अर्पित हो मेरा मनुज काय ।
बहुजन हिताय बहुजन सुखाय ।।
यह बहुत ही हास्यास्पद है कि केन्द्र सरकार द्वारा संचालित राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) द्वारा हिंदी की पाठ्य पुस्तकों से मैथिलीशरण गुप्त जी गायब हैं.
हिन्दी पट्टी राज्यों में चलने वाली कोर्स 'ए' की किताबों में मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupt) की कोई कविता नहीं है. अपने पुरखों, महापुरुषों को याद करने का क्रूरतम तरीका यही है कि उनके जन्मदिन पर, कहीं स्थापित उनकी मूर्ति को धो-पोत कर माल्यार्पण कर लिया जाए. भले ही बाकी दिनों में उनको भुला दिया जाए. मुझे NCERT के इस निर्णय पर गुप्त जी की पंक्तियां याद आ गईं.
हम कौन थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएं सभी।।
बुन्देलखंड के चिरगांव में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त की मां का नाम काशीबाई और पिता का नाम सेठ रामचरण था. 3 अगस्त साल 1886 को जन्मे गुप्त जी का नाम लाला मदनमोहन रखा गया. पिता सखी सम्प्रदाय को मानते थे, इसलिए इनका नाम 'मिथिलाधिप नन्दशरण' रखा गया. बड़े हुए, पढ़ने गए तो विद्यालय के रजिस्टर में नाम वाले कॉलम में पूरा नाम नहीं आया सो नाम फिर बदल दिया गया और मैथिलीशरण गुप्त फाइनल हुआ.
रही बात पढ़ने-लिखने की तो गांव में प्रारम्भिक शिक्षा पूरी होने के बाद 'डिप्टी कलेक्टर' बनाने की आशा से ये मैक्डॉनल स्कूल झांसी भेजे गए. लेकिन, अच्छा प्रर्दशन न होने के कारण गांव वापस बुला लिए गए. सेल्फ स्टडी बहुत तगड़ी चीज होती है और सेल्फ स्टडी के बल पर ही इन्होंने संस्कृत, बांग्ला और हिन्दी साहित्य का गहरा अध्ययन किया. अपनी रचनाओं में अपने दोस्त मुंशी अजमेरी को बड़ी शिद्दत से याद करते हैं, जिनके साथ इन्होंने पढ़ाई-लिखाई की थी.
कविता लिखने वाले उपनाम भी रखते हैं. पिता के उपनाम 'कनकलता' की तर्ज पर इन्होंने अपना उपनाम स्वर्णलता रखकर एक छप्पय लिखा. छप्पय कविता लिखने का एक प्रकार है, जिसमें 6 पंक्तियां होती हैं. पहले की चार पंक्तियों में 24 मात्राएं और बाद के दो चरणों में 26-26 या 28-28 मात्राएं होती हैं. मात्रा बताने का कारण यह है कि उस जमाने में मुक्त छंद का चलन नहीं हुआ था. कविताओं का अपना अनुशासन होता था. उस समय हिंदी पट्टी के लोग ब्रजभाषा में कविताएं लिखते थे. मैथिलीशरण गुप्त जी का पहला प्रयास जो उन्होंने स्लेट पर लिखा–
अंजहु दीन दयाल दया करौ ।
संपदि भारत की विपद हरऔ ।।
आज जिस हिंदी में हम लोग पढ़ते-लिखते हैं, उसको बनाने, रूप संवारने में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का बहुत बड़ा योगदान है. इतना बड़ा कि 1900 से 1920 तक का समय हिन्दी साहित्य के इतिहास में द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है.
किस्सा यह है कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी उन दिनों झांसी रेलवे में चीफ क्लर्क के पद पर तैनात थे. द्विवेदी जी सरस्वती पत्रिका के संपादक थे. मैथिलीशरण गुप्त जी ने अपनी रचनाओं को सरस्वती में प्रकाशित कराने के लिए द्विवेदी जी से आग्रह किया. द्विवेदी जी ने कहा कि छपने लायक होगी जो जरूर छपेगी लेकिन आप तो ब्रजभाषा में लिखते हैं. गुप्त जी ने जवाब दिया कि वे हिन्दी में लिखेंगे और 'रसिकेन्द्र' नाम से भेजेंगे. द्विवेदी जी का जवाब था, नाम बदलने की जरूरत नहीं है. मैथलीशरण गुप्त ठीक है.
इस प्रकार खड़ी बोली में प्रथम कविता 'हेमंत' साल 1905 में सरस्वती में प्रकाशित हुई. सरस्वती में कविता का प्रकाशन होना बड़ी बात थी. पत्रिका को लेकर द्विवेदी जी कोई समझौता नहीं करते थे. इसका उदाहरण यह है कि एक बार तो द्विवेदी जी ने निराला की कविता वापस कर दी थी. गुप्त जी सरस्वती मंडल के नियमित सदस्य बन गए और सरस्वती में छपते रहे. उन्होंने महावीर प्रसाद द्विवेदी को अपना गुरु मान लिया.
करते तुलसीदास भी कैसे मानस नाद ।
महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद ।।
मैथिलीशरण जी ने करीब 74 रचनाएं लिखी हैं. जयद्रथ वध, पंचवटी किसान, यशोदरा, द्वापर, नहुष, कुणाल गीत, हिडिम्बा खण्ड काव्य, साकेत, प्रबंध काव्य भारत- भारती निबंध काव्य है, जो अत्याधिक चर्चा में रहे. प्रसिद्ध आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक हिंदी साहित्य के इतिहास में इन्हें प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह दोनों का सामंजस्यवादी बतलाया.
गुप्त जी आदर्श मानवतावादी कवि हैं, जिनकी जड़ें भारत की सनातनी परम्परा में देखने को मिलती हैं. अटल राम भक्त होने के कारण उनकी रचनाओं की शुरुआत राम के मंगलगान से होती है.
राम तुम्हारा वृत्त ही स्वयं काव्य है।
कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है।।
गुप्त जी प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति के पोषक हैं और भारत के अतीत पर उनको बड़ा गर्व है. फिर भी युग की परिवर्तित विचारधारा से वे पूर्णतया परिचित हैं और अच्छे विचारों के प्रति सदैव आदर प्रकट किया करते थे. उन्होंने कार्ल मार्क्स की प्रशंसा की है.
गुप्त जी गांधी जी के अनुयाई, अंहिसा के पुजारी, पतितों के उद्धारक एवं नारी स्वतंत्रता के उद्धारक थे. गांधी दर्शन यानि प्राचीन भारतीय दर्शन के अटूट विश्वासी होने के नाते साम्प्रदायिक मतभेदों के विरुद्ध आवाज उठाने में जरा भी हिचकते नहीं हैं. वे न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना समझते हैं.
अधिकार खो कर बैठ रहना यह महा दुष्कर्म है।
न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दंड देना धर्म है।।
मैथिलीशरण जी गांधी युग के प्रतिनिधि कवि हैं. गांधी जी की कवि और कविता दोनों में झलक मिलती है.
जैनेन्द्र कुमार उनकी वेशभूषा पर लिखते हैं...
सिर पर बुन्देलखंडी पगड़ी, घुटने तक गया कुर्ता और लगभग घुटने तक ही रहने वाली धोती. बाल इतने छोटे कि उन्हें चाहकर भी संवारा न जा सके. मानो दिखने वाले समूचेपन से मैथिलीशरण घोषित करना चाहते हों कि मैं किसी सम्भ्रम के योग्य प्राणी नहीं हूं. उत्सुकता का, शोभा का या समादर का पात्र कोई और होगा.
कविता और जीवन जीने में तीन चीजें जरूरी हैं - सादगी, असलियत और जोश. गुप्त जी में इन तीनों का समुच्चय मिलता है. गुप्त जी की रचनाओं का फलक बहुत बड़ा है. राम, कृष्ण, चैतन्य महाप्रभु , महात्मा बुद्ध, सिक्ख ,शाक्य, इस्लाम.
समकालीन चरित्र सभी के बारे में बड़ी सरलता से, बिना अलंकार के चमत्कार से कराए हुए लिखा है. राम के भाई लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला, गौतमबुद्ध की पत्नी यशोधरा, चैतन्य महाप्रभु की पत्नी विष्णुप्रिया, तुलसीदास की पत्नी रत्नावली, कार्ल मार्क्स की पत्नी जेनी आदि के बारे में लिखना, नवीन दृष्टि देना आधुनिक रचना बोध का ही परिचायक है.
महानता सिद्ध करने की इच्छा से कई लोग घर की जिम्मेदारियों से भाग जाते हैं, मानों उनके अंदर पलायन वेग आ गया हो. यह नहीं सोचते कि उनके बच्चों और पत्नी, परिजनों का क्या होगा? यशोधरा का अपने पति गौतम बुद्ध के जाने का मलाल बुद्ध का सामान्यीकरण है.
सिद्धि हेतु स्वामी गए यह गौरव की बात.
पर चोरी-चोरी गए, यही बड़ा व्याघात।
सखि, वे मुझसे कह कर जाते.
कह, तो क्या मुझसे वे अपनी पथ बाधा ही पाते..
राम के अनन्य भक्त गुप्त जी राम के राज्याभिषेक पर भरत को न बुलाने पर एक पत्र में सवाल खड़े करते हैं. मिथकीय, पौराणिक चरित्रों में मर्यादित हास परिहास का संवाद लिखना गुप्त जी की कलम का अनुशासन है. यहां यह बताना जरूरी है कि रीतिकाल में भक्ति के नाम पर अश्लील कविताएं राधा और कृष्ण के प्रसंगों में लिखी गई हैं. किस सधे हुए शब्द-चयन का प्रयोग गुप्त जी करते हैं उसकी एक बानगी देखिए.
क्यों न अब मैं मत्तगज सा झूम लूं,
कर कमल लाओ तुम्हारा चूम लूं,
लक्ष्मण की यह बात सुनकर उर्मिला ने कहा,
कर बढ़ाकर जो कमल सा था खिला,
मुसकराई और बोली उर्मिला,
मत्तगज बनकर विवेक न छोड़ना,
कर कमल कहकर न मेरा तोड़ना।।
पुत्र की मृत्यु की पीड़ा व्यक्ति को अवसाद में ला देती है. गुप्त जी ने अपनी कई संतानों को अपने सामने ही संसार छोड़ते देखा. माता-पिता का विलाप निष्ठुर विधाता को पिघला दे इसी भाव के साथ वे लिखते हैं.
अरे राम! फिर लाल लुटा जाता है मेरा।
सही न्याय है और यहां निर्णय क्या तेरा।।
और न दे पर दिए हुए को तो रहने दे।
निराधार मझधार में न मुझको बहने दे।।
गुप्त जी लिखते हैं, 'अपने देश में आन्तरिक सुख-शान्ति के लिए हमको हिलमिल कर ही रहना चाहिए. समान दुख ही हमारी पारस्परिक सहानुभूति का आधार नहीं होना चाहिए. यह- तो एक विवशता का विषय है. हमें एक दूसरे के प्रति उदार और सहिष्णु होना होगा. एक दूसरे से परिचय और प्रेम बढ़ाना होगा."
राम जिसे मिल जाए उसे मोहे क्या माया ?
पाकर ऐसा पुरुष क्या नहीं किसने पाया ?
ईसा, मुसा और मुहम्मद सा जो आया
समय-समय पर एक संदेसा ही वह लाया।।
कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय संस्कृति में जज्ब करने की जो क्षमता है, गुप्त जी उसी को भारत की उर्वरा शक्ति मानते हैं. गुप्त जी ने अकबर की प्रशंसा की, औरंगजेब की निंदा की और मुहर्रम के इस महीने में गुप्त जी अपनी कविता के साथ मानो हुसैन की शहादत को याद करते हुए नौहा पढ़ रहे हों,
शतियां उसका विरह दुख सहती जाती है।
हा हुसैन! हा हा हुसैन कहती जाती है।।
गुप्त जी की कविता का पैनापन उनकी भाषाई विनम्रता के साथ जब मिलता है तो अर्थ का नश्तर वर्तमान की चीर-फाड़ कर देता हैं- ब्राह्मणों से विनय कविता में वे लिखते हैं...
यदि अब भी तुम कर्तव्य न पालोगे अपना ।
तो रह जावेगा पूर्वकाल निश्चय सपना ।।
हिन्दू समाज के दोष तुम्हीं पर आते हैं ।
सब बातों में अगुआ ही पूछे जाते हैं ।।
आर्थिक आत्मनिर्भरता तभी संभव है जब हमारे संसाधनों का उपयोग हमीं करें. उन्होंने व्यंग्य करते हुए लिखा कि...
हम दूसरों को पांच सौ की बेचते हैं जब रूई ।
सानन्द कहते हैं कि हमको आय क्या अच्छी हुई ।।
पर दूसरे कहते हैं कि ठहरो, वस्त्र जब हम लाएंगे ।
तब और पैतालीस सौ लेकर तुम्हीं से जायेंगे ।।
आज आलोचना का अर्थ है : देशद्रोह. देशद्रोह का अर्थ है ईशनिन्दा. ईशनिन्दा का परिणाम भयंकर है. ऐसे राष्ट्रवादियों (?) धार्मिकों (?) को जो आलोचना नहीं सह सकते और सोने की चिड़िया, दूध की नदियां, किसी की शान में गुस्ताखियां में ही आत्ममुग्ध हैं, उन्हें भारत-भारती की प्रस्तावना पढ़नी चाहिए.
गुप्त जी लिखते हैं, जिन दोषों ने हमारी यह दुर्गति की है, जिनके कारण दूसरे लोग हम पर हंस रहे हैं, क्या उनका वर्णन कड़े शब्दों में किया जाना अनुचित है? मेरा विश्वास है कि जब तक हमारी बुराइयों की तीव्र आलोचना न होगी तब तक हमारा ध्यान उनको दूर करने की समुचित रीति से आकृष्ट न होगा.
मैथिलीशरण गुप्त जी को राष्ट्र कवि की उपाधि, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने दी थी. आज के इस दौर में कवि, पिता और राष्ट्र तीनों का सम्मान बना रहे, यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
अंत में
राम तुम, मानव हो? ईश्वर नहीं हो क्या?
विश्व में रमे हुए नहीं सभी कही हो क्या?
तब मैं निरीश्वर हूं ईश्वर क्षमा करे ।
तुम न रमो तो मन तुम में रमा करे ।।
(लेखक प्रीतेश रंजन ‘राजुल’ पिछले 14 वर्षों से जवाहर नवोदय विद्यालय में हिन्दी के शिक्षक हैं. पढ़ाने के अलावा उनकी रंगमंच में गहरी रूचि है और वे कविता-व्यंग्य लेखन करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)
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