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ओपिनियन: राहुल ने मोदी को गले लगाकर हाथ आया मौका गंवा दिया

पिछले दो दशकों में राजनीति हर कहीं थियेटर में तब्दील हो चुकी है

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पिछले दो दशकों में राजनीति हर कहीं थियेटर में तब्दील हो चुकी है. सफल होने के लिए अच्छे थियेटर में पांच चीजों की जरूरत होती है: एक अच्छी स्क्रिप्ट, एक अच्छे कलाकार, एक अच्छा निर्देशक, एक अच्छा बैंक बैलेंस और आखिर में लेकिन सबसे जरूरी एक अच्छा लीड एक्टर. इनमें भी अगर स्क्रिप्ट राइटर, निर्देशक और लीड एक्टर की सफलता का रिकॉर्ड अच्छा है, तो काम और आसान हो जाता है.

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विपक्ष, अविश्वास प्रस्ताव के दौरान मोदी सरकार को घेरने के लिए इस फॉर्मूले का इस्तेमाल कर सकता था लेकिन जिस वक्त राहुल गांधी ने मिस्टर मोदी के पास जाकर उन्हें गले लगाया, उसी वक्त उन्होंने यह मौका खो दिया.

पिछले दो दशकों में राजनीति हर कहीं थियेटर में तब्दील हो चुकी है
सदन के भीतर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पीएम मोदी को लगाया गले
(फोटो- LSTV)

राहुल के उस मूव के साथ ही बहस एक हल्के थियेटर में तब्दील हो गई, जिसमें ऊपर दिए गए अच्छे थियेटर के कोई तत्व नहीं थे. सच तो ये है कि सारी चीजें एक व्यर्थ कवायद भर रह गईं. भूलना नहीं चाहिए था कि नंबर को देखते हुए ये अविश्वास प्रस्ताव कभी भी सफल नहीं होने जा रहा था. लेकिन विपक्ष के पास यह एक ऐसा प्लेटफॉर्म था, जहां से वो वोटर्स को ये समझा सकते थे कि एनडीए की सरकार का प्रदर्शन अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं रहा है.

यही काम पिछले आम चुनाव से छह महीने पहले मोदी और बीजेपी ने किया था. तब उन्होंने मतदाताओं को बार – बार याद दिलाया था कि कैसे यूपीए की सरकार तमाम मोर्चों पर विफल रही है. बाकी, जैसा कि अमित शाह ने कहा कि वो सिर्फ जुमला था. अच्छे दिन का वादा इसी का हिस्सा था क्योंकि हरेक मतदाता के बैंक अकाउंट में 15 लाख रुपये डालने का वादा किया गया था.

चार कैटेगरी

अगर बीजेपी का विरोध करने वाले राजनीतिक दल चालाक होते, तो वे देख सकते थे कि दुनिया में कहीं की भी सरकारों का आंकलन चार मुख्य मानकों पर किया जाता है:

  • राजनीति
  • अर्थशास्त्र
  • विदेश नीति
  • सामाजिक नीतियां

सरकार का विरोध कर रही पार्टियों को इन चार मुद्दों पर अलग-अलग चार स्पीकर को अपनी तरफ से चुनना चाहिए था. इसका असर नजदीक से मारे गए पंच की तरह दमदार होता, न कि खुली उंगलियों के साथ लगाई गई कई सारी कमजोर चपत की तरह. मुक्के और चपत में बहुत अंतर होता है.

इन चार बड़ी कैटेगरी के अंदर दो सब कटेगरी भी है : गवर्नेंस और प्रशासन में सफाई के लिए सरकार की ओर से उठाए गए छोटे-छोटे कदम और व्यवस्था में लंबे समय से मौजूद खामियों को दूर करने के लिए बड़े कदम.

मौजूदा मोदी सरकार इस सामान्य नियम से अलग नहीं रही है. लेकिन इसकी कुछ गंभीर कमजोरियां रही हैं. ये सरकार कहती रही है कि उसने प्रशासन और गवर्नेंस सिस्टम को मजबूत किया है, लेकिन इसी दरम्यान सरकार ने बड़ी चीजों को उपेक्षित भी छोड़ दिया.

पिछले दो दशकों में राजनीति हर कहीं थियेटर में तब्दील हो चुकी है
पीएम मोदी
(फाइल फोटोः PTI)

पीएम नरेंद्र मोदी ने अनजाने में सामान्य प्रशासन में सुधार पर ध्यान दिया है और इनमें से कुछ प्रयासों के अच्छे नतीजे भी आएंगे. लेकिन ये छोटे पहल सिक्के के एक पहलू भर हैं. सिक्के का दूसरा पहलू बड़ी पहल हैं और उनकी चार कैटेगरी में से तीन की स्थिति काफी हद तक भयावह है- और ये तीन मोर्चे हैं- आर्थिक, विदेश नीति और सामाजिक नीतियां.

सिर्फ राजनीति ही है, जिसमें मिस्टर मोदी बेहद सफल रहे हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि वे पूरी तरह से इस बात को लेकर प्रतिबद्ध हैं कि उन्हें अपनी पार्टी को 2019 में दोबारा सत्ता में लेकर आना है. लेकिन कमजोर विपक्ष को देखते हुए मोदी के लिए ये आसान काम है.

इस मोर्चे पर कठिन टास्क ये है कि बीजेपी फिर से खुद बहुमत हासिल करे. लेकिन अगर बीजेपी सिर्फ 11 सीटें खोती है, तो वो खुद अपने बूते बहुमत हासिल करने से दूर रह जाएगी. और मौजूदा राजनीतिक माहौल को देखते हुए ऐसा होना तो निश्चित ही लग रहा है.

अर्थव्यवस्था

मोदी ने नोटबंदी का बड़ा फैसला किया. इसे एक अर्थशास्त्री ने एक ऐसी इकॉनमी के अगले टायर में शूट करना बताया, जो बड़े ही अच्छे तरीके से चल रही थी. इसके बाद जीएसटी को जिस तरीके से डिजाइन और लागू किया गया, वो दूसरी तबाही लेकर आया. कुल मिलाकर पहले फैसले ने मांग को बर्बाद कर दिया, तो दूसरे ने सप्लाई को.

पिछले दो दशकों में राजनीति हर कहीं थियेटर में तब्दील हो चुकी है

इनके नतीजे अर्थव्यवस्था में आज साफ तौर पर देखे जा सकते हैं. रोजगार, मजदूरी, कीमतें और विदेशी व्यापार- ये चारों ही मंदी की चपेट में हैं और चौपट होकर रह गए हैं. और ऐसे में वोटर जो कुछ महसूस कर रहा है, उस वास्तविकता को आंकड़ों की बाजीगरी करके छुपाया नहीं जा सकता है.

विदेश नीति

देश की विदेश नीति में भी इसी तरह के नतीजे देखे जा सकते हैं. एक विदेश नीति को तब कारगर कहा जाता है, जब वो देश खासतौर से अपने पड़ोसियों और उसके बाद दुनिया के बड़े देशों के साथ अच्छे रिश्ते और तालमेल के साथ आगे बढ़ रहा हो. इस पैमाने पर मिस्टर मोदी बुरी तरह से विफल रहे हैं. चीन पहले किसी भी समय के मुकाबले ज्यादा आक्रामक है और पाकिस्तान कश्मीर को लेकर जितनी गुस्ताखियां कर रहा है, उतनी पहले कभी नहीं कीं. ये दोनों ही देश भारत को तोड़ने का बड़ा मौका देख रहे हैं.

पिछले दो दशकों में राजनीति हर कहीं थियेटर में तब्दील हो चुकी है

जहां तक अमेरिका का सवाल है, अपने उत्पादकों के लिए बड़े ऑर्डर के वादे के बावजूद इसे मूर्त रूप नहीं दे पाया क्योंकि ऑर्डर दिए ही नहीं गए. रूस परेशान है क्योंकि उसे लगता है कि भारत अब अमेरिका की राह पर है और यूरोप ने खुद को अप्रासंगिक बना लिया है. जबकि जापान न इधर का है और न ही उधर का.

ऐसे में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मोर्चे पर भारत इस वक्त जितना कमजोर है, उतना शायद ही कभी रहा हो.

सामाजिक नीतियां

आखिर में, मौजूदा सरकार की सामाजिक नीतियों की बारी आती है. सरकार की नीतियां लोगों को असुरक्षित और असहज महसूस करा रही हैं. माहौल में हर कहीं एक आक्रामकता है, जो कि किसी को भी बख्शने के लिए तैयार नहीं है. लिंचिंग का अगला शिकार कौन बनेगा?

ये सही है कि ऐसी चीजें तभी होती हैं जब अर्थव्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं होती. लेकिन राष्ट्रवाद पर एक अतिरंजित जोर का असर भी साफ नजर आता है. ये एक ऐसा माहौल है, जिसे इस सरकार ने शायद अनजाने में ही, लेकिन बनाया जरूर है.

देश सेवा बहुत अच्छी बात है. लेकिन क्या ये जन सेवा की कीमत पर हो सकता है?

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