अगर आप जाने माने इतिहासकार बनना चाहते हैं तो आपको मेरा सुझाव है कि आप पीएचडी करने के ख्याल को छोड़ दें. साथ ही लाइब्रेरी और पुरातात्विक खंडहरों में अपना लंबा समय बिताना और विश्वविद्यालय में प्रोफेसरों के साथ बहस करने का विचार भी थंडे बस्ते में डाल दें.
और इन सबके बजाय, जाएं और किसी ऐतिहासिक व्यक्ति या घटना के बारे में एक फिल्म बनाएं. नहीं, ओपेनहाइमर किस्म की नहीं. मैं जानता हूं कि मशहूर परमाणु वैज्ञानिक पर बनी हॉलीवुड बायोपिक ने इस साल ऑस्कर अवार्ड में धूम मचा दी है, लेकिन आप समझें कि इन अमेरिकियों को नए बॉलीवुड से सीखना चाहिए, जहां ऐतिहासिक फिल्मों का महत्व इतनी तेजी से बढ़ रहा है.
क्रिस नोलन ने ओपेनहाइमर के बारे में बहुत कुछ सही करने में घंटों और लाखों खर्च किए होंगे, जैसे कि उन सुनवाई का विवरण जिसके बाद उनकी सुरक्षा स्टेट्स छीन ली गई थी या एक युवा वैज्ञानिक का यूरोप तक पहुंचना, संस्कृत से जूझना, आदि.
इतनी मेहनत करने की क्या जरूरत है? बॉलीवुड में हम फिल्में तुरंत बनाने में विश्वास रखते हैं. हस ऐसी फिल्में बनाते हैं, जो लोगों को आसानी से पच जाएं और देशभक्ति से ओतप्रोत दर्शकों में भावनाओं के तार झंकृत कर दे, वह भी आम चुनावों से ठीक पहले.
आप उन्हें हिस्ट्री-पिक्स, पेट्रीऑट-पिक्स या पोली-पिक्स कह सकते हैं. आप खुद 'पिक' करें.
रजाकर: साइलेंट जेनोसाइड ऑफ हैदराबाद, 1948 में हैदराबाद में पुलिस कार्रवाई के बीच हिंदू-मुस्लिम तनाव पर आधारित फिल्म 15 मार्च को रिलीज हुई है. और साथ ही रिलीज हुई बस्तर: द नक्सल स्टोरी.
22 मार्च को 'स्वतंत्र वीर सावरकर' आएगी, जो आरएसएस-बीजेपी के प्रतीकात्मक, वैचारिक होममेड विकल्प है, डेविड एटनबरो की ऑस्कर हासिल करने वाली 'गांधी' के मुकाबले.
अगर यह बात मायने रखती है तो आपको बता दें 'रजाकर' फिल्म के निर्माता बीजेपी नेता गुडुर नारायण रेड्डी हैं. 15 अप्रैल को, हम 'जहांगीर नेशनल यूनिवर्सिटी' (विंक-विंक, जेएनयू) नामक एक फिल्म देखने वाले हैं, जो एक शैक्षणिक संस्थान के बारे में हैं, जहां देश को तोड़ने के तदबीरें गढ़ी जा रही हैं! यह कोई पैरोडी नहीं है बल्कि फिल्म को वास्तविक दिखाने के लिए ज्ञात फैक्ट्स और विचारधारा को मिला दिया गया है.
निर्देशक महेश मांजरेकर के साथ विवाद के बाद सावरकर की भूमिका निभा रहे मॉडल से अभिनेता बने रणदीप हुड्डा अब फिल्म के निर्देशक, निर्माता, लेखक, पटकथा और संवाद लेखक हैं. उन पर पहले से ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस समर्थकों द्वारा इतिहास से छेड़छाड़ करने का आरोप लग रहा है. ऐसी देशभक्ति फिल्मों को लेकर आगे और ऐसे विवाद देखने को मिलेंगे. यह आम चुनावों का मौसम है और कई फिल्में बीजेपी की प्रचार मशीनरी के अनुकूल प्रतीत होती हैं. यह बहुत ज्यादा संयोग है क्या?
अकादमिक इतिहास अधारित फिल्में बनाने के लिए जरूरी फुटनोट, नजीर, समीक्षा और ऐसी तमाम चीजों की किसे जरूरत है?
आपको बस फॉर्मूला हिस्ट्री-पिक की जरूरत है.
अच्छे दिखने वाले किरदार किसी फिल्म को हॉट बना सकते हैं. हालिया इतिहास कम एक्शन, राजनीति, शिक्षा सह थ्रिलर धारा 370' (Article 370), जो कश्मीर के लिए अब समाप्त हो चुके संवैधानिक प्रावधान पर आधारित है, जो साल 2016 में बड़े पर्दे पर रिलीज हुई थी. फिल्म का सीक्रेट मिशन 370 के कारण उपजे आतंकवाद और आर्थिक समस्याओं को खत्म करना था. इसका संचालन एक खूबसूरत एजेंट द्वारा किया जाता है, जो संयोगवश पहले फेयरनेस क्रीम मॉडल हुआ करती थीं. लेकिन अब उनके फिल्म जगत में एंट्री के बाद आपको रंगीन इतिहास का फेयर एंड लवली वर्जन मिलने की गारंटी है. हरी-भरी घाटी के ग्रे अतीत को भगवा आंखों से देखकर देशभक्ति का लाल खून उबलना तय है.
मैंने न्यूजरूम में काम करने के दौरान जल्द ही समझ लिया था कि पत्रकारिता "जल्दबाजी में लिखा गया इतिहास" है. वाशिंगटन पोस्ट के प्रसिद्ध प्रकाशक फिलिप ग्राहम ने एक बार पत्रकारिता को "इतिहास का पहला मोटा मसौदा" कहा था. ऐसे आदर्शवादियों ने शायद कभी नहीं सुना होगा कि बॉलीवुड घटनाओं को कुछ ऐसे मोड़ देकर जो लोकप्रिय कल्पना की नब्ज पकड़ते हैं, इतिहास रचने में हॉलीवुड को मात देता है. आलोचक इसे प्रचार कह सकते हैं, लेकिन समर्थक उन्हें जलनखोर कहते हैं.
'द कश्मीर फाइल्स' (1990 के दशक के बारे में) और 'द केरल स्टोरी' (मुस्लिम पुरुषों द्वारा हिंदू लड़कियों को धर्मांतरण के लिए लुभाने वाले लव-जिहाद के आरोपों पर) बॉक्स ऑफिस पर ब्लॉकबस्टर साबित हुईं. मिलनसार राज्य सरकारें ऐसी फिल्मों को टैक्स फ्री भी कर देती हैं.
बस्तर: द नक्सल स्टोरी, जैसा कि शीर्षक से पता चलता है, माओवादी समस्या पर यह एक दक्षिणपंथी दृष्टिकोण है. यह उसी दल से है जिसने द केरल स्टोरी बनाई थी जिसे आलोचकों ने एक दुर्लभ घटना के अतिशयोक्ति के रूप में चित्रित किया जाना कहते हैं.
हम न्यूजरूम में सनकी मजाकिया बुजुर्गों से सुनते थे कि "एक अच्छा पत्रकार कभी भी तथ्यों को एक अच्छी कहानी को खराब नहीं करने देगा." यह उन कुछ बॉलीवुड इतिहासकारों के लिए एक प्रेरणादायक नारा हो सकता है, जिन पर तथ्यों को तोड़ने का आरोप है.
पर रुकें, बॉम्बे द्वारा सेल्युलाइड की खोज से बहुत पहले, हमारे पास फ्रांसीसी दार्शनिक वोल्टेयर थे, जिन्होंने कहा था कि "इतिहास संचित कल्पनाशील आविष्कारों की एक श्रृंखला से बना है." नया बॉलीवुड केवल वही काम कर रहा है, जो पहले किया जा चुका है. इसका अंदाजा हमें इस तथ्य से मिल सकता है कि राजनीतिक रूप से अहम राज्य उत्तर प्रदेश में, "स्टोरी" का उच्चारण अक्सर "इस्टोरी" के रूप में किया जाता है!
मैं बॉलीवुड शैली के इतिहास की तस्वीर बनाने और उसके चारों ओर एक स्क्रिप्ट का प्रयास करने के लिए सबसे अच्छे सूत्र को समेटने के लिए काफी प्रेरित हूं. आपको अच्छे दिखने वाले, युवा, शांत लोगों की आवश्यकता है, जिन्हें दर्शक पहचान सकें.
इतिहास के खांचे से काल्पनिक पात्रों को लाकर असल किलदार के साथ मिला दें. एक वॉयसओवर जोड़ें, जो दर्शकों की कल्पना पर अंकुश लगा देता है और कुछ शोर वाले घटनाओं का चित्रित करता है. अब सब कुछ नाटकीय रूप से उस स्थिर इतिहास से अलग दिखेगा, जो वे विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में पढ़ाते हैं.
मैं नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन पर एक संशोधनवादी बायोपिक बनाने की सोच रहा हूं, जो एक ज्ञात शांतिवादी उदारवादी हो सकते हैं लेकिन उन्हें एक यहूदी के रूप में चित्रित किया, जो अंततः एक जिओनवादी सकता है. मेरी कहानी मैनहट्टन स्थित एक युवा, अच्छे दिखने वाले फैशन डिजाइनर की नजर से बताई जाएगी, जिसकी परदादी एक काल्पनिक चरित्र है, जिसने अल्बर्ट आइंस्टीन को उनकी प्रयोगशाला में सहायता की थी.
क्लाइमैक्स में, महिला कहती हैं कि उसे पारिवारिक के लोगों से पता चला कि आइंस्टीन एक पुरुष अंधराष्ट्रवादी था जो सहकर्मियों का शोषण करता था. वह प्रसिद्ध समीकरण, E=mc^2 की ओर संकेत करती है.
"E का मतलब Exploitation (शोषण) है और MC उसके Male Chauvinist (पुरुष अंधराष्ट्रवादी) होने की फ्रायडियन स्वीकारोक्ति है,और एक रूढ़िवादी Square इसे बढ़ावा देने के लिए है" यह कहते हुए वह गरजती है और यह दर्शकों को तालियां बजाने के लिए मजबूर कर देता है.
यदि यह नए जमाने का बॉलीवुड-प्रेरित फॉर्मूला ऑस्कर नहीं जीतता है, तो संभावना ज्यादा है कि यह किसी अस्पष्ट रूसी फिल्म समारोह में ब्लैक कॉमेडी पुरस्कार अपने नाम कर लेगा.
भारत में मल्टीप्लेक्स दर्शकों को ऐसी व्यंग्यात्मक फिल्म पसंद आना स्वाभाविक है. 'वोकल फॉर लोकल' के दौड़ में वह अपने पॉपकॉर्न को भी किसी भेलपुरी के लिए बदल सकते हैं.
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