गनी सरकार में अफगानिस्तान में समलैंगिक पुरुषों के लिए जिंदगी बेहद खतरनाक थी, जहां समलैंगिक रिश्ते रखने पर दो साल जेल की सजा मिलती थी.

तालिबान के कब्जे के बाद LGBTQ + समुदाय के सामने आने वाले खतरों की जांच करते हुए ह्यूमन राइट्स वॉच ने बताया कि तालिबानियों ने LGBTQ + समुदाय को लैंगिक पहचान और सेक्सुअल ओरिएंटेशन जाहिर रखने पर सीधी चेतावनी दी. बिलाल बताते हैं कि-

''तालिबानियों ने LGBTQ+ अफगानों के साथ कड़ाई से पेश आने के लिए ‘हत्याओं की सूची’ सर्कुलेट की है, और इस लिस्ट में उनका भी नाम था. एक सुरक्षित ठिकाने से दूसरे सुरक्षित ठिकाने में जाने और शहरों से भागने के बाद, जब तालिबानियों को उनके ठिकाने की पक्की जानकारी मिली तो इससे वो हैरान रह गए. क्या कोई ऐसा है जो मेरा परिचित हो और उसने ही मेरे बारे में इन लोगों को बताया हो,'' आगे वो कहते हैं “ बहुत से मेरे गे दोस्तों को उनके परिवार के भरोसेमंद सदस्यों ने ही तालिबान को सौंप दिया.''

एक्टिविस्ट ने सैंकड़ों LGBTQ+ अफगानियों को यहांं से निकल भागने में मदद की हैं. एक्टिविस्ट के इस ह्युमैनिटेरियन ग्रुप्स ने और भी LGBTQ+ अफगानों को बचाने की कोशिशें तेज कर दी थी, पर यात्रा संबंधी दस्तावेजों को सुरक्षित रखने और सीमाएं को बंद किए जाने मुश्किलें बढ़ गईं.

एक समलैंगिक अफगान-अमेरिकी कार्यकर्ता नेमत सादात ने 200 से अधिक LGBTQ+ अफगानों को इलाके से भागने में मदद की है।

सादात ने LGBTQ+ अफगानों के रेस्क्यू के लिए एक नया संगठन, रोशनिया शुरू किया। फिलहाल उनकी सूची में 900 सदस्य हैं. और जब से रेस्क्यू पर तालिबान ने पाबंदी लगाई है तब से उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. सादत बताते हैं-

“सबसे बड़ी चुनौतियां फंडिंग और वीजा की रही हैं। काबुल और बल्ख के लोगों को पासपोर्ट हासिल करने में सबसे ज्यादा कठिनाई का सामना करना पड़ा है. क्योंकि इन दोनों प्रांतों में पासपोर्ट ऑफिस देश पर तालिबान के कब्जे के बाद से बंद हैं. और इसे हासिल करने का एकमात्र तरीका एक अधिकारी को पैसे मतलब रिश्वत देना है.

'20 बार छुरा घोंप मरने के लिए छोड़ा'

अफगानिस्तान से सुरक्षित निकाले गए सदस्यों में एक समलैंगिक सारा, जो नॉन-बाइनरी अफगानी हैं, बताते हैं कि उन्हें लगभग 20 बार छुरा घोंपकर मरने के लिए छोड़ दिया गया.

इस साल जनवरी की सुबह वे जिम से बाहर निकल रहे थे तभी तालिबानियों ने उन्हें घेर लिया और लगातार छुरा मारा. उन्हें लहूलुहान करके सड़क पर छोड़ दिया.

मैं भाग्यशाली हूं कि मैं जिंदा हूं. उन्होंने मेरे पैर, मेरी कमर पर छुरा घोंपा और ऐसा करते वक्त उन्होंने बहुत पीटा. मेरे आस-पास के किसी भी शख्स ने तालिबानियों को नहीं रोका, और मेरी मदद नहीं की. मैं बेहोश था और अस्पताल में जागने के बाद ही मुझे पता चला कि क्या हुआ है. आज भी उस दिन की घटना के बारे में सोचकर रीढ़ में सिहरन हो जाती है, मैं इसे कभी भूल नहीं सकता.
सारा, नॉन बाइनरी अफगान

बहुत मुश्किल से अपनी चोटों से ठीक होने के बाद सारा किसी तरह सादात के पास पहुंच पाए, जिनको बहुत मुश्किल से पासपोर्ट मिला. अब दूसरे देश में, वे जिंदगी को फिर से बनाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन नए दोस्त बनाने और अपने समलैंगिक होने का खुलासा करने से डरते हैं.

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सारा का कहना हैं “तालिबान से पहले भी घर में मुझे मेरे सेक्सुअल ओरिएंटेशन की वजह से किसी ने स्वीकार नहीं किया. जिंदगी हमेशा कठिन थी, और मैं इसी धार पर रहता आया हूं. पहले की सरकार में अपनी जिंदगी पर सारा कहते हैं,

“LGBT अफगानों को दाएश (एक कट्टरपंथी संगठन) ने भी टॉर्चर किया. हम कभी शांति से नहीं रह रह पाए थे। जब तालिबानी मुझे छुरा घोंप रहे थे, तो उन्होंने मुझसे कहा कि मेरा वजूद नहीं होना चाहिए, और इस्लाम में मेरे लिए कोई जगह नहीं है और न ही जीने का अधिकार है.

नए देश में सारा जिंदगी को फिर से बनाने की कोशिश में हैं ...लेकिन बिलाल अभी भी अफगानिस्तान में बढ़ते खतरे को लेकर फिक्रमंद हैं. अपने खौफनाक अनुभवों को याद करते हुए बिलाल बताते हैं , “ उन्होंने मुझे 20 दिन तक प्रताड़ित किया.. और कैमरे पर ये कहने के लिए मजबूर किया कि मैं गे हूं, ताकि वो पत्थरों से मार-मार कर मेरी जान ले सकें. हर दिन वो ऐसे ही यातना देते, फिर दिन खत्म होने पर बाथरूम में फेंककर बंद कर देते थे.मैं भी मरा हुआ सा निढाल पड़ा रहता था, लेकिन जब एक दिन सांस लेना मुश्किल हो गया तो मैंने किसी तरह अपने बंधे पैर खोले. मैं उस दिन बाथरूम से भागकर नजदीक के एक गांव पहुंचा, जहां एक परिवार ने मुझे पनाह दी और जख्मों पर मरहम पट्टी की.

उनकी मदद के लिए शुक्रगुजार बिलाल कहते हैं “ सुबह के 3 बज रहे थे जब परिवार ने मुझे खाना और पानी दिया. उन्होंने सोने के लिए बिस्तर भी दिया ”

यहां कुछ दिन रहने के बाद बिलाल ने अपने दोस्तों से संपर्क किया और उनके पास चला गया. फिर सोशल मीडिया के जरिए एक दिन सादत के संपर्क में आए.

सादत ने किसी तरह बिलाल के लिए दस्तावेज जुटाए. लेकिन रेस्क्यू पर पाबंदी लग जाने से LGBTQ + अफगानियों के लिए सुरंग के अंत में रोशनी जैसी उम्मीद अभी काफी दूर है.

हमारी बातचीत को समाप्त करते हुए बिलाल ने मुझसे अनुरोध किया कि उनके जैसे अफगानियों को बचाने के लिए दुनिया से अपील की जाए नहीं तो वो सबके सब मारे जाएंगे. “ उन्हें हमारे वजूद के बारे में बताओ, हमें सुरक्षा चाहिए और हम जिंदा रहना चाहते हैं '

(लेखिका पेरिस में बेस्ड एक स्वतंत्र पत्रकार हैं, यूनिवर्सिटी कॉलेज डबलिन की पूर्व छात्रा हैं और अंतरराष्ट्रीय संघर्ष और युद्ध के बारे में लिखती हैं।)

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